भाषा आंदोलन कितना उचित कितना अनुचित

भाषा आंदोलन कितना उचित कितना अनुचित

किसी व्यक्ति के मनोभाव किसी दूसरे व्यक्ति तक ठीक-ठीक उसी प्रकार से पहुंच सकें जैसा कि वह चाहता है, और इसके लिये जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उसे भाषा कहते हैं। भाषा एक माध्यम है, उसकी स्वयं की कोई भूमिका नहीं होती। इसका मुख्य उददेश्य श्रोता तक अपने विचार ठीक ठीक पहुंचने तक सीमित होता है। भाषा का चयन हमेशा श्रोता की क्षमता के आधार पर होता है। भाषा का चयन कभी वक्ता की इच्छानुसार नही होता। भाषा हमेशा व्यक्तिगत होती है समूहगत नहीं। भाषा वक्ता और श्रोता के बीच संवाद का माध्यम है।

राज्य हमेशा ही समाज को विभाजित देखना चाहता है, इस प्रयत्न में वह आठ आधारों का सहारा लेता है-1. धर्म 2.जाति 3. भाषा 4. क्षेत्रीयता 5. उम्र 6. लिंग 7. आर्थिक भेद 8. उत्पादक एवं उपभोक्ता। इन आधारों में समय समय पर भाषा के नाम पर टकराव पैदा करने का भी प्रयत्न लम्बे समय से जारी है। शांत वातावरण में पंडित नेहरू ने सबसे पहले भाषावार प्रांत के नाम से विष बीज बोया, जिसने भारत को स्थायी रूप से उत्तर-द़िक्षण में बांट दिया, वह खाई अबतक नहीं मिटी है। करूणानिधि ने उस विष बीज को खाद पानी देकर एक ऐसा वृक्ष का स्वरूप दे दिया जिसके फलों के आधार पर करूणानिधि का पूरा जीवन सत्ता सुख में बीत गया। भाषा के नाम पर क्षेत्रीयता का उभार बढाया जा रहा है।

भाषा को संस्कृति के साथ भी जोडा जाता हैै, जबकि भाषा और संस्कृति लगभग पूरी तरह अलग-अलग होते हैं। संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति के मनोभाव, चिंतन तथा कार्य प्रणाली से जुडा होता है जिसका भाषा से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। मैंने सुना है कि अटल जी ने प्रधानमंत्री रहते हुये संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में भाषण देकर उसे सांस्कृतिक भावनात्मक स्वरूप देने का प्रयास किया। यह प्रयास पूरी तरह गलत था। दुनियां जानती है कि विचारप्रस्तुत करते समय व्यक्ति के हावभाव का भी बहुत प्रभाव पडता है। द्विभाषिया द्वारा प्रस्तुत विचार की उपादेयता घट जाती है। जिस सभा में विचारों का महत्व हो वहां आप भाषा प्रेम के चक्कर मेें विचारो के महत्व को कम करने की भूल करे यह सोच गलत है। अटल जी ने यह गलती की, और सारे भारत में हिन्दी में बोलने के कारण उन्हें प्रशंसा मिली।

भाषा को कभी भी रोजगार का माध्यम नहीं होना चाहिये। नेहरू की गलतियों के कारण अंग्रेजी भाषा नौकरी और रोजगार का मुख्य आधार बन गई। परिणामस्वरूप दक्षिण भारत ने इस कमजोरी का अधिकाअधिक लाभ उठाना चाहा और वे पूरी तरह अंग्रेजी से चिपक गये। यहां तक कि स्वतंत्रता के सत्तर वर्षाे बाद भी उनकी सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। जब भाषा श्रोता की होती है और वक्ता अपनी भाषा तय करने का अधिकार नहीं रखता, तब मुझे किस भाषा में बात करनी चाहिये, इसकी सलाह कोई अन्य क्यों दे? पत्नी पति के बीच किस भाषा का उपयोग हो यह उन्हें तय करने दीजिये। किसी गूंगे बहरे को समझाने के लिये मुझे कौन सी भाषा का उपयोग करना है इसके लिये आप की सलाह की आवश्यकता नहीं है। दक्षिण भारत की यात्रा के समय रामाराव के आंदोलन के कारण हम परिवार और मित्रों सहित एक ऐसे गांव में रूक गये, जहां कोई हिन्दी अंग्रेजी जानने वाला नहीं था। रोते हुये बच्चे को दूध के लिये हमें नयी भाषा का सहारा लेना पडा। एक गाय के नीचे बर्तन रखकर दूध दूहने का नाटक (इशारा) करना पडा। तब एक महिला इशारा समझकर दूध लेकर आयी।

भाषा दो व्यक्तियों के बीच व्यक्तिगत विचारों के आदान प्रदान का माध्यम है, किन्तु भाषा दो इकाईयों के बीच विचारों के आदान प्रदान का भी आधार है। इसका अर्थ हुआ कि कोई देश अपनी सुविधानुसार एक भाषा को आधार बना सकता है, किन्तु कोई देश अपनी बात अन्य नागरिकों पर जबरदस्ती थोप नहीं सकता। मुसलमानों ने उर्दू को या अंग्रेजो ने अंग्रेजी को अपना माध्यम बनाया, किन्तु दूसरों को उसका उपयोग करने या सीखने के लिये मजबूर नहीं किया। स्वतंत्रता के बाद डाॅ लोहिया ने भाषा को जन आंदोलन बनाने प्रयास किया। बलपूर्वक अंग्रेजी के नाम पट मिटाये जाने लगे। स्पष्ट है कि यह तरीका अतिवाद से प्रेरित था और इसमें भाषा से प्रेम की अपेक्षा राजनीति की गंध अधिक आती है। आप किसी को भी कोई भाषा लिखने पढ़ने या उपयोग करने से नहीं रोक सकते। भाषा को धर्म या राष्ट्रवाद से भी नहीं जोड़ना चाहिये।
प्राचीन समय मे शिक्षा राज्य मुक्त थी। अंग्रेजो ने अधिक से अधिक लोगो को अपना नौकर बनाने के लिये सरकारी शिक्षा की प्रथा शुरू की। मैं अपने बच्चे को किस भाषा में शिक्षा दूं ये मेरी स्वतंत्रता है, किन्तु शिक्षा के अधिकाधिक सरकारीकरण के कारण उसमें भाषा विवाद का समावेश हो गया। देशभर में किस प्रकार कितनी भाषाएं पढाई जाये इसका निर्णय करने में भी कई दशक लग गये और आज तक निर्णय नहीं हो सका है। इस संबंध में हर पांच दस वर्ष में सरकार का तुगलकी फरमान जारी हो जाता है। अंग्रेजी से निपटने के लिये अकेले हिन्दी जब कमजोर पडने लगी तब उसने क्षेत्रीय भाषाओं का सहारा लिया। स्पष्ट दिख रहा था कि क्षेत्रीय भाषाओं का विस्तार भविष्य में अधिक घातक होगा, किन्तु पूरे देश में ऐसा प्रयोग हुआ। आज क्षेत्रीय भाषाऐें इस समस्या के समाधान में बडी बाधक बनी हुई हैं। भाषा के नाम पर अलग अलग संगठन बना कर अपनी अपनी दुकानदारी चला रहे हैं, और समाज में टकराव पैदा कर रहे हैं। बंगाल में हिन्दी में लिखे बोर्ड भी मिटाने का प्रयास होता है। छत्तीसगढ़ हिन्दी भाषी प्रदेश है किन्तु वहां भी अब छत्तीसगढ़ी के नाम पर राजनैतिक रोटी सेकी जा रही है। दो चार लोग एक संगठन बनाकर इस कार्य के नाम पर कुछ न कुछ करते रहते है। एक तरफ क्षेत्रीय भाषाओं के विस्तार के लिये अनेक संगठन सक्रिय रहते हैं तो दूसरी ओर हिन्दी भाषा के विस्तार के लिये भी अनेक संगठन बने हुये है। आराम से संगठनों को सरकारी सहायता मिलती रहती है और इन संगठनों को कोई अन्य कार्य करने की आवश्यकता नहीं होती। मेरे एक मित्र लगभग बीस वर्षो से हिन्दी प्रेमी है। वे टेलीफोन या मोबाइल को दूरभाष बोलने में बहुत सतर्क रहते हैं। मुझे भी मोबाइल या फोन को दूरभाष कहने में कोई दिक्कत नहीं होती, किन्तु मैं जितनी सुविधानुसार मोबाइल के नाम से श्रोता को समझा पाता हूॅ वह मौलिकता दूरभाष शब्द में नहीं है इसलिये मैं बोल चाल में इस शब्द का उपयोग नहीं करता हूॅ। अंग्रेजी या उर्दू के अनेक शब्द बोलचाल की भाषा में घुलमिल गये हैं। कुछ विशेष हिन्दी प्रेमी ऐसे शब्दो के उपयोग पर यदा कदा आपत्ति करते रहते हैं। मुझे ऐसी आपत्ति में कोई सार नहीं दिखता। अंग्रेजी हिन्दी उर्दू चाहे अकेली भाषा हो या खिचडी बनी हुयी, हमारा उददेश्य विचार प्रकट करने से है जो श्रोता आसानी से समझ सकें। उसके साथ भावनाओं को नहीं जुडना चाहिये।
वर्तमान भारत में भाषा समाज में टकराव पैदा करने का एक बडा माध्यम है। इस टकराव से समाज को हमेशा नुकसान होता है और राजनेताओं को लाभ होता है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस प्रकार के भावनात्मक टकराव से बचें और राजनेताओं की स्वार्थ पूर्ति का माध्यम न बने।