23 अक्टूबर – प्रातःकालीन सत्र विषय: महिला-पुरुष संबंधों में पारिवारिक स्वायत्तता

23 अक्टूबर – प्रातःकालीन सत्र

विषय: महिला-पुरुष संबंधों में पारिवारिक स्वायत्तता

वर्तमान समाज में महिला और पुरुष के आपसी संबंध बहुत उलझे हुए हैं। अब यह तक विवाद का विषय बन गया है कि किसी महिला की संतान किसकी मानी जाए। इसी कारण समाज में आत्महत्याएं, हिंसा और मुकदमे लगातार बढ़ रहे हैं।

हमने इस विषय पर गंभीर विचार किया और यह निष्कर्ष निकाला कि इन समस्याओं का स्थायी समाधान तभी संभव है जब महिला-पुरुष संबंधों को कानूनी दायरे से मुक्त किया जाए और उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता दी जाए।

महिला और पुरुष — दोनों के अधिकार समान होंगे।
किसी बच्चे की पहचान उसकी माँ और उस परिवार से होगी, जिससे माँ जुड़ी है। पिता के आधार पर पहचान तय करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी।

कौन किसका पति या पत्नी है — यह सरकार तय नहीं करेगी, न ही इसका कोई सरकारी रिकॉर्ड रखा जाएगा। यह सब परिवार के स्तर पर तय होगा। परिवार यदि चाहे, तो किसी महिला को परिवार की सहमति से एक से अधिक पुरुषों के साथ रहने की अनुमति हो सकती है, और यही स्वतंत्रता पुरुषों को भी होगी।

परिवार को एक स्वतंत्र और संवैधानिक इकाई माना जाएगा।
उसे अपने आंतरिक नियम बनाने की पूरी स्वतंत्रता होगी। केवल बल प्रयोग, धोखाधड़ी या अपराध के मामलों को छोड़कर, सरकार किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप नहीं करेगी।

यदि किसी विवाद का आपसी या पारिवारिक निपटारा हो जाता है, तो सरकार का कानून उसमें भी दखल नहीं देगा। इस प्रकार महिला, पुरुष और संतान से जुड़े विवाद पूरी तरह समाप्त हो जाएंगे और सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं रहेगा।

उदाहरण के तौर पर —
दिल्ली के नबी करीम इलाके में आशु और आकाश नामक दो व्यक्तियों का एक ही महिला से संबंध था। गर्भ के बच्चे की पहचान को लेकर विवाद बढ़ा और आकाश ने आशु तथा उस महिला — दोनों की हत्या कर दी।
इसी तरह पंजाब में एक पूर्व डीजीपी के बेटे की मानसिक स्थिति खराब हो गई क्योंकि उसकी पत्नी और ससुर के बीच संबंधों पर शक था। वह 18 वर्ष तक डिप्रेशन में रहा और अंततः उसकी मृत्यु हो गई। अब प्रश्न उठता है — यदि उनके बीच कोई संबंध था भी, तो इसमें सरकार या समाज को दखल देने की क्या आवश्यकता थी?

इसलिए मेरा सुझाव है कि महिला-पुरुष संबंधों को पूरी तरह व्यक्तिगत और पारिवारिक मामला माना जाए। समाज और सरकार को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
यदि ऐसा किया जाए, तो हत्याएं, आत्महत्याएं और मुकदमे — इन सभी से समाज को मुक्ति मिल सकती है।