पर्सनल ला क्या, क्यों और कैसे?

आज कल पूरे भारत मे पर्सनल ला की बहुत चर्चा हो रही है । मुस्लिम पर्सनल ला के नाम पर तो पूरे देश मे एक बहस ही छिडी हुई है। सर्वोच्च न्यायालय की एक बडी बेंच इस मुद्दे पर विचार कर रही है कि पर्सनल ला और मुस्लिम पर्सनल ला क्या है। पूरे देश मे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा निर्धारित किये जाने की भी चर्चा आम तौर पर चलती रहती है। कुछ लोग तो सम्पत्ति की अधिकतम सीमा की भी बात करते दिखते है इसलिये उचित होगा कि हम इस विषय पर अपना विचार मंथन करें।

पर्सनल ला व्यक्ति का व्यक्तिगत कानून होता है, जिसे व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सीमा मे स्वतंत्रता पूर्वक बना भी सकता है बदल भी सकता है तथा कार्यान्वित भी कर सकता है। कोई सरकार या समाज व्यक्तिगत कानूनो मे न कोई दखल दे सकता है न ही कोई सीमा बना सकता है। किन्तु यह भी स्पष्ट है कि पर्सनल ला सिर्फ अकेले व्यक्ति का ही हो सकता है और यदि किसी व्यक्ति के किसी कार्य का संबंध किसी अन्य व्यक्ति के जुड जाता है तब वह सामाजिक या संवैधानिक स्वरूप ग्रहण कर लेता है, पर्सनल ला नहीं रहता । इस तरह मुस्लिम पर्सनल ला किसी भी रूप मे पर्सनल ला के दायरे मे नही आता बल्कि सामाजिक कानूनो के दायरे मे आता है। यदि हम पर्सनल ला को समझें तो इसकी कोई सीमा नहीं बन सकती। यह पाताल से लेकर ब्रम्हांड तक जा सकता है। विवाह, खान पान, तलाक, धर्म का पालन, आत्म हत्या सरीखे सभी कार्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अंतर्गत आते हैं। समाज इन संबंधो को सबकी सहमति से अनुशासित कर सकता है किन्तु सरकार किसी प्रकार का कोई कानून नहीं बना सकती । मुस्लिम पर्सनल ला भी एक ऐसा ही मामला है जिसमे सरकार को किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप तब तक नही करना चाहिये जब तक वह आपसी सहमति के आधार पर बना है। मुसलमानो मे विवाह एक आंतरिक समझौता है, जो कुछ शर्तो के आधार पर होता है। ये शर्तें उचित है या अनुचित इसकी समीक्षा सरकार या कोई कानून तब तक नहीं कर सकता जब तक दोनो के बीच सहमति है। इस प्रकार विवाह संबंधी समझौता किसी भी समय समान रूप से तोडा जा सकता है, और समझौता टूटने की प्रकृया शुरू होते ही दोनो व्यक्तियों के व्यक्तिगत कानून अस्तित्व मे आ जाते हैं। इस प्रकृया मे प्रमुख विचारणीय प्रश्न यह है कि समझौता टूटने के बाद उस समझौते की सामाजिक या कानूनी समीक्षा हो सकती है या नही । मै स्पष्ट हॅू कि आप किसी के साथ कोई भी समझौता कर लें । वह टूटने के पूर्व तक कायम है और टूटने के बाद उसकी सामाजिक या कानूनी समीक्षा हो सकती है। कल्पना करिये की आपने समझौता करते समय दोनो की सहमति से कोई ऐसी शर्ते डाल दी, लिख दी, जो उचित नहीं थी तो समझौता टूटने के बाद उस शर्त के औचित्य पर विचार किया जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भले ही उस समझौते मे लिखा हुआ हो या यह भले ही मुसलमानो की धार्मिक मान्यता हो कि महिलाएं समझौता नही तोड सकती किन्तु कोर्इ्र भी समझौता और धार्मिक मान्यता व्यक्ति के पर्सनल ला के अधिकार मे कभी कोई कटौती नही कर सकते कल्पना करिये कि एक महिला किसी पति के साथ नही रहना चाहती तो उसे जबरदस्ती रोक कर रखना अपराध है या नही? भले ही वह अपनी पत्नी हो भले ही आपका उसके साथ कोर्इ्र समझौता हो। किन्तु किसी भी समझौते के आधार पर किसी भी व्यक्ति को बल पूर्वक बंधक बनाकर नही रखा जा सकता, जब तक उसने कोई अपराध न किया हो । स्पष्ट है कि समझौता तोडने की स्वतंत्रता दोनो पक्षो को समान रूप से है । यदि उस समझौते मे कोई एक पक्षीय बात लिखी है तो उसकी समीक्षा समाज भी कर सकता है और राज्य भी कर सकता है क्योकि कोई भी समझौता किसी की सहमति से भी मौलिक अधिकारो के विपरीत कार्यान्वित नही किया जा सकता । कल्पना करिये की मैने किसी व्यक्ति को एक हजार रूपया उधार देकर एक महिने तक नौकरी करने का समझौता कर लिया और उस व्यक्ति ने एक सप्ताह के बाद समझौता तोड दिया। समझौते मे लिखा हुआ है कि एक महिने के अंदर तोडने वाले को जबरदस्ती काम लिया जा सकता है । मेरे विचार से समझौता टूटते ही वह व्यक्ति स्वतंत्र हो जायेगा, और आप उसको आर्थिक भरपाई की मांग कर सकते है । बल पूर्वक काम नही ले सकते क्योकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने आंतरिक मामलो मे मौलिक अधिकार प्राप्त है। कल्पना करिये कि किसी व्यक्ति ने एक हजार रूपया उधार लेकर समझौता किया कि यदि वह दूसरे दिन वापस नही करेगा तो प्रतिदिन सौ या दो सौ रूपये का दंड देगा। रूपया वापस न करने पर वह प्रतिदिन दंड दे सकता है। किन्तु यदि वह दंड न दे तो उसे बाध्य नही किया जा सकता। यदि कानून समीक्षा करेगा तो उचित दंड ही मान्य होगा, समझौते का दंड नही।


आज भारत के मुसलमान पर्सनल ला की बहुत चिंता कर रहे है किन्तु वे भूल गये कि इसकी नीव तो उसी दिन रख दी गई थी जिस दिन भारत मे हिन्दू कोड बिल बना था। अर्थात विवाह, तलाक, खान पान, वेष भुषा, जैसे व्यक्तिगत मामलो मे सरकार भी कोई कानून बना सकती है तथा न्यायालय भी दखल दे सकता है। अंधेर नगरी चौपट राजा के समान उस समय हिन्दुओ पर लगाये जा रहे अन्याय पूर्ण प्रतिबंधो की मुसलमानो के परवाह नही की तो अब यदि उसी आधार पर भारत सरकार मुसलमानो के बहु विवाह पर प्रतिबंध लगा दे तो मुसलमान कैसे आवाज उठा सकते है। क्योकि पर्सनल ला प्रत्येक व्यक्ति के समान होते है उसमे हिन्दू मुसलमान का भेद नहीं होता है। उस समय तो भारत के मुसलमानो को आनंद आ रहा था कि उन्हे चार विवाह की छूट देकर हिन्दुओ को एक विवाह पर प्रतिबंधित किया जा रहा है तथा वे इस तरह अपनी आबादी बढा लेगे। सत्तर वर्षो तक मुसलमानो ने संगठित वोट के आधार पर भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओ को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा । सत्तर वर्षो तक अगर अंधेर नगरी मे आपने माल मलाई खाई है और अब फांसी पर चढने की बारी है तब चिल्लाने से क्या होगा।

एक बात और विचारणीय है कि किन्ही धार्मिक ग्रंथो के माध्यम से ईश्वर या खुदा ने आपको जो कार्य करने का निर्देष दिया है, उन कार्यो को सरकार या कोई अन्य धार्मिक मान्यता मान सकता है। किन्तु जिन कार्यो को आपके धर्म ग्रन्थो ने निरूत्साहित करने की सलाह दी है तथा जिनकी अधिकतम सीमा निर्धारित की है, उन कार्यो को राज्य और समाज यदि प्रतिबंधित करे तो वह आपका धार्मिक अधिकार नही हो सकता बल्कि वह प्रतिबंध ही धार्मिक कार्य माना जाना चाहिये। आप रोजा, नमाज , हज जकात, कलमा को अपने धार्मिक अधिकार कह सकते हैं। किन्तु तलाक बहु विवाह, मांसाहार आदि आपके आर्मिक अधिकार नही हो सकते। कोई भी कानून आपको चार से अधिक विवाह करने के लिये बाध्य नही कर सकता। न ही आपको तलाक देने के लिये वाध्य कर सकता है। किन्तु कोई भी कानून आपको एक से अधिक विवाह करने से रोक सकता है क्योकि आपको धर्म मे चार तक विवाह करने की छूट दी है न की चार विवाह करने का आदेश दिया है। भारत के मुसलमान तीन तलाक चार विवाह या मांस भक्षण के मामले मे यदि पर्सनल ला का सहारा लेते है तो वह धार्मिक दृष्टि से पूरी तरह गलत है। किन्तु सरकार और न्यायालय को यह भी अधिकार नही कि वह किसी व्यक्ति को संबंध विच्छेद करने से रोक सके। तीन तलाक तो उनका आंतरिक या सामाजिक मामला है। पर्सनल ला की नजर मे तो एक तलाक ही काफी है। यदि किसी भी एक पक्ष ने समझौता तोडने की घोषणा कर दी तो वह समझौता किसी भी तरह कायम नही रह सकता । भले ही उस समझौते के आधार पर दोने पक्षो के बीच किसी भी प्रकार का न्याय संगत निपटारा हो जाये किन्तु किसी भी व्यक्ति को उसकी सहमति के बिना कही भी रोक कर नही रखा जा सकता। जिस समय हिन्दुओ के पति पत्नी के बीच संबंध विच्छेद मे कानूनी हस्तक्षेप करने का प्रावधान बना वह भी पूरी तरह गलत था और वर्तमान मे जो बन रहा है यह भी पूरी तरह गलत है। धर्म और समाज व्यक्ति को अनुशासित कर सकते है और ये सारे नियम सामाजिक अनुशासन के अंतर्गत ही आते है। शासन के अंतर्गत नही। न तो सरकार, विवाह, दहेज, छुआछूत, तलाक, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सम्पत्ति की सीमा जैसा कोई कानून बना सकती है न ही उसे बनाना चाहिये। ऐसे सारे कानून व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक अधिकारो के उलंघन के अंतर्गत आते है। यह अलग बात है कि स्वतंत्रता के पूर्व से ही इस प्रकार का उलंघन विदेशी सरकारे करती रही और हमारे संविधान निर्माता भी उन विदेशियों की नकल करते रहे। ऐसी नकल आज तक जारी है, और मै समझता हॅू कि न्यायालय अथवा सरकार इस संबंध मे जो भी कदम उठायेगी वह व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारो के उलंघन के रूप मे ही होता दिखता है।
अब तो भारत के मुसलमानो के समक्ष एक ही मार्ग दिखता है कि वे भारत मे समान नागरिक संहिता के पक्ष मे जोर शोर से आवाज उठावे । भारत के प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार होगा तथा कोई अल्प संख्यक बहु संख्यक नही होगा। सरकार किसी भी व्यक्ति के आंतरिक मामलो मे कोई हस्तक्षेप नही करेगी। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धार्मिक और सामाजिक मान्यताए मानने की पूरी स्वतंत्रता तब तक होगी जब तक वह किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता मे बाधा पैदा न करे। यदि भारत के मुसलमानो ने यह बात नही मानी तो यह भी संभव है कि भारत हिन्दू राष्ट की तरफ तेजी से बढना शुरू कर दे । मै मानता हॅू कि यह कदम न हिन्दुओ के लिये अच्छा है न मुसलमानो के लिये। फिर भी यदि घर जले तो जले किन्तु चुहो से पिंड छूट जाये के आधार पर हिन्दू बढे तो इसका दोष सिर्फ हिन्दुओ को नही दिया जा सकता।