दल बदल कानून - समस्या या समाधान

दल बदल कानून - समस्या या समाधान

किसी भी प्रकार का केन्द्रीयकरण सफलता में सहायक होता है लेकिन केन्द्रीयकरण न्याय को कमजोर भी करता है। केन्द्रीयकरण से व्यवस्था मजबूत होती है और व्यवस्था करने वाले भी मजबूत होते है। लेकिन व्यवस्था से बाहर के लोग कमजोर हो जाते हैं। वैसे तो सारी दुनिया में केन्द्रीयकरण बढ़ रहा है किन्तु भारत में यह गति बहुत अधिक तेज है। आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अथवा धार्मिक, कोई भी व्यवस्था हो सब में तेज गति से केन्द्रीयकरण हो रहा है। वैसे तो किसी भी प्रकार का केन्द्रीयकरण घातक होता है किन्तु आर्थिक या सामाजिक स्तर पर केन्द्रीयकरण जितना घातक होता है उससे कई गुना अधिक राजनीतिक केन्द्रीयकरण घातक है क्योंकि राजनीतिक केन्द्रीयकरण अप्रत्यक्ष रूप से शासक और शासित के रूप में वर्ग बना देता है जो एक प्रकार से मालिक और गुलाम सरीखा वर्ग बन जाता है। भारत मे संविधान का शासन माना जाता है और हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान संशोधन के असीम अधिकार ही तंत्र को पूरी तरह से सौंप दिए इसलिये अप्रत्यक्ष रूप से तंत्र शासक बन गया और लोक शासित । शासक और शासित का यह संबंध ही लोकतंत्र कहा जाने लगा। तंत्र को प्राप्त यह अधिकार ही सबसे अधिक घातक सिद्ध हुआ क्योकि तंत्र ने हमेशा ही इस अधिकार का दुरूपयोग किया । तंत्र ने जब चाहा तब अपने चमचो से समाज मे आवाज उठवाई और उस नकली आवाज के आधार पर संविधान मे मनमाना संशोधन करके अपनी ताकत बढ़ा ली ।

संविधान संशोधन के असीम अधिकारों का लाभ उठाकर ही राजीव गांधी ने दल बदल विधेयक पारित कराने की कोशिश की और सफल रहे। दलबदल विधेयक सत्ता के अधिकतम केन्द्रीयकरण के उद्देश्य से लाया गया था। इस विधेयक के लागू होने के पूर्व तक संसद सदस्य जनप्रतिनिधि माने जाते थे। इन जन प्रतिनिधियो को जनता चुनती थी और ये स्वयं को जनता का प्रतिनिधि मानते थे। राजनैतिक दल अप्रत्यक्ष रूप से इनके सहायक होते थे। इस विधेयक के कानून बन जाने पर वे चुन लिये जाने के बाद जन प्रतिनिधि न रहकर दल प्रतिनिधि के रूप में स्थापित हो गए क्योंकि यदि वे दल के निर्णय के विरुद्ध जाएंगे तो उनकी संसद सदस्यता अपने आप समाप्त हो जाएगी। इसके पूर्व संसद सदस्यों को संसद में अपनी बात रखने की पूरी स्वतंत्रता थी। इस कानून के बाद उनकी स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई और वे संसद में उतना ही बोलने के लिए बाध्य हो गए जो उसे पार्टी कहेगी। इस कानून के बाद सांसद या विधायक एक जीवित व्यक्ति न होकर एक रोबोट या मशीन के सरीखा काम करने के लिये बाध्य हो गया जिसे अपने संचालक की इच्छा के विरूद्ध कुछ भी करने की स्वतंत्रता नही है। इस कानून के बाद पार्टियों के अंदर भी लोकतंत्र पूरी तरह समाप्त हो गया और सभी दलों में व्यक्ति केंद्रित व्यवस्था मजबूत हो गई। इस कानून के पहले सांसद दूसरे दलों के साथ उचित अनुचित पर विचार विमर्ष कर सकते थे या व्यक्तिगत रूप से सौदेबाजी करने के लिए भी स्वतंत्र थे । अब उनकी स्वतंत्रता समाप्त हो गई और सारी सौदेबाजी दल के नेता के हाथ में केंद्रित हो गई। भारतीय राजनीति की वर्तमान स्थिति कितनी खराब हो गई है यह महाराष्ट्र के उदाहरण से समझा जा सकता है जहां विधायक गुलाम के सरीखे, या भेड़ बकरी सरीखे इस होटल से उस होटल स्थानांतरित किये जा रहे थे। हम जिन्हें जनप्रतिनिधि कहते हैं यह कथन एक प्रकार का ढोंग बन गया है। हमारा जनप्रतिनिधि बोलने के लिए स्वतंत्र नहीं है, विचार रखने के लिए स्वतंत्र नहीं है, दल के नेता का पूरी तरह गुलाम बन गया है और दलों के नेताओ की इस गुलामी को ही लोकतंत्र कहा जा रहा है। वैसे तो दल बदल कानून के पहले भी भारत का संविधान लोक सभा और राज्य सभा के सांसदो के सामूहिक निर्णय का गुलाम था, किन्तु दल बदल कानून के बाद भारत का संविधान सिर्फ गिने चुने आठ दस लोगो का गुलाम बन गया।

दलबदल कानून पूरी तरह असंवैधानिक है जो संवैधानिक तरीके से भारत की जनता पर थोप दिया गया। जब संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि प्रत्येक सदस्य को संसद में बोलने की पूरी स्वतंत्रता होगी तब उसकी स्वतंत्रता का अपहरण पूरी तरह असंवैधानिक कार्य है जो संवैधानिक तरीके से लागू कर दिया गया। संविधान में दलीय लोकतंत्र का कहीं उल्लेख नहीं है किन्तु हमारे नेताओं ने दलीय लोकतंत्र की असंवैधानिक व्यवस्था हमारे ऊपर थोप दी। यह कलंकित कार्य राजीव गांधी ने किया और सभी दलों के नेताओं ने इस असंवैधानिक पाप कर्म में राजीव गांधी का साथ दिया। एकमात्र मधु लिमये ही ऐसे व्यक्ति निकले जिन्होंने इस विधेयक का विरोध किया था। उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान दब गई। मैं स्पष्ट कर दूं कि यदि ग्राम सभाओं को अधिकार दिए जाने के लिए राजीव गाँधी के कार्य की प्रशंसा की जायेगी तो दूसरी ओर राजनीतिक सत्ता के केंद्रीयकरण करने वाले दल बदल कानून के लिए राजीव गांधी को खलनायक के रूप में भी माना जाएगा। जिस देश में निर्वाचित जनप्रतिनिधि को भी अपनी बात रखने की स्वतंत्रता ना हो, वह लोकतांत्रिक देश कैसे कहा जा सकता है? आज भारत में जिस प्रकार कुछ व्यक्ति राजनैतिक रूप से शक्तिशाली होकर दल के नाम से अपनी अपनी राजनैतिक दुकानदारी खड़ी कर चुके हैं वह सारी दुकानदारी इस दलबदल कानून के बाद ही मजबूत हुई है। आज देश में एक भी राजनेता ऐसा नहीं दिखता जो राजनीतिक सत्ता के केंद्रीयकरण के खिलाफ आवाज उठाता हो। राजनीति से जुड़े सभी दुकानदार आर्थिक असमानता के विरुद्ध भी आवाज उठाते रहते हैं, सामाजिक या धार्मिक असमानता भी उन्हें परेशान करते रहती है, ऐसे लोग ‘गरीबी या अमीरी हटाओ‘, अवर्णों के साथ न्याय हो, ‘हिंदू मुस्लिम के साथ न्याय हो‘, इसके लिए तो दिन रात लगे रहते हैं किंतु राजनीतिक सत्ता का केन्द्रीयकरण होता रहे, इसके समर्थन में भी यह लोग निरंतर सक्रिय रहते हैं। यहां तक कि राजनीतिक सत्ता से पल्लवित पोषित साहित्यकार, मीडिया कर्मी अथवा सामाजिक कार्यकर्ता भी कभी दल बदल विधेयक के विरुद्ध आवाज नहीं उठाते।

जब हम जानते है कि संसद मे बैठी हुई 543 मुर्तियां कठपुतली के समान हाथ उठाने के लिये ही बिठाई गई है और उन्हे न अपनी बात कहने की स्वतंत्रता है न ही मत देने की तब इस प्रकार के लोगो को वहां बिठाने का नाटक ही क्यो किया जाये? जिस दल के जितने सांसद है उतनी संख्या अपने आप मान लेने मे क्या आपत्ति है। क्यों इतना खर्च किया जाये और क्यों इन कठपुतलियो को वहां बिठाने का नाटक किया जाये, अंतिम निष्कर्ष सब जानते है कि किसे कितने वोट मिलेंगे । मेरे विचार से लोकतंत्र के नाम पर यह पूरी तरह ढोंग चल रहा है। दल बदल कानून ने ढके- छुपे इस ढोंग को और नंगा कर दिया है।

मेरा ऐसा मत है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार के विस्तार में दल बदल कानून बहुत सहायक हुआ है। पहले कुछ व्यक्ति धन या पद के लिये दूसरे दलों से सौदेबाजी करते थे तो दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग थे जो वास्तव मे अपने दलीय नेतृत्व पर अंकुश रखते थे। दोनों ही प्रकार के लोग संसद मे थे, अब यह सारी ताकत दल के नेता के हाथ मे चली गई । अब दल का नेता सौदेबाजी भी कर सकता है और भ्रष्टाचार भी कर सकता है। उस भ्रष्टाचार का कुछ हिस्सा इन कठपुतलियो को भी चाहे तो दे सकता है। भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर विकेन्द्रित भ्रष्टाचार को केन्द्रित भ्रष्टाचार मे बदलने का दूसरा नाम दल बदल कानून है। बड़ी सफाई से राजनेताओं के चमचो ने समाज में इस विधेयक के पक्ष मे वातावरण बनाया और राजनेताओ ने उस नकली वातावरण के नाम पर यह दल बदल कानून भारत की राजनीति पर थोप दिया गया। संभवतः भारत अकेला ऐसा देश होगा जहां राजनैतिक सत्ता का इस तरह केन्द्रीयकरण हुआ हो। यह विधेयक घातक है कलंक है और इसके खिलाफ पूरे देश मे जन जागृति होनी चाहिये। निर्वाचित जन प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित है उसे कोई भी दल अपनी दलीय सदस्यता से तो हटा सकता है किन्तु संसद के प्रतिनिधित्व से नही हटा सकता क्योकि वह जनता द्वारा चुना गया है। इस दल बदल कानून के विरोध मे आवाज उठनी चाहिये।