नरम हिंदुत्व का मार्ग ही हमें व्यवस्था-परिवर्तन में सफलता दिला सकता है।
आज सुबह मैंने यह लिखा था कि नरम हिंदुत्व का मार्ग ही हमें व्यवस्था-परिवर्तन में सफलता दिला सकता है। हमने यह मार्ग सोच-समझकर चुना है, क्योंकि इस परिवर्तन की शुरुआत भारत ही कर सकता है।
हिंदुत्व की प्रकृति पर यदि वस्तुनिष्ठ दृष्टि से विचार किया जाए, तो उसमें लगभग 10 प्रतिशत उग्र तत्व हैं, जबकि 90 प्रतिशत लोग शांतिप्रिय हैं। हिंदुत्व में आतंकवाद शून्य है। इसके विपरीत, इस्लाम में लगभग 80 प्रतिशत उग्रवाद, 10 प्रतिशत आतंकवाद और केवल 10 प्रतिशत लोग ही वास्तविक रूप से शांतिप्रिय हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में हिंदुत्व को शुद्ध और संतुलित करना संभव है, क्योंकि उसका उग्र पक्ष सीमित है और उसे सुधारा जा सकता है। लेकिन इस्लाम के संदर्भ में यह कार्य लगभग असंभव प्रतीत होता है, क्योंकि वहाँ उग्र और कट्टर तत्वों का अनुपात अत्यधिक है, जिसे बाहरी हस्तक्षेप से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
एक दूसरी बड़ी समस्या यह रही है कि पंडित नेहरू ने हिंदुत्व को कमजोर करने के लिए हर संभव राजनीतिक प्रयास किया। उन्होंने मुसलमानों को प्रोत्साहित किया और हिंदू-मुस्लिम बराबरी के नाम पर ऐसी नीतियाँ अपनाईं, जिनका उद्देश्य जनसंख्या संतुलन को कृत्रिम रूप से बदलना था। इस प्रक्रिया में हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का प्रयास किया गया। इसके परिणाम आज हमारे सामने हैं—भारत में पुनः विभाजन जैसी आवाज़ें उठने लगी हैं।
आज भी नेहरू परिवार का प्रत्येक सदस्य लगातार ऐसी राजनीति करता दिखाई देता है, जिसका उद्देश्य हिंदुओं को वैश्विक स्तर पर हाशिये पर ले जाना है। यह प्रयास भारत से ही शुरू करने की कोशिश की जा रही है। इसी कारण कांग्रेस से जुड़े लोग अल्पसंख्यकों को लगातार प्रोत्साहित करते हैं और यहाँ तक कि विदेशी मुसलमानों को भारत में बसाने के प्रयास भी करते रहे हैं।
हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम इस प्रकार के वैचारिक और राजनीतिक उग्रवाद का खुलकर विरोध करें। यही कारण है कि हमने नरम हिंदुत्व को प्रोत्साहित करना प्रारंभ किया है। हमारा निरंतर प्रयास रहेगा कि नेहरू परिवार अपनी तथाकथित “हिंदू-मुक्त दुनिया” की योजना में कभी सफल न हो सके, बल्कि इसके विपरीत, दुनिया भर में नरम हिंदुत्व की विचारधारा निरंतर विस्तार पाती रहे।
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