सामाजिक आपातकाल और वर्तमान वातावरण
सामाजिक आपातकाल और वर्तमान वातावरण
जब किसी अव्यवस्था से निपटने के लिए नियुक्त इकाई पूरी तरह असफल हो जाये तथा अल्पकाल के लिए सारी व्यवस्था में मुख्य इकाई को हस्तक्षेप करना पडे तो ऐसी परिस्थिति को आपातकाल कहते हैं। व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं। दोनों के अपने अपने स्वतंत्र अस्तित्व भी होते है तथा एक दूसरे के सहभागी भी। समाज सर्वोच्च होता है तथा राष्ट्र सहित अन्य सभी इकाइया उसकी सहायक होती हैं। वैसे तो सम्पूर्ण विश्व की सामाजिक परिस्थितिया आपातकाल के अनुरुप हैं किन्तु हम वर्तमान समय में पूरे विश्व की चर्चा न करके अपनी चर्चा को भारत तक ही सीमित रख रहे हैं।
आपातकाल कई प्रकार के होते हैं जिसमें आर्थिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय, सामाजिक, वौद्धिक, धार्मिक, आदि मुख्य माने जाते हैं। आपातकाल मुख्य रुप से उस परिस्थिति को कहते हैं जब कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह अन्य लोगों की इच्छा के विरुद्ध उन्हें अपनी नीतियों पर काम करने के लिए बाध्य कर दे। यद्यपि भारत में आर्थिक धार्मिक तथा अन्य परिस्थितिया भी खतरनाक मोड ले रही हैं तथा सब पर सोचने की आवश्यकता है किन्तु हम यहा समाज पर राज्य के खतरे तक ही अपने को सीमित रख रहे हैं। राज्य की असफलता सिद्ध करने के लिए कुछ लक्षणों पर विचार करना होगा-
1) जब राज्य व्यवस्था सुरक्षा और न्याय की तुलना में जनकल्याण के कार्यो को प्राथमिकता देना शुरु कर दे लोकहित का स्थान लोकप्रियता ले ले। ग्यारह समस्याए-1) चोरी, डकैती, लूट 2) बलात्कार 3) मिलावट कमतौलना 4) जालसाजी, धोखाधडी 5) हिंसा और आतंक 6) चरित्रपतन 7) भ्रष्टाचार 8) साम्प्रदायिकता 9) जातीय कटुता 10) आर्थिक असमानता 11) श्रमशोषण। स्वतंत्रता के बाद ये सभी समस्याए लगातार बढ रही हैं तथा भविष्य में भी किसी समस्या के नियंत्रण की स्पष्ट योजना नहीं दिख रही है। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद कुछ समाधान की जो धुधली सी रुपरेखा दिख रही है वह भी व्यक्तिगत और तानाशाही तरीके से आ रही है,व्यवथागत और लोकतांत्रिक तरीके से नहीं।
2) समाज व्यवस्था पूरी तरह छिन्न भिन्न हो गई है। समाज का स्वरुप जानबूझकर इतना कमजोर कर दिया गया है कि या तो राज्य ही समाज का प्रतिनितिधत्व करता दिख रहा है अथवा छोटे छोटे समाज तोडक संगठन। राज्य योजनापूर्वक समाज को धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रियता, उम्र,लिंग, गरीब अमीर, किसान मजदूर,शहरी ग्रामीण आदि वर्गो में बांटकर वर्ग विद्वेश, वर्ग संघर्ष बढाने का प्रयास कर रहा है। राज्य समाज का प्रबंधक न होकर कष्टोडियन बन बैठा है।
3) समाज का संस्थागत ढांचा कमजोर करके संगठनात्मक ढांचा मजबूत किया जा रहा है। सब जानते है कि संस्थाए समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। तो संगठन आवश्यकताओं को पैदा करते है। फिर भी इतना जानते हुए भी संगठनों को बढावा दिया जा रहा है।
4) चिंतन गौण हो गया है और प्रचार महत्वपूर्ण हो गया है। यहाॅ तक कि संसद में भी चिंतन का वातावरण कभी नहीं बनता। भारत संसदीय लोकतंत्र की आंख मूंदकर नकल कर रहा है जबकि उसे भारतीय परिवेश में नई व्यवस्था के प्रारुप पर चिंतन करना चाहिए था।
5) समाज में अहिंसा कायरता का पर्याय बन गई है। दो बातें भारतीय संस्कृति का आधार मानी जाने लगी है- 1) मजबूत से दबा जाये और कमजोर को दबाया जाये। 2) न्युनतम सक्रियता और अधिकार लाभ के मार्ग खोजे जाये। भारत दोनों दिशाओं में लगातार बढ रहा है।
6) समाज लगातार व्यक्ति केन्द्रित होता जा रहा है। विचार केन्द्रित नहीं,नीति केन्द्रित नहीं, सिद्धांत केन्द्रित भी नहीं। बिना विचारे व्यक्ति के पीछे चलने की प्रवृत्ति निरंतर बढाई जा रही है।
इस तरह से मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा हॅू कि वर्तमान भारत की सामाजिक परिस्थितिया सामाजिक आपातकाल के पूरी तरह उपयुक्त है।
स्वतंत्रता के बाद यदि हम इस गिरावट के कारणों की समीक्षा करे तो इसमें दो लोगों का विशेष योगदान दिखता है- 1) पंडित नेहरु 2) भीमराव अम्बेडकर। पंडित नेहरु ने समाज को गुलाम बनाकर रखने के लिए समाजवाद को थोपने का प्रयास किया तो डा अम्बेडकर ने अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए सामाजिक एकता को छिन्न भिन्न करने में अपनी पूरी शक्ति लगाई। यदि नेहरु और अम्बेडकर की आपस में तुलना करे तो पंडित नेहरु की नीतिया गलत थीं किन्तु नीयत पर अभी संदेह नहीं किया जा सकता तो भीमराव अम्बेडकर की नीतिया भी गलत थी और नीयत भी। यदि हम वर्तमान समय में ठीक ठीक आकलन करे तो पंडित नेहरु का यथार्थ समाज के समक्ष स्पष्ट होने लगा है किन्तु भीमराव अम्बेडकर का कलंकित यथार्थ अभी सामने आना बाकी है भारत की वर्तमान परिस्थितिया राजनैतिक सत्ता को मजबूर कर रही है कि वे अम्बेडकर जी को अल्पकाल के लिए महापुरुष ही बने रहने दें। मेरे विचार में गांधी और आर्यसमाज भारत की वर्तमान सामाजिक समस्याओं का समाधान चाहते थे तो भीमराव अम्बेडकर उन सामाजिक समस्याओं को उभार कर उससे अपना राजनैतिक हित पूरा करना चाहते थे। अम्बेडकर जी पर भविष्य में मंथन का नया विषय रखकर विस्तृत चर्चा होगी।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था वर्तमान समय में तीन तरफ से आक्रमण झेल रही है। 1) साम्यवाद 2) दारुल इस्लाम 3)पाश्चात्य संस्कृति। भारत में साम्यवाद का पतन शुरु होते ही साम्यवाद और दारुल इस्लाम ने हाथ मिला लिया और वह सबसे बडा खतरा बन गया। यदि राजनैतिक तौर पर तीन श्रेणियां मान ले 1) शत्रु 2) विरोधी 3) प्रतिस्पर्धी। तो साम्यवाद शत्रु, दारुल इस्लाम विरोधी और पाश्चात्य संस्कृति को प्रतिस्पर्धी में रखा जा सकता है। शत्रु हमारे विरोधी की सहायता में आ गया है। ऐसी परिस्थितियों में भारत को यह रणनीति बनानी होगी कि हम आपातकाल समझकर अपने प्रतिस्पर्धी के साथ समझौता करके विरोधी से मुकाबला करें। मुझे लगता है कि भारत सरकार पूरी बुद्धिमानी के साथ इस दिशा में आगे बढ रही है। किसी भी मामले में या तो तटस्थ भूमिका अपनाई जा रही है अथवा अमेरिका की तरफ झुकी हुई। हमारे कुछ मित्र यदा कदा ना समझी में अमेरिका की अनावश्यक और ऐसी आलोचना कर देते है जो किसी न किसी रुप में साम्यवाद दारुल इस्लाम की सहायक हो जाती है। हमें रणनीति के अन्तर्गत ऐसी आलोचनाओं से यथार्थ होते हुए भी बचना चाहिये। इसी तरह यदि हम हिन्दुत्व को भारतीय समाज व्यवस्था के साथ जोडकर देखें तो संघ के कार्य हिन्दुत्व की सुरक्षा में तो सहायक है किन्तु विस्तार में बाधक। राष्ट्रवाद भारतीय समाज व्यवस्था के लिए बहुत घातक है किन्तु वर्तमान समय में साम्यवाद और दारुल इस्लाम के खतरे को देखते हुए हमें संघ और उसके राष्ट्रवाद को शक्ति देने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है।
सामाजिक आपातकाल है। इसका समाधान खोजना होगा । हमारी भारत की राजनैतिक व्यवस्था किस दिशा में करवट लेगी यह अभी स्पष्ट नहीं है। सकारात्मक चार दिशाये होती है- 1) प्रशंसा 2) समर्थन 3) सहयोग 4) सहभागिता। वर्तमान शासन व्यवस्था समस्याओं का समाधान कर पायेगी ऐसे लक्षण दिख रहे है किन्तु यह स्पष्ट नहीं दिखता कि समाज का अस्तित्व सदा सदा के लिए राज्य में विलीन हो जायेगा अथवा राज्य शासक की जगह प्रबंधक की ओर बढेगा। ऐसी परिस्थिति में हमें सतर्क दृष्टिकोण अपनाना होगा। जब तक यह साफ नही दिखे कि भारत विचार मंथन की दिशा में बढ रहा है, तानाशाही और लोकतंत्र की जगह लोकस्वराज्य की ओर जा सकता है, तब तक हमे राज्य से सहभागिता नहीं करनी चाहिये । प्रशंसा , समर्थन और कभी कभी सहयोग भी किया जा सकता है किन्तु सहभागिता नहीं। यदि साम्यवाद और दारुल इस्लाम का गठजोड कमजोर नहीं होता है तो हमें राज्य का सहयोग करना चाहिये, भले ही समाज की जगह राष्ट्र ही क्यों न मजबूत होता हो। किन्तु यदि खतरा कमजोर होता है तो हमें राष्ट्रवाद और तानाषाही प्रवृतियों से दूरी बनाकर एक सत्ता निरपेक्ष तथा सामाजिक शक्ति को मजबूत करना चाहिये। हमें पश्चिम की सांस्कृतिक आंधी का विरोध न करके प्रतिस्पर्धा तक स्वयं को सीमित करना चाहिये। हमें सतर्क रहना चाहिए कि हम भारतीय राज्य व्यवस्था के सहभागी नहीं है और हम उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे है जब समाज मालिक होगा और राज्य मैनेजर या प्रबंधक।
मैने सन 77 से ही यह आभास कर लिया था कि सामाजिक आपातकाल की परिस्थितियां हैं लेकिन ऐसी कोई टीम नहीं बन पा रही थी। सन 99 आते आते हम लोगों ने बैठकर भारत की वैकल्पिक संवैधानिक व्यवस्था का एक प्रारुप भी बना लिया जो आज भी मौजूद है। हम लोगों ने सन् 2000 से 2003 तक रामानुजगंज शहर में सर्वोदय के मार्ग दर्शन में नई राजनैतिक व्यवस्था का सफल प्रयोग भी किया। संविधान के प्रारुप और प्रयोग की सफलता के बाद हम सब लोगों ने 26 से 29 मार्च 2003 में सेवाग्राम में बैठकर ठाकुरदास जी बंग जी के नेतृत्व में सामाजिक आपातकाल की घोषणा की और समाधान की विस्तृत योजना बनाई। यह योजना ज्ञानतत्व क्रमांक 64 में विस्तारपूर्वक प्रकाशित है। उस योजना की सफलता इसलिए नहीं हो पायी कि सर्वोदय के सरकारी पदाधिकारियों ने इसका विरोध कर दिया। बाद में अन्ना जी के नेतृत्व में इस योजना पर काम शुरु हुआ और अरविंद केजरीवाल के धोखा देने के बाद वह काम रुक गया। अब 2015 के अक्टूबर माह से इस सामाजिक आपातकाल के समाधान की दिशा में निरंतर विस्तार हो रहा है। स्पष्ट है कि सामाजिक आपातकाल है और समाज सर्वोच्च की भूख आम लोगों में पैदा करनी होगी। परिस्थितिवष कुछ शक्तियों से समझौते भी करने पड सकते है किन्तु लक्ष्य स्पष्ट रखना होगा। जब तक हम राज्य को सारी दुनिया से और विशेष कर प्रारंभ में भारत से संरक्षक की जगह पर प्रबंधक नहीं बना लेते, तब तक हम शांति से नहीं बैठेंगे। इसके लिए हमें जो नीतियां बनानी होगी वो बैठकर बनायेंगे। क्योंकि लक्ष्य हमारा स्पष्ट है और उसे पूरा करके ही रहेंगे। अब तक की संभावित योजना अनुसार 2024 तक सफलता की संभावना दिखती है। भविष्य क्या होगा यह हम आप सबकी सूझबूझ और सक्रियता पर निर्भर करेगा।
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