समाधान
वर्तमान भारत में हम जो भी समस्याओं का विस्तार देख रहे हैं वह विश्वव्यापी है और बहुमुखी है । इसका एक सूत्री कारण है विकृत लोकतंत्र जिसने धीरे-धीरे समाज को इतना कमजोर कर दिया कि लोक अर्थात समाज गुलाम बन गया और तंत्र अर्थात राज्य मालिक । इस समस्या के समाधान के लिये भी हमें दो दिशाओं से सक्रिय होना होगाः- 1. लोक सशक्तिकरण 2. तंत्र कमजोरीकरण । हमें दोनों दिशाओं में एक साथ सक्रिय होना चाहिये । समाज सशक्तिकरण के लिये हम समाज की वर्तमान स्थिति और उसकी प्रमुख समस्याओं पर चर्चा करेंगे ।
समाज की समस्याएं कई प्रकार की हैं जिनमें वैश्विक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, मानवीय आदि कई प्रकार की समस्याएं सम्मिलित कर सकते हैं । वैश्विक समस्याएं भी सैकड़ों हैं किन्तु हम यदि चार-पांच प्रमुख समस्याओं की चर्चा करें तो इनमें एक बड़ी और प्रभावकारी समस्या यह है कि दुनियां में भौतिक उन्नति की गति तो बहुत तेज है किन्तु नैतिक पतन भी उतनी ही तेज गति से हो रहा है । भौतिक प्रगति के लिये स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा को खुली छूट दी गई किन्तु स्वतंत्रता उच्श्रृंखलता में बदलती चली गई और नैतिकता महत्वहीन होती गई । भौतिक उन्नति को ही सामाजिक विकास का एकमात्र मापदण्ड मान लिया गया । इस खुली और अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा के कारण बहुत तेज गति से नैतिक पतन हुआ । छल, कपट, शोषण, धूर्तता जैसी असामाजिक गतिविधियों को सामाजिक मान्यता तथा प्रतिष्ठा मिलने लगी । इसी तरह पूरे विश्व में शिक्षा का बहुत तेज गति से विस्तार और महत्व बढ़ा और उतनी ही तेज गति से ज्ञान घटता चला गया । शिक्षा भौतिक प्रगति में प्रमुख सहायक है और ज्ञान नैतिक उन्नति में सहायक है । शिक्षा को ज्ञान सहायक न मानकर रोजगार के साथ जोड़ दिया गया । वैज्ञानिक प्रगति में शिक्षा का बड़ा योगदान होता है और भौतिक उन्नति में वैज्ञानिक प्रगति का बड़ा योगदान है । परिणाम हुआ कि शिक्षा और विज्ञान का महत्व लगातार बढ़ता चला गया और यह बढ़ता महत्व समाज कमजोरीकरण का प्रमुख आधार बना ।
समाज कमजोरीकरण का दूसरा वैश्विक आधार बना विकृत लोकतंत्र । राजतंत्र और तानाशाही की तुलना में लोकतंत्र एक मजबूरी तो है किन्तु समाधान नहीं है । तानाशाही में कुव्यवस्था का खतरा होता है तो लोकतंत्र में अव्यवस्था का । अब तक दुनियां में साफ नहीं है कि लोकतंत्र और तानाशाही के बीच कौन सी व्यवस्था पूरी तरह ठीक है । वर्तमान लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष का होना आवश्यक है । जिस व्यवस्था के प्रारंभ में ही विपक्ष आवश्यक हो वहाँ कभी न कोई संतुलन संभव है न कोई व्यवस्था संभव है । दुनियां मे यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ के दो प्रशासक अमेरिका और चीन के राष्ट्रपति युद्ध शुरू कर दें तो दुनियां के साढ़े सात अरब लोग न उनको युद्ध से रोक सकते हैं न स्वयं बच सकते हैं । लोकतांत्रिक विश्व में सत्ता का इतना घिनौना ध्रुवीकरण लोकतंत्र है या गुलामी यह भी आज तक स्पष्ट नहीं है ।
हम भारत की भी समीक्षा करें तो भारत में भी लोकतंत्र का अर्थ सत्ता और और विपक्ष तक ही सीमित है । भारत का लोकतंत्र भी कभी तानाशाही की दिशा में झुक कर समस्याओं का समाधान करना शुरू कर देता है तो कभी लोकतंत्र की दिशा में झुककर समस्याओं का अम्बार खड़ा कर देता है । यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ का संविधान ही तंत्र की मुठ्ठी में कैद है । तंत्र जब चाहे तब संविधान को अपनी ढाल के रूप में उपयोग करता है और जब चाहे तब उसमें मनमाना संशोधन भी कर सकता है । भारत का लोकतंत्र लोक को धोखा देकर उसकी पांच वर्ष में सहमति प्राप्त करने के लिये जो दस प्रकार के नाटक करता है उसमें ही वह निरंतर सक्रिय रहता है । तंत्र कभी लोक को एक जुट नहीं होने देता ।
समाज का कोई भौतिक स्वरूप तो बना नहीं है । समाज तो सर्व व्यक्ति समूह होता है । समाज का भौतिक स्वरूप होता है व्यक्ति समूह अर्थात परिवार उसके ऊपर गांव, उसके ऊपर प्रदेश और सबसे ऊपर राष्ट्र । अब तक राष्ट्र सबसे ऊपर है और राष्ट्र से ऊपर सिर्फ समाज होता है जिसका कोई भौतिक स्वरूप नहीं है । व्यक्ति समूह के मार्गदर्शन का दायित्व धर्म का है तो व्यवस्था का राष्ट्र का । राष्ट्र, धर्म और राज्य बिल्कुल अलग अलग होते हैं किन्तु भारत में राज्य और राष्ट्र एकाकार हो गये तथा धीरे-धीरे राज्य ने धर्म को भी विकृत कर दिया । राष्ट्र को मालिक और राज्य को मैनेजर होना चाहिये किन्तु राज्य मालिक बन गया और अन्य सभी इकाइयां गुलाम बन गई । सबसे बड़ी समस्या यही है कि राष्ट्र रूपी सामाजिक इकाई को राज्य से अलग और ऊपर कैसे स्थापित किया जाये । समाज सशक्तिकरण के लिये यहीं से कुछ करना होगा । व्यक्ति समूह और उसकी व्यवस्था का मार्गदर्शन धर्म करता है । धर्म किसी भी रूप में संगठन नहीं हो सकता क्योंकि धर्म व्यक्तिगत होता है तथा गुण प्रधान होता है । राज्य की साठ गांठ से धर्म शब्द और उसका स्वरूप भी विकृत हो गया । पंथ और सम्प्रदाय ही धर्म कहे जाने लगे । दुनियां में जितनी हत्याएं धर्म और राज्य के आपसी टकराव से हुई और हो सकती हैं उसका दसवां भाग भी अपराधी नहीं कर पाते क्योंकि अपराधियों से तो समाज रक्षा कर सकता है तथा धर्म या राज्य उसमें सहायता भी करते हैं किन्तु जब धर्म और राज्य ही अपराधों को प्रोत्साहित करने लगें तब सुरक्षा कहाँ से संभव है ।
समाज की सहायता में स्वतंत्र अर्थव्यवस्था का भी योगदान होता है । अर्थ व्यवस्था नीचे की इकाइयों में तो प्रतिस्पर्धा को प्रेरित करती है तो ऊपर की इकाई को आर्थिक सहायता भी करती है । राज्य ने पूरी की पूरी अर्थ व्यवस्था पर अपना नियंत्रण कर लिया । अब अर्थ व्यवस्था और राज्य व्यवस्था का ऐसा नापाक गठबंधन हुआ कि न कहीं नैतिकता का महत्व बचा न मानवता का सब कुछ या तो अर्थ प्रधान हो गया या सत्ता प्रधान ।
वर्ण व्यवस्था तथा जाति व्यवस्था का भी समाज व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । वर्ण और जाति व्यवस्था पहले स्वयं विकृत हुई । स्वतंत्रता पूर्व तक इनमें सामाजिक विकृति थी जिसका सामाजिक समाधान भी बहुत तेज गति से हो रहा था । स्वतंत्रता के बाद राज्य व्यवस्था ने इस विकृति का लाभ उठाकर जाति प्रथा को जातीय टकराव के रूप में बदल दिया । अब यह कुप्रथा संगठित टकराव के रूप में सामने आ गई ।
समाज व्यवस्था की सबसे पहली और महत्वपूर्ण इकाई है परिवार व्यवस्था । राज्य व्यवस्था ने परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने में सबसे अधिक शक्ति लगाई । धर्म, राष्ट्र, जाति, अर्थ आदि में अनेक समस्याएं आने के बाद भी परिवार व्यवस्था आंशिक रूप से अब भी भारत में बची हुई है लेकिन वह भी राज्य के लगातार हस्तक्षेप से टूटने के ही कगार पर है ।
व्यक्ति और समाज मूल इकाइयां हैं तथा अन्य सभी इकाइयां व्यवस्था की । व्यवस्था की इकाइयों में विकृति आने का दुष्प्रभाव मूल इकाईयों अर्थात व्यक्ति और समाज पर पड़ना स्वाभाविक है । जैसी संभावना थी वही हुआ भी । दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव में स्वार्थ और हिंसा का भाव बढ़ने लगा । परिवार से लेकर विश्व तक की किसी भी व्यवस्था में व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । जब व्यक्ति ही स्वार्थ और हिंसा से प्रभावित होने लगा तो ऊपर तो दुष्प्रभाव होना ही था । इस तरह व्यक्ति और व्यवस्था के बीच एक गोल चक्र बना जिसमें व्यवस्था व्यक्ति को स्वार्थ और हिंसा की ओर प्रेरित कर रही है तो स्वार्थ और हिंसा प्रभावित व्यक्ति व्यवस्था को विकृत कर रहा है । समाधान के रूप में आ रही गुलामी चाहे किसी तानाशाह की हो या किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की किन्तु व्यक्ति समूह अर्थात व्यक्ति से लेकर समाज तक की सभी इकाइयों को गुलामी झेलनी ही होगी । सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हर ऊपर की इकाई नीचे की इकाई को डिकटेट भी कर रही है तथा दुष्परिणामों का सारा दायित्व भी नीचे की इकाई पर डाल रही हैं । परिवार से लेकर राष्ट्र तक को एक भी ऐसी स्वतंत्रता नहीं जिसमें हस्तक्षेप का असीम अधिकार राज्य को न हो इसके बाद भी सारा दोष समाज पर ही डाल दिया जाता है ।
समाज व्यवस्था को कमजोर करने का सबसे अधिक घातक प्रयास यह हुआ कि समाज की सभी इकाइयों में विचार मंथन बन्द करके सारे निर्णय ऊपर से होने लगे । प्राचीन काल में भारत में विचार मंथन के माध्यम से निष्कर्ष निकलते थे और भारत विचारों का निर्यात करता था । गुलामी काल में मंथन बन्द हुआ और अब तो भारत आंख बन्द करके विचारों का आयात कर रहा है । परिवार से लेकर राष्ट्र तक संवाद प्रणाली बन्द होकर अनुकरण प्रणाली विकसित हो रही है । विचार मंथन द्वारा निष्कर्ष न निकालकर प्रचार माध्यमों का सहारा लिया जा रहा है । समाजशास्त्र पर तो कहीं विचार मंथन हो ही नहीं रहा । यदि कहीं इक्का दुक्का विचार मंथन भी होता है तो वह धर्मशास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र या श्रम शास्त्र तक सीमित है । विचार मंथन बन्द होने से हम भारत के लोग वैज्ञानिक रिसर्च तो कर पा रहे हैं किन्तु सामाजिक विषयों पर कोई रिसर्च नहीं कर पा रहे । स्पष्ट है कि सामाजिक विषयों पर रिसर्च के लिये ज्ञान अधिक महत्व रखता है तो अन्य विषयों पर रिसर्च में शिक्षा । भारत भी दुनियां की नकल करते हुये ज्ञान की जगह शिक्षा विस्तार में सक्रिय हुआ । परिणाम हुआ कि विचार मंथन बन्द हो गया ।
स्पष्ट है कि परिवार से लेकर राष्ट्र तक की सभी इकाइयों में विकृति आ चुकी है । यदि हम राज्य को कमजोर भी कर दें और समाज मजबूत न हो तो एक शून्य पैदा हो सकता है जो अराजकता का आधार बनेगा । इसलिये हमें राज्य कमजोरीकरण के साथ-साथ समाज सशक्तिकरण का अभियान भी चलाना होगा । व्यक्ति के स्वभाव से स्वार्थ और हिंसा का भाव निकले इसके लिये परिवार, राष्ट्र, जाति, धर्म, अर्थ आदि सभी इकाइयों में आई विकृतियों को निकालना होगा । जब तक इन आंतरिक विकृतियों से मुक्ति नहीं होगी तब तक व्यक्ति के स्वार्थ और हिंसा का भाव कम नहीं होगा जब तक यह भाव कम नहीं होगा तब तक हम सशक्त समाज नहीं बना सकते । इसलिये हमें सब काम छोड़कर इस एक दिशा में योजना बनानी होगी जिससे हमारी सभी सामाजिक इकाइयां अपनी विकृतियों से मुक्त हो सकें ।
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