गांधी मार्क्स और अंबेडकर
गांधी, मार्क्स और अंबेडकर की तुलना कठिन होते हुये भी बहुत प्रासंगिक है क्योंकि तीनों के लक्ष्य और कार्यप्रणाली अलग-अलग होते हुये भी वर्तमान भारत की राजनैतिक सामाजिक व्यवस्था पर तीनों महापुरूषों का व्यापक प्रभाव है ।
गांधी की तुलना मे मार्क्स और अंबेडकर कहीं नही ठहरते । तुलना के लिये आवश्यक है कि तीनो के लक्ष्य मे कुछ समानता हो, भले ही मार्ग भिन्न ही क्यो न हो । यहाँ तो तीनो के लक्ष्य भी अलग-अलग हैं और मार्ग भी । गांधी सामाजिक स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाकर चल रहे थे । गांधी के लक्ष्य मे कही भी सत्ता संघर्ष नहीं था । वे तो सत्ता मुक्ति के प्रयत्नो तक सीमित थे । मार्क्स का लक्ष्य सत्ता परिवर्तन था । गांधी का लक्ष्य अकेन्द्रीयकरण था तो मार्क्स का केन्द्रीयकरण । अंबेडकर का लक्ष्य तो और भी सीमित था । मार्क्स सत्ता को समस्याओं का समाधान बताते थे किन्तु स्वयं सत्ता संघर्ष मे नहीं थे । अंबेडकर स्वयं प्रारंभ से ही सत्ता की तिकड़म करते रहे । मार्क्स पूंजीवाद को हटाकर धनहीनों की सत्ता चाहते थे तो अंबेडकर समाज व्यवस्था का लाभ उठा रहे सवर्णो के लाभ मे अवर्ण बुद्धिजीवियों का हिस्सा मात्र चाहते थे । गांधी किसी भी प्रकार के वर्ग संघर्ष के विरूद्ध थे तो मार्क्स गरीब-अमीर के बीच तथा अंबेडकर सवर्ण, अवर्ण के बीच संघर्ष के पक्षधर थे । गांधी वर्ग संघर्ष के परिणाम मे समाज टूटन विषरूपी परिणाम देखकर चिन्तित थे तो मार्क्स और अंबेडकर वर्ग संघर्ष के परिणाम स्वरूप समाज टूटन को सत्ता रूपी मक्खन समझकर प्रसन्न होते थे । गांधी अधिकतम अहिंसा के पक्षधर थे तो मार्क्स अधिकतम हिंसा के और अंबेडकर को हिंसा अहिंसा से कोई परहेज नही रहा ।
मार्क्स का एक नारा था कि शासन मुक्त व्यवस्था । मार्क्स मानते थे कि ईश्वर का भय समाज में कम होने के कारण राज्य के अदृश्य भय का बढ़ना आवश्यक है । मार्क्स मानते थे कि राज्य धीरे-धीरे अदृश्य होकर अस्तित्वहीन हो जायेगा तथा समाज अस्तित्वहीन राज्य के भय से स्वाभाविक रूप से चलता रहेगा । मार्क्स की यह धारणा कालान्तर में घातक सिद्ध हुई । मार्क्स के नाम पर स्थापित राज्य ने ईश्वर और समाज के भय को तो कम किया और अपना भय बढ़ा दिया किन्तु स्वयं को अस्तित्व हीन होने के पूरी तरह विपरीत स्थायी स्वरूप देना शुरू कर दिया ।
परिणाम स्पष्ट था कि मार्क्स के कथनानुसार चलने वालो को पूरा पूरा सत्ता सुख मिला जिसमे कहीं भी समाज के लिये गुलामी के अतिरिक्त कुछ और नही था तो अंबेडकर जी के मार्ग पर सत्ता की दिशा चलने वालों को लूट के माल मे हिस्सा मिलना शुरू हो गया । समाज को न मार्क्स की दिशा मे गुलामी से राहत मिली न अंबेडकर के मार्ग से श्रमजीवी अवर्णो को । गांधी की चर्चा इसलिये संभव नहीं क्योकि गांधी तो स्वतंत्रता के पहले पड़ाव पर ही मार दिये गये । सत्ता के दो दावेदार गुटो मे से एक ने गांधी के विरूद्ध ऐसा वातावरण बनाया कि गांधी की शारीरिक हत्या हो गई तो दूसरे ने गांधी के वारिस बनकर ऐसा वातावरण बनाया कि गांधी विचारों की हत्या हो गई ।
गांधी का प्रयत्न था कि दुनियां के सभी शरीफ लोग अपराधियों के विरूद्ध एक जुट हो जावे । गांधी हृदय परिवर्तन पर ज्यादा जोर देते थे । मार्क्स का नारा था कि दुनियां के सभी मजदूरों एक हो जाओ । इसमें वर्ग संघर्ष को आधार बनाया गया । अंबेडकर भी भारत के सभी अवर्णो को सवर्णो के विरूद्ध एक जुट होकर संघर्ष का नारा देते रहे ।
यदि हम भारत का आकलन करें तो यहाँ आपको की लाइन पर चलने वाले भी बड़ी संख्या मे मिल जायगें क्योकि इस लाइन पर चलने मे कहीं न कहीं सत्ता की उम्मीद है । अंबेडकर की लाइन पर चलने मे भी लाभ ही लाभ है क्योकि वहां भी सत्ता मे हिस्सेदारी की पूरी व्यवस्था अंबेडकर जी सदा-सदा के लिये कर गये है । बेचारे गांधी के मार्ग पर क्या मिलने वाला है?, क्यों कोई गांधी मार्ग पर चले?, आज भारत मे बेचारे गांधी का हाल यह है कि यदि किसी से कहा जाय कि तुम्हारे बेटे के रूप मे गांधी का जन्म होने वाला है तो वह चाहेगा कि गांधी के रूप वाला बेटा पड़ोसी के घर चला जाये । उसे तो नेहरू, बिड़ला या अंबेडकर सरीखे बेटे से ही काम चल जायगा । गांधी की लाइन पर चलने वाले को न तो कोई व्यक्तिगत लाभ है न ही पारिवारिक । इस लाइन पर चलकर सिर्फ सामाजिक लाभ ही संभव है जिसमे चलने वालो की रूचि नगण्य है । दूसरी ओर मार्क्स या अंबेडकर की लाइन पर चलने वाले को व्यक्तिगत और पारिवारिक लाभ भरपूर है । इतना ज्यादा कि वह पूरे समाज के लाभ को भी अपने घर मे डाल रखने की शक्ति पा जाता है । बताइये कि आज के भौतिक युग मे कोई गांधी मार्ग पर क्यो चले?
यदि अंबेडकर या मार्क्स मे आंशिक रूप से भी सामाजिक भाव होता तो वे श्रम, बुद्धि और धन के बीच श्रम की मांग और मूल्य बढ़ने की बात करते जिससे आर्थिक सामाजिक विशमता कम होती । गांधी ने लगातार श्रम और बुद्धि के बीच दूरी घटाने की कोशिश की । अंबेडकर को तो श्रम से कोई मतलब था ही नहीं । न अच्छा न बुरा । अंबेडकर तो सिर्फ सामाजिक असमानता का लाभ उठानें तक ही पर्याप्त थे । किन्तु मार्क्स को आधार बनाकर बढ़ने वालों ने श्रम को धोखा देने के लिये मानसिक श्रम नामक एक नया शब्द बना लिया जो पूरे-पूरे शारीरिक श्रम का हिस्सा निगल गया । बुद्धि जीवियों ने शारीरिक श्रम शोषण के ऐसे-ऐसे तरीके खोज लिये कि श्रम और बुद्धि के बीच दूरी लगातार बढ़ती चली गई । यदि गांधी के अनुसार मशीन और शारीरिक श्रम के बीच कोई मानवीय संतुलन रखा गया होता तो आज जैसी अराजकता नहीं होती । किन्तु मार्क्सवादियो की निगाहें श्रम पर थी और निशाना बुद्धि को लाभ पहुंचाने का । भारत में समाजवादी लोकतंत्र नामक आंशिक साम्यवाद ही आ पाया किन्तु यहाँ भी श्रम और बुद्धि के बीच लगातार बढ़ता फर्क स्पष्ट है । यदि श्रम की मांग और महत्व बढ़ जाता तो जातीय आरक्षण की जरूरत ही नही पड़ती । किन्तु भारत मे सत्ता लोलुप त्रिगुट श्रम मूल्य वृद्धि के प्रयास से ही आतंकित थे । नेहरू के नेतृत्व का कांग्रेसी गुट बुद्धिजीवी पूंजीपतियों को अधिकाधिक सुविधा देकर उनके वोट लेने का प्रयास करता रहा तो साम्यवादी श्रम प्रधान लोगों को बहकाकर उन्हे पूंजीवाद के विरूद्ध नारा लगवाने का औजार मानते रहे और अम्बेडकर वादियों की खास समस्या रही कि यदि श्रम और बुद्धि के बीच की दूरी घट गई तो जातीय आरक्षण महत्वहीन हो जायगा । तीनो के अलग-अलग स्वार्थ थे और इस स्वार्थ का उजागर करने वाला कोई था नहीं । संघ परिवार से कुछ उम्मीद की जा सकती थी किन्तु उसे भी हिन्दू मुसलमान के अतिरिक्त किसी समस्या से कोई मतलब नहीं था ।
गांधी कट्टर हिन्दू थे । वे मानते थे कि हिन्दू धर्म की वाह्य मान्यताए अन्य सभी धर्मो की अपेक्षा अधिक मानवीय है । मार्क्स अपना स्वयं का धर्म चलाना चाहते थे । उनके अनुसार धर्म समाज मे होता है । यदि राज्य ही समाज बनकर समाज के सभी काम करने लगे तो किसी धर्म की जरूरत ही क्या है । अंबेडकर को हिन्दू धर्म से विशेष द्वेष था । वे बचपन से ही हिन्दू धर्म छोड़कर उससे प्रत्यक्ष टकराव चाहते थे किन्तु गांधी जी ने कड़ाई से उन्हे रोक दिया । अंबेडकर बहुत चालाक थे । उन्होने समझा कि कुछ वर्ष हिन्दू ही रहकर उसकी जड़ो मे मठ्ठा डालने का काम क्यो न करें?, जहाँ लोहिया, जयप्रकाश, नेहरू, पटेल आर्थिक विषमता को दूर करना अपनी प्राथमिकता घोषित कर रहे थे वहीं अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के पीछे अपनी सारी शक्ति लगा दी । वे मुसलमान होना चाहते थे किन्तु मुस्लिम महिलाओं को उन्होंने अपने कोड बिल के सुधारवादी कदम से बाहर रखा । रोकने वाला कोई था नही । गांधी थे ही नही, नेहरू जी अंबेडकर से डरते थे । गांधी हत्या के बाद संघ अविश्वसनीय हो चुका था । अंबेडकर के इस प्रयत्न को कौन रोकता?, हिन्दू धर्म के तथाकथित अगुवा सवर्ण स्वयं अवर्ण शोषण के कलंक से मुंह छिपा रहे थे । अंबेडकर जी हिन्दू कोड बिल बनवाने मे सफल रहे । मुझे आश्चर्य होता है कि गांधी के कट्टर हिन्दू होते हुए भी हिन्दुत्व के किसी राजनैतिक स्वार्थ पूर्ण प्रचार से प्रभावित होकर किसी मूर्ख हिन्दू ने ही गांधी की हत्या कर दी । मै समझ नही पाता कि हिन्दुत्व का शत्रु कौन?, अंबेडकर, मार्क्स अथवा वह स्वार्थ पूर्ण प्रचार जिसने सत्ता के फेर मे पड़कर गांधी को उसमे बाधक मान लिया । कुछ ही वर्ष बाद बात उजागर हो गई जब ऐसे तत्वो ने हिन्दू संगठन के नाम पर अपना अलग राजनैतिक दल बना लिया । मै अब भी मानता हॅू कि हिन्दू धर्म मे आंतरिक बुराइयां थी और अब भी है किन्तु अन्य धर्मो के साथ संबंध मे हिन्दू धर्म के मुकाबले कोई नही । गांधी हिन्दू धर्म की आंतरिक बुराइयों को दूर करना चाहते थे और अंबेडकर उसका लाभ उठाना चाहते थे यही तो है इनका तुलनात्मक विश्लेषण ।
वर्तमान समय में तीनों ही महापुरूष जीवित नहीं हैं किन्तु तीनों की छाया आज भी भारतीय समाज व्यवस्था को प्रभावित कर रही है । गांधी टोपी, गांधी की खादी और गांधी का झंडा हाथ में लेकर गांधीवादी राजनेताओं ने सारे देश को आर्थिक तथा राजनैतिक रूप से लूट लिया । आज आपको भारत में ऐसे धूर्त राजनेता भी मिल जायेगे जो एक ओर तो अपने नाम के साथ गांधी उपनाम जोड़ते हैं तो दूसरी ओर राजनैतिक सत्ता की दौड़ में भी शामिल रहते हैं । असली गांधी ने अपने कार्यकाल में मिलती हुई सत्ता को त्याग दिया था तो नकली नामधारी गांधी न मिलती हुई सत्ता के पीछे भी दौड़े चले जा रहे हैं ।
गांधी व्यक्ति स्वातंत्र के पक्षधर थे तो गांधीवादियों ने सारी सत्ता अपने पास समेट कर समाज को गुलाम बना लिया । गांधी न्यूनतम मशीनीकरण के पक्षधर थे तो गांधीवादियों ने डीजल, पेट्रोल, बिजली को अधिकतम सस्ता कर दिया । गांधी वर्ग समन्वय के पक्षधर थे तो गांधीवादियों ने वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष को ही सत्ता का आधार बना लिया । गांधी के अराजनैतिक उत्तराधिकारियों से समाज को कुछ उम्मीद थी किन्तु वे भी राजनैतिक गांधीवादियों के ऐसे प्रभाव में आये कि उन्होंने ग्राम स्वराज्य की परिभाषा ही बदल दी । गांधी स्वराज ग्राम के पक्षधर थे और ग्राम स्वावलम्बन को स्वायत्ता का परिणाम मानते थे तो गांधीवादी ग्राम स्वावलम्बन को ही मुख्य मानने लगे । विनोबा के नेतृत्व में गांधीवादी आदर्श ग्राम बनाते रहे तो सत्ताधीश गांधीवादी सत्ता की सारी माल मलाई खाते रहे । गांधीवादियों ने अपने पूरे कार्यकाल में संघ परिवार का विरोध करने के पीछे अपनी इतनी शक्ति लगाई कि अपना अस्तित्व ही समाप्त कर दिया । दूसरी ओर संघ परिवार ने भी गांधी को बदनाम करने के पीछे इतनी ज्यादा ताकत लगाई कि वह कभी हिन्दुओं का विश्वास अर्जित नहीं कर सका । भारत का हर हिन्दू समझता है कि यदि कोई व्यक्ति गांधी हत्या का समर्थक है तो वह व्यक्ति हिन्दुत्व को बिल्कुल नहीं समझता ।
माक्र्स के नाम पर भारत में साम्यवाद आया । सत्ता प्राप्ति ही उसका एक मात्र लक्ष्य था । वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष को साम्यवाद ने अपना मुख्य आधार बनाया । नेहरू, पटेल, अम्बेडकर आदि से भी साम्यवादियों को फूट डालो राजकरो की नीतियों का भरपूर समर्थन मिला । साम्यवादियों ने लोकतंत्र की अपेक्षा हिंसा पर अधिक विश्वास किया । सम्पूर्ण भारत में बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सबसे अधिक हिंसा को सत्ता परिवर्तन का आधार मानने का प्रचलन अब तक है । साम्यवाद का ही अतिवादी स्वरूप नक्सलवाद के रूप में सामने आया जिसने पूरे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । साम्यवाद ने परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को निरंतर कमजोर किया । साम्यवाद ने हिन्दुत्व की अवधारणा को ही अपने लक्ष्य में बाधक माना और जब जहाँ जरूरत पड़ी इस्लाम से समझौता कर लिया । साम्यवाद गरीब अमीर के बीच वर्ग संघर्ष के लिये आवश्यक समझता है कि दोनो के बीच दूरी लगातार बढ़ती रहे । साम्यवाद अच्छी तरह जानता है कि कृत्रिम उर्जा श्रम शोषक है और श्रम मूल्य वृद्धि के लिये कृत्रिम उर्जा मूल्य वृद्धि आवश्यक है फिर भी वह हमेश कृत्रिम उर्जा मूल्य वृद्धि के खिलाफ सबसे आगे रहता है क्योंकि ऐसा होते ही उसका वर्ग संघर्ष का आधार टूट जायेगा । साम्यवादी कृत्रिम उर्जा पर टैक्स का तो विरोध करते है किन्तु गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, कृषि उत्पादन पर लगने वाले करों का विरोध नहीं करते । उन्होंने बंगाल, केरल में भी ये कर नहीं हटाये ।
अंबेडकर जी की तो शुरू से ही नीयत खराब थी । वे सिर्फ सत्ता लोलुप थे । परिणामस्वरूप उनके वारिस भी उसी राह पर चलते रहे । भारत में एस.सी, एस.टी की कुल संख्या यदि तीस करोड़ मान लें तो इनमें से पंचान्नवे प्रतिशत आज भी श्रमजीवी हैं । दो तीन प्रतिशत बुद्धिजीवी अवर्णो ने अपने अवर्ण श्रमजीवियों का लगातार शोषण किया । इन मुठठी भर बुद्धिजीवी अवर्णो ने अम्बेडकर के नाम पर सम्पूर्ण भारत को ब्लैकमेल किया है । सारा देश जानता है कि वर्तमान संविधान भारत की सारी समस्याओं की जड़ है । जब तक इस संविधान में व्यापक संशोधन नहीं होते तब तक कोई सुधार संभव नहीं । किन्तु संविधान की बात उठते ही ये मुठठी भर अंबेडकर वादी ऐसा आसमान सर पर उठा लेते है कि कोई सही बात कह ही नहीं पाता । इस संविधान का लाभ उठा रहे सभी बुद्धिजीवी राजनेता चाहे वह सवर्ण हो या अवर्ण, अंबेडकर जी और उनके संविधान को भगवान की तरह स्थापित करते है । वे भूल जाते है कि भविष्य के इतिहास में भीमराव अंबेडकर खलनायक सिद्ध होने वाले हैं ।
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते है कि गांधी की नीतियां और नीयत दोनो ठीक थी, मार्क्स की नीयत ठीक थी नीतियां गलत थी और अंबेडकर की नीतियां और नीयत दोनो गलत थी । गांधीवादियों ने गांधी की नीतियों के विपरीत आचरण करके, मार्क्सवादियों ने मार्क्स की नीतियों में संशोधन करके तथा अंबेडकरवादियों ने अंबडेकर की नीतियों पर अक्षरषः आचरण करके भारत की सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था को गंभीर श्रति पहुंचाई है ।
मेरे विचार से भारत की वर्तमान अव्यवस्था का एक ही समाधान है गांधी । हम मार्क्स और अंबेडकर के चक्रव्यूह से भारत को निकालकर गांधी मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करें ।
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