साम्यवाद और वामपंथ यह सही है कि साम्यवाद दुनिया की सबसे अधिक खतरनाक विचारधारा है। मोटे तौर पर देखने पर इस्लाम सबसे खतरनाक दिखता है किन्तु इस्लाम एक खतरनाक संगठन मात्र है। इस्लाम में विचार नामक कोई तत्व होता ही नहीं ? इस्लाम तो मात्र वैसा ही है जिस तरह भारतीय वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय माने जाते हैं, लेकिन साम्यवाद उस तरह संगठन मात्र नहीं। इस्लाम दुनिया में मानवता रूपी कमजोरी के कारण फलता फूलता रहा और दुनिया जिस दिन मानवता में संशोधन करने के लिये तैयार हो जायेगी उसी दिन इस्लाम या तो बदल जायगा या समाप्त हो जायगा। जबकी वामपंथ दुनिया की दया पर टिका हुआ नहीं है बल्कि एक समानान्तर शक्ति के रूप दुनिया को चुनौती दे रहा है। अनुभव बताता है कि यदि कोई मुसलमान अपना धर्म अर्थात् संगठन बदलकर हिन्दू या इसाई हो जाये तो उसमें पर्याप्त बदलाव संभव है, किन्तु किसी साम्यवादी को आप आसानी से अन्यत्र एडजस्ट नहीं कर सकते साम्यवादी दुनिया में सबसे अधिक चालाक माने जाते हैं। साम्यवादियों का अप्रत्यक्ष रूप से ब्रेन वाश हो जाता है जबकि इस्लाम मानने वालों में आम तौर पर ब्रेन होता ही नहीं। दुनिया में साम्यवाद की उत्पत्ति भारत के वामपंथ और शासन करने की भूख को मिलाकर हुई। प्राचीन समय में भारत में वामपंथ एक प्रभावी विचार के रूप में था। भारत के वामपंथी पंचमकार को अपनी जीवन पद्धति का आधार मानते थे। ये पंचमकार थे मांस, मछली, मैथुन, मुद्रा और मद्य। दक्षिणपंथी इन पांच के उपयोग को अच्छा नहीं मानते थे और वामपंथी इन पांचो को अपनी सफलता को महत्वपूर्ण अंग मानते थे। वामपंथी परिवार व्यवस्था समाज व्यवस्था के किसी भी प्रकार के बंधन को नहीं मानते थे। कच्चा मांस खाने, लाशों के साथ खेलने या मैथुन के लिये मां बहन के संबंधों को छोड़ने से वामपंथी कभी परहेज नहीं करते थे। वामपंथ के अतिवादी लोगों को हम बचपन में औघड़ या तांत्रिक भी कहते थे। अधिकांश वाममार्गी बहुत उच्च स्तर के विद्वान होते थे। पुराने जमाने में अधिकांश ब्राह्मण ही वामपंथ की दिशा में सफल होते पाते थे। आज भी भारतीय धर्मग्रन्थों में ब्राह्मण के लिए दर्शन शास्त्र का ज्ञान महत्वपूर्ण माना जाता है। दर्शन शास्त्र बौद्धिक विकास के चरम की दिशा में ले जाता है जहाँ यह स्पष्ट दिखता है कि ईश्वर कुछ भी नहीं है। वामपंथी समाज व्यवस्था को अस्वीकार करके नास्तिक बन जाता है जबकि अन्य ब्राम्हण ईश्वर के अस्तित्व को समाज व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग मानकर शेष समाज में ईश्वर के प्रति मान्यता का भाव पैदा करते हैं। समाज व्यवस्था को मानने वाले समाज में अपराधों के विरुद्ध भय पैदा करने के लिये ईश्वर के अस्तित्व को महत्वपूर्ण मानते हैं जबकि वामपंथी ऐसा नहीं मानते। भारत में वामपंथ के प्रमुख के रूप में आचार्य चार्वक को माना जाता है जो नास्तिक तो थे ही और नैतिकता की तुलना में भौतिकता के प्रबल पक्षधर थे। जहाँ समाज व्यवस्था में ऋण लेने को अपनी बड़ी असफलता माना जाता है वहीं चार्वाक सिद्धान्त ‘ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत’ के आधार पर पहचाना जाता है। भले ही प्राचीन समय में ब्राह्मण ही सर्वाेच्च विद्वान होते थे लेकिन कालान्तर में जब वर्ण व्यवस्था विकृत होकर जन्म के आधार पर चलने लगी तब अन्य वर्णों के परिवारों में उच्च स्तरीय विद्वान निकलने लगें। यही कारण है कि वाममार्गी भी ब्राह्मणत्व से बाहर निकलकर विद्वता और नास्तिकता को अपना आधार बनाने लगे। धीरे धीरे अन्य वर्णों में भी विद्वान निकलने लगे। भारत में वाममार्गियों ने कभी राजनैतिक सत्ता का सपना नहीं देखा किन्तु साम्यवाद ने इस वाममार्ग को सत्ता का आधार बना दिया। बुद्ध ने सबसे पहले भारत में नास्तिकता का महत्व समझाया इसलिये दुनिया में साम्यवाद का विस्तार वहीं आसानी से हुआ जहाँ बुद्ध का नास्तिकवाद जडें़ जमा चुका था। बुद्ध पंचमकार के समर्थक नहीं थे लेकिन साम्यवाद ने बुद्ध की नास्तिकता, भारतीय वामपंथ के पंचमकार तथा अपनी सत्ता लोलुपता को मिलाकर साम्यवाद रूपी एक नया पंथ दुनिया के सामने रख दिया। साम्यवाद बहुत तेजी से दुनिया में बढ़ा क्योंकि नैतिक पतन के सभी आकर्षण इस सिद्धान्त के मुख्य आधार थे। इसमें भौतिक उन्नति को एकमात्र आधार बनाया गया। समाज व्यवस्था तथा ईश्वर के भय को पूरी तरह अस्वीकार किया गया। ईश्वर का स्थान तानाशाही शासन व्यवस्था ने ग्रहण किया। परिवार व्यवस्था को लगातार कमजोर किया गया। इस साम्यवादी तूफान के सामने दुनिया की समाज परिवार ईश्वरवादी नैतिकता प्रधान सोच ने घुटने टेक दिये। पश्चिम ने धीरे धीरे इस साम्यवादी विचार धारा के साथ समझौता किया तब तक भारत से बुद्ध धर्म विदा ले चुका था। इसलिये भारत नास्तिकता या भौतिकवाद से बचा रहा। भारत गुलाम भी रहा तो मुसलमानों और इसाइयों का। पश्चिम ने भी साम्यवाद से मुकाबला करने के लिये समाजवाद रुपी एक तीसरा विचार दुनिया के सामने रखा। जो साम्यवाद का एक संशोधित परिवर्धित स्वरूप था। गुलामी काल में तो भारत में समाज बहुत आगे आया किन्तु स्वतंत्रता के बाद पंडित नेहरू साम्यवाद से बहुत प्रभावित हुए। दूसरी ओर गांधी पूरी तरह साम्यवाद विरोधी थे इसलिये पण्डित नेहरू ने बड़ी चालाकी से साम्यवादी विचार का इस्लाम के साथ समझौता करा कर भारत के समक्ष परोस दिया। इस नेहरू-वाद में भौतिकता, अनीश्वरवाद और सत्ता लोलुपता का एक अद्भुत मिश्रण था। यही मिश्रण बाद में जे एन यू के रूप में भौतिक स्वरूप ग्रहण किया। जे एन यू ने अपने विस्तार के लिये पंचमकार के भारतीय वामपंथ तथा साम्यवाद के सत्ता लोलुपता का खुलकर उपयोग किया। कालान्तर में धीरे धीरे भारत में हिन्दुत्व की आवाज मजबूत हुई और सत्तर वर्षों के बाद नेहरू विचारधारा को मोदी विचारधारा से चुनौती मिली। अब भारत में साम्यवाद तो भौतिक धरातल पर कमजोर हुआ, किन्तु नेहरूवाद अभी भी मोदीवाद को जमकर चुनौती दे रहा है। मोदी विरोध के नाम पर सत्ता लोलुप विपक्ष नेहरू परिवार की हां में हां मिलाने को मजबूर है। भारतीय समाज व्यवस्था जहाँ भौतिकता को अधिक महत्व देती है वहीं नेहरूवाद भौतिकता का प्रबल पक्षधर है। उपभोक्तावाद ही चार्वाक का सिद्धान्त रहा है और यही उपभोक्तावाद नेहरूवाद के भी मूल में है। आज भी राहुल गांधी उत्पादन बढाने या आत्मनिर्भर भारत की जगह सब कुछ बांट दो सब सस्ता कर दो की नीति को महत्व दे रहे हैं। उत्पादन बढ़े उपभोग कटे यही आत्म निर्भरता का मूल तत्व होता है, लेकिन कांग्रेस पार्टी बड़ी बेशर्मी से आयात भले ही बढ़े लेकिन आम लोगों को सब चीजें सस्ती मिले यही मांग दुहराती है। समाज को जातिवाद में बांटना इनकी ‘फूट डालो राज करो’ वाली नीति का प्रमुख शस्त्र है। सत्ता ही सर्वाेच्च सफलता है यही साम्यवाद की चरम सफलता मानी जाती है। आज नेहरू परिवार उसी दिशा में लगातार कोशिश कर रहा है। लेकिन भारत ने बुद्ध के नास्तिकतावाद को चुनौती दी तो वर्तमान साम्यवाद के नये संस्करण नेहरूवाद को भी भारत ही सफल चुनौती देगा। निकट भविष्य में ऐसा दिखता है कि भारत वामपंथ, साम्यवाद और नेहरूवाद को एक साथ निपटाने में सफल होगा। ः मैंने पिछले 4 दिनों तक साम्यवाद की उत्पत्ति दुनिया की सबसे खतरनाक विचारधारा तथा अन्य साम्यवाद से जुड़े विषयों पर लेख लिखें। बहुत अच्छी चर्चा हुई। आचार्य पंकज ने मुझे फोन करके कहा कि आपका लेख बहुत गंभीर है लेकिन अंतिम पैराग्राफ जोड़कर आपने लेख की गंभीरता को मिट्टी में मिला दिया है। मैं समझता हूं कि यदि अंतिम पैराग्राफ ना हो तो लेख गंभीर तो हो जाएगा लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं है। हम सिर्फ साम्यवाद को परिभाषित नहीं कर रहे हैं बल्कि उसका समाधान भी बता रहे हैं । हम उत्तर पथ के पथिक हैं वामपंथ और दक्षिणपंथ के नहीं। यदि अंतिम पैराग्राफ जिसमें मैंने नेहरू और मोदी की विचारधारा के फर्क को स्पष्ट किया है वह अगर ना लिखा जाए तो लेख की उपयोगिता विद्वत्ता तक सीमित हो जाएगी सामान्य लोगों के लिए यह लेख उपयोगी नहीं होगा इसलिए मैंने अनावश्यक होते हुए भी अंतिम पैराग्राफ को इस लेख के साथ जोड़ा है क्योंकि मैं विद्वता के लिए नहीं यथार्थ के लिए माना जाता हूं।
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