4 जुलाई – प्रातः कालीन सत्र: भारत की अर्थव्यवस्था पर विचार

4 जुलाई – प्रातः कालीन सत्र: भारत की अर्थव्यवस्था पर विचार

वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था में एक गंभीर समस्या यह है कि प्रत्येक वर्ष रुपये का आंतरिक मूल्य घटता जा रहा है। इस मूल्य ह्रास के परिणामस्वरूप वस्तुओं के मूल्य स्वाभाविक रूप से बढ़ते हैं, जिसे सामान्यतः "महंगाई" कहा जाता है। परंतु वास्तव में यह महंगाई नहीं होती, बल्कि यह "मुद्रा स्फीति" अथवा "मुद्रात्मक अवमूल्यन" होती है। दुर्भाग्यवश, महंगाई शब्द के प्रयोग से इस मूलभूत आर्थिक प्रक्रिया को गलत ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जिससे जनमानस में भ्रम उत्पन्न होता है।

स्थिर मूल्य की अवधारणा और मूल रुपया:

हमारी प्रस्तावित नई समाज व्यवस्था में "स्थिर मूल्य" की एक अवधारणा को स्वीकार किया जाएगा। इसका अभिप्राय यह है कि हम एक मूल रुपया निर्धारित करेंगे, जिसका मूल्य सदा स्थिर रहेगा और जो केवल अभिलेखों व आर्थिक मापदंडों में प्रयुक्त होगा। इसके विपरीत प्रचलित अथवा आभासी रुपया बाजार में वास्तविक लेनदेन के लिए उपयोग किया जाएगा, जिसका मूल्य हर वर्ष परिवर्तित होता रहेगा।

इस मूल रुपये की गणना हम स्वतंत्रता के समय (1947) से आरंभ कर सकते हैं, अथवा इसे वर्तमान समय से भी लागू किया जा सकता है। इसके पश्चात प्रत्येक वर्ष 1 अप्रैल को प्रचलित रुपये का मूल्य मूल रुपये की तुलना में घोषित कर दिया जाएगा। उदाहरण के लिए, यदि आज के दिन मूल रुपया ₹1 है और उसका वर्तमान मूल्य ₹200 के समतुल्य है, तो यह जानकारी सार्वभौमिक रूप से स्पष्ट कर दी जाएगी।

भ्रम का निवारण और पारदर्शिता:

इस व्यवस्था से हर नागरिक को यह ज्ञात होगा कि उसकी आय, संपत्ति, वेतन, व उपभोग की वस्तुओं की वास्तविक कीमत मूल मूल्य के आधार पर कितनी है। इससे "महंगाई" के नाम पर उत्पन्न किए जा रहे अनेक प्रकार के भ्रमों का निवारण होगा। आज यदि देखा जाए तो ₹1 का मूल्य लगभग ₹200 के बराबर हो गया है। इसका अर्थ है कि संपत्ति, सोना-चांदी, भूमि और सरकारी वेतन आदि वस्तुएं कई गुना महंगी हो गई हैं, जबकि दैनिक उपभोग की वस्तुएं तुलनात्मक रूप से सस्ती हुई हैं। इसके बावजूद कुछ वर्ग—विशेष रूप से पूंजीपति और सरकारी अधिकारी—महंगाई का रोना इसीलिए रोते हैं क्योंकि वे वास्तविकता छिपाकर लाभ उठाना चाहते हैं।

यदि यह व्यवस्था लागू कर दी जाए और प्रतिवर्ष मूल्य वृद्धि दर जैसे ₹10 या ₹15 प्रति वर्ष के आधार पर घोषित कर दी जाए, तो बजट की प्रक्रिया सरल हो जाएगी और आर्थिक पारदर्शिता बढ़ेगी। साथ ही, जो वर्ग जानबूझकर भ्रम फैलाते हैं, उनकी असलियत भी समाज के सामने उजागर हो सकेगी।

निष्कर्ष:
मूल रुपया और प्रचलित रुपया को अलग-अलग मान्यता देने से भारत की अर्थव्यवस्था को एक नई स्पष्टता, स्थिरता और पारदर्शिता प्राप्त होगी, जिससे हर नागरिक वास्तविक आर्थिक स्थिति को समझ सकेगा और भ्रांतियों से मुक्त होकर न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ेगा।