उग्रवाद आतंकवाद और उसका भविष्य

कुछ सर्व स्वीकृत मान्यताए हैं ।

1 उग्रवाद मुख्य रूप से विचार तक सीमित होता है और आतंकवाद क्रिया मे बदल जाता है । आतंकवाद को कभी संतुष्ट या सहमत नहीं किया जा सकता । सिर्फ कुचलना ही उसका एकमात्र समाधान है ।

2 किसी भी प्रकार की तानाशाही व्यवस्था मे उग्रवाद या आतंकवाद कभी नही बढ़ता । लोकतांत्रिक व्यवस्था मे ही उग्रवाद, आतंकवाद बढ़ता है ।

 3 तानाशाही से मुक्ति के लिये उग्रवाद या आतंकवाद का समर्थन भी हो सकता है किन्तु लोकतंत्र मे किसी भी प्रकार के उग्रवाद का समर्थन नही किया जा सकता । आतंकवाद के समर्थन का तो कोई प्रश्न ही नही है ।

4 वर्तमान समय मे भारत के अधिकांश गांधीवादी किसी न किसी रूप मे इस्लामिक या वामपंथी उग्रवाद और आतंकवाद का अप्रत्यक्ष समर्थन करते है ।

एसएचआर के प्रारंभ से ही सफलता में शक्ति की भूमिका निर्णायक रही है । जो व्यक्ति जितना ही अधिक शक्तिशाली होता था वह उतना ही अधिक फायदे में रहता था । बाद में व्यक्तिगत शक्ति संगठित शक्ति में बदल गई और समूह की ताकत के बल पर राज्य बनने और बिगड़ने लगे । धीरे-धीरे यह भी स्थिति बदली और अब तो अस्त्र-शस्त्र ही वास्तविक शक्ति के आधार बन गये हैं ।

    प्राचीन समय में शक्ति का प्रयोग या तो राज्य के लिये था या व्यक्तिगत । धर्म के लिये बल प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता था क्योंकि प्राचीन समय में धर्म की परिभाषा संगठन न होकर आचरण से जुड़ी थी । धर्म के साथ हिंसा को सर्वप्रथम जोड़ा इस्लामिक कट्टरपंथियों ने । उन्होंने राजनीति को धर्म के साथ मिला लिया और विस्तार के लिये आंशिक हिंसा को आधार मान लिया । स्वाभाविक ही था कि इस्लाम को अपने द्रुत विस्तार में उसका लाभ मिला । दुनिया में जितनी तीव्र गति से इस्लाम का विस्तार हुआ उतना और किसी धर्म का नहीं हुआ । धार्मिक इस्लाम का भी नहीं । हिन्दू तो बेचारे इस दौड़ में रहे ही नहीं क्योंकि हिन्दुओं ने कभी धर्म, राजनीति और हिंसा को एक साथ जोड़ कर देखा ही नहीं ।

    हिंसा की उपयोगिता को इस्लाम के बाद ठीक से समझा साम्यवाद ने । इन्होंने धर्म, राजनीति और हिंसा को एक साथ न मिलाकर गरीबी, राजनीति और हिंसा को एक साथ मिला लिया । स्वाभाविक ही था कि हिंसा और द्वेष की बैसाखी पर सवार होकर साम्यवाद भी बहुत फला-फूला । साम्यवाद ने भी बहुत कम समय में जितनी प्रगति की वह अभूतपूर्व और आश्चर्यजनक थी । साम्यवाद ने अर्ध तानाशाही का मार्ग चुना और प्रजातंत्र के साथ डटकर मुकाबला किया । एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र के स्थान पर साम्यवाद ही साम्यवाद छा जायेगा । भले ही बाद में वे सपने बिखर गये यह अलग बात है किन्तु बल प्रयोग ने साम्यवाद के नाम पर दुनिया में स्वयं को स्थापित तो कर ही लिया था ।

    ऐसे ही समय में भारत में बल प्रयोग की महत्ता को समझा आर.एस.एस. अर्थात् संघ ने । उसने महसूस किया कि धर्म राजनीति और हिंसा को मिलाकर यदि इस्लाम दुनिया में इतने पैर फैला सकता है तो हिन्दू भारत में क्यों नहीं सफल हो सकता ।

    हिन्दुत्व के पास भारत में संख्या बल है । समृद्ध विज्ञान है, उज्जवल भूतकाल का इतिहास है । उनके पास इस्लामिक उग्रवाद के विरूद्ध प्रतिक्रिया का भी अच्छा अवसर उपलब्ध है । इस्लाम के पास तो यह सब नहीं । फिर हमें प्रगति करने में क्या बाधा है । स्वाभाविक ही था कि संघ भी बहुत तेज गति से बढ़ा । बहुत कम समय में ही संघ एक राजनैतिक ताकत बन गया । अपने महत्वपूर्ण विस्तार काल में ही यदि संघ और गांधी हत्या कांड एक साथ नहीं जोड़े गये होते तो संघ का विस्तार किसी के रोकने से रूकने वाला नहीं था किन्तु एक अप्रत्याशित घटना ने संघ को बहुत नुकसान किया । फिर भी संघ ने धीरे-धीरे स्वयं को पुनः स्थापित कर लिया और तीन चार वर्ष से तो स्पष्ट आसार दिखने लगे कि संघ भारतीय राजनीति में निर्णायक बढ़त प्राप्त कर चुका है । इस तरह दुनिया में शक्ति के बल पर इस्लाम और साम्यवाद ने स्वयं को स्थापित कर लिया और भारत में संघ ने । कोई भी व्यक्ति जब किसी दूसरे की गलती को रोकने के लिये बल प्रयोग करना उचित मानने और करने लगता तब ऐसे बल प्रयोग का औचित्य उग्रवाद मे बदलने लगता है । जब तक बल प्रयोग व्यक्तिगत स्वार्थ तक सीमित रहता है, तब तक ऐसे समूह को आपराधिक गिरोह तक सीमित माना जाता है किन्तु जब ऐसा बल प्रयोग किसी सिद्धान्त के आधार पर होता है तब वह अपराध न होकर उग्रवाद बन जाता है । हिंसा का औचित्य संगठित होकर उग्रवाद और अनियंत्रित होकर आतंकवाद बन जाता है । उग्रवाद मे आमतौर पर विचार प्रसार अधिक होता है और हिंसात्मक सक्रियता कम किन्तु आतंकवाद मे विचार प्रचार न होकर सक्रिय हिंसा ही लक्ष्य बन जाती है । तानाशाह देश मे उग्रवाद या आतंकवाद न के बराबर होता है । किन्तु तानाशाह देश अपने पड़ोसी देश मे हमेशा ही आतंकवाद को शह दिया करते है । इसलिये यदि किसी देश मे तानाशाही है तो तानाशाही से मुक्ति के लिये उग्रवाद या आतंकवाद को एक मार्ग के रूप मे माना जा सकता है । किन्तु यदि किसी देश मे लोकतंत्र है तो किसी लोकतांत्रिक देश मे किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति के विरूद्ध बल प्रयोग ही अपराध है । उग्रवाद या आतंकवाद का तो किसी भी स्वरूप मे औचित्य होता ही नही । यदि किसी लोकतांत्रिक देश मे राज्य से भिन्न किसी बल प्रयोग का किसी भी रूप मे औचित्य सिद्ध करने की बात होती है तो वह सीधा-सीधा उग्रवाद है और ऐसी बात का विरोध किया जाना चाहिये ।

    हिंसा जब सिद्धान्त के रूप में स्थापित होने लगती है और उसे सफलता भी मिलने लगती है । तब उसमें एक दोष शुरू होता है कि उसमें सीमाओं के सारे बंधन टूट जाते हैं । हिंसा उग्रवाद में और उग्रवाद आतंकवाद में बदल जाता है । यह हिंसा का स्वाभाविक दोष है । इस्लाम हिंसा से बढ़कर उग्रवाद में बदला और उग्रवाद से आतंकवाद में । आज से पचास वर्ष पूर्व इस्लाम में हिंसा का स्थान तो था और उसमें कुछ-कुछ उग्रवाद भी था किन्तु उसमें आतंकवाद नहीं था । धीरे-धीरे इस्लाम आतंकवाद की दिशा में बढ़ा और फिर उसने आगे बढ़ने की अपेक्षा कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । साम्यवाद ने भी हिंसा को उग्रवाद में परिवर्तित किया और अफगानिस्तान, चेकास्लोवाकिया, तिब्बत आदि पर बलपूर्वक कब्जा कर लिया । यद्यपि साम्यवाद ने आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण नहीं किया । भारत एक लोकतांत्रिक देश है । भारत मे उग्रवाद या आतंकवाद का कोई स्थान नही होना चाहिये किन्तु पूरा भारत पूरी तरह प्रभावित है । भारत एक ओर तो इस्लामिक आतंकवाद से पूरी तरह लहू लुहान है तो दूसरी ओर नक्सलवाद भी उसके लिये निरंतर संकट पैदा किये हुए है । दोनो ही विचार धाराएं गंभीर अपराध है क्योकि नक्सलवाद राज्य सत्ता के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष तक सीमित है तो इस्लामिक आतंकवाद राज्य सत्ता के साथ साथ सामाजिक व्यवस्था को भी तहस नहस करना चाहता है किन्तु नक्सलवादी आम नागरिकों की हत्या नहीं करते । वे बहुत चुनकर अपना टारगेट तय करते हैं । नक्सलवादियों की कोई घटना ऐसी प्रकाश में नही आई है जैसी वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर, बम्बई बम काण्ड, ब्रिटेन रेल धमाका या बनारस का श्रमजीवी रेल धमाका हो । अपने टारगेट को मारने में यदि निर्दोष मरे तो वे परवाह नहीं करते किन्तु अनावश्यक निर्दोष हत्या से वे बचते हैं । इस संबंध मे संघ परिवार की सोच कुछ भिन्न है ।  इसलिये मेरे विचार में संघ को उग्रवादी तो मान सकते हैं पर आतंकवादी नहीं और इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकवादी कहे जा सकते हैं । नक्सलवाद को घटना अनुसार उग्रवाद या आतंकवाद कह सकते है । साथ ही यह भी विचारणीय है कि संध परिवार का उग्रवाद क्रिया के विरूद्ध प्रतिक्रिया तक सीमित रहता है जबकि इस्लाम हमेशा ही पहल करता है । इस्लामिक उग्रवाद अपने विस्तार का एक मुख्य माध्यम है तो संध का उग्रवाद सुरक्षात्मक ।

    यह सत्य है कि हिंसा त्वरित प्रगति में सहायक होती है किन्तु दूसरी ओर यह भी सही है कि हिंसा आगे बढ़कर उग्रवाद और अंत में आतंकवाद में बदल जाती है और ज्योंही हिंसा का स्वरूप बदलता है त्योंही इसका पतन शुरू हो जाता है । आज पूरी दुनिया में इस्लाम संकट में है । एक भी ऐसा देश नहीं है जिसकी अब इनके साथ कोई सहानुभूति बची हो । चारों ओर इस्लाम अविश्वसनीय हो गया है । पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सारी दुनिया के समक्ष गिड़गिड़ाते हुए सफाई देनी पड़ रही है । ब्रिटेन के इस्लामिक विद्वानों ने सूझबूझ से काम लिया और आतंकवाद के विरूद्ध फतवा जारी कर दिया । अमेरिका के इस्लामिक विद्वान पता नहीं क्यों इस सच्चाई को स्वीकार करने में देर कर रहे हैं । इस्लाम के समक्ष अब अस्तित्व का संकट है । या तो कट्टरपंथियों को हिंसा, उग्रवाद और आतंकवाद को सदा-सदा के लिये तिलांजलि देनी होगी या इस्लाम स्वयं को समाप्त कर लेगा । अब दुनिया आतंकवाद के खिलाफ एकजुट हो रही है ।

    साम्यवाद भी संकट में है । साम्यवाद दुनिया के नक्षे से तो करीब-करीब गायब हो चुका है किन्तु भारत में नक्सलवाद के रूप में उसके अवशेष बचे हैं । केरल, और त्रिपुरा के साम्यवाद को आप साम्यवाद नहीं कह सकते क्योंकि ये साम्यवाद के टिमटिमाते हुए दीपक से अधिक अस्तित्व नही रखते । साम्यवाद को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये इस्लाम के कंधे  का सहारा लेना ही स्पष्ट करता है कि वह अंतिम चरण मे है । नक्सलवाद भी अब निर्णायक दौर मे है । छत्तीसगढ का सरगुजा जिला पूरी तरह नक्सलवाद मुक्त हो चुका है । वहां से नक्सलवाद हार कर चला गया । बस्तर मे भी नक्सलवादियो के पैर उखड़ रहे है इसलिये साम्यवाद या नक्सलवाद अब चिंता के विषय नही । इस्लामिक आतंकवाद अब भी भारत के लिये चिंता का विषय बना हुआ है । इस्लामिक आतंकवाद से भारत अकेला नही निपट सकता क्योकि पूरे विश्व मे इस्लाम की तुलना मे हिन्दुत्व की शक्ति  कमजोर मानी जाती है दूसरी ओर वैचारिक धरातल पर भी आम हिन्दू मुसलमानो की तुलना मे कई गुना अधिक सहजीवन पर विश्वास करने वाला माना जाता है । साथ ही पाकिस्तान और चीन का गठजोड़ भी उसे चिंतित करता रहता है फिर भी वर्तमान मोदी सरकार बहुत सूझ-बूझ और कूटनीतिक तरीके से  इस स्थिति से निपट रही है ।

भारत मे संघ परिवार का विस्तार अब तक किसी समस्या के रूप मे सामने नही आया है । अब तक संघ परिवार ने नरेन्द्र मोदी की लगाम से मुक्त होने का कोई प्रयास नही किया है । मोदी निरंतर शक्तिशाली होते जा रहे है । प्रवीण तोगड़िया सरीखे उग्रवादी भी बिलो से बाहर आ कर अपने अस्तित्वहीन आक्रमणो की धार कुंद कर चुके है । कुछ और भी छिपे हुए उग्रवादी बारी-बारी से धराशायी हो जाएंगे ।

          भारत मे इस्लामिक आतंकवाद के लिये सबसे बड़ा खतरा  तो कांग्रेस पार्टी की सत्तर वर्षो से चली आ रही नीति मे आमूलचूल बदलाव दिखता है । यदि कांग्रेस पाटी और प्रवीण तोगडिया का वर्षो से चला आ रहा अप्रत्यक्ष प्रेम प्रत्यक्ष हो जाता है तो मोदी के लिये अच्छा होगा या बुरा यह विचारणीय प्रश्न नही ।  विचारणीय तो यह है कि फिर इस्लामिक उग्रवाद का भारत मे क्या होगा?,  वैसे ही कांग्रेस पार्टी मुस्लिम उग्रवाद से अपनी दूरी बढ़ाने मे प्रयत्न शील है और तोगड़िया के बाद तो वह गति और तेज हो सकती है ।

       आतंकवाद के खिलाफ पूरी दुनिया के बीच तालमेल बढ़ रहा है । भारत भी उसका प्रमुख भागीदार है । भारत सरकार को इस संबंध मे जारी अपनी नीतियों मे कोई बदलाव नही करना चाहिये । आतंकवाद का खात्मा अकेला भारत नही कर सकता किन्तु इसका सबसे अधिक लाभ भारत को ही होने वाला है । भारत सरकार को संध परिवार की नासमझ जल्दवादी से सावधान होकर विश्व आतंकवाद विरोधी योजना के साथ पूरी तरह तालमेल रखना चाहिये ।

      आतंकवाद से निपटना तो सरकार का विषय है किन्तु उग्रवाद से निपटना तो सरकार का काम नही । उग्रवाद से तो समाज ही निपट सकता है । उग्रवाद किसी विचार प्रचार तक सीमित रहता हैं इसलिये उसे वैचारिक धरातल पर ही चुनौती देनी होगी । किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन आगे बढ़कर उग्रवाद और उसके बाद आतंकवाद का स्वरूप ग्रहण कर लेता है । इसके लिये आवश्यकता है कि हम किसी भी मामले मे हिंसा अथवा उग्रवाद के साथ किसी भी रूप मे कोई सहभागिता न करे । परिस्थिति अनुसार समर्थन या सहयोग तक सीमित रहा जा सकता है । अभी भारत मे संध परिवार द्वारा इस्लामिक आतंकवाद को कड़ी टक्कर दी जा रही है । इसका अल्पकालिक समर्थन किया जा सकता है । किन्तु उग्रवाद अंततोगत्वा घातक ही होता है । इसलिये हमारा कर्तब्य है कि हम संघ परिवार के भी समर्थन सहयोग के प्रति सतर्क रहे । मै रामानुजगंज के तोगड़िया को भी देख चुका हॅू, जिसने अपने ही साथी को हराने के लिये मुसलमान समर्थित कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार का पूरा साथ दिया था और आज भी अपने को कटटर हिन्दू मानता है । इसलिये उग्रवादी तत्वो का कभी भरोसा मत करिये । ये कब किसके शत्रु हो जायेगे किसके मित्र यह स्पष्ट नही । हिन्दुत्व मे स्वयं इतनी शक्ति है कि यदि उसे शान्त और निष्पक्ष वातावरण मिले तो वह अपने गुणो के आधार पर ही दुनियां को प्रभावित कर सकता है । आवश्यकता है कि उसे शान्त वातावरण मिले । ऐसा वातावरण बनाने के लिये हमे उग्रवाद को भी निरूत्साहित करना आवश्यक है । उग्रवाद को हिन्दू मुसलमान मे विभाजित करने  की अपेक्षा उग्रवाद और शान्ति  व्यवस्था  के बीच बाटने की आवश्यकता है। जो भी व्यक्ति हिंसा का समर्थक है उसे हम किसी भी रूप मे समर्थन नही कर सकते । हमारा तो उस व्यक्ति के लिये पूरा समर्थन है जो सहजीवन पर विश्वास करता है चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान ।

       यदि दुनियां की राजनैतिक शक्ति योजना बनाकर आतंकवाद मुक्त दुनिया बना दे तथा हम भारत के लोग आपस मे मिलकर उग्रवाद मुक्त भारत बना सके तो यह प्रयास हम सब के लिये स्वर्णिम युग के समान माना जायेगा ।