समाज और राज्य मे अहिंसा और सत्य
समाज और राज्य मे अहिंसा और सत्य
व्यक्ति और समाज अन्तिम इकाई माने जाते है । दोनो एक दूसरे के पूरक होते है । व्यक्तियों से मिलकर ही समाज बनता है तथा समाज की व्यवस्था से ही व्यक्ति का जन्म होता है । व्यक्ति की दो भूमिकाए होती है 1 अधिकार 2 कर्तव्य । स्वतंत्रता व्यक्ति का अधिकार होता है और सहजीवन व्यक्ति का कर्तव्य ।
व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये समाज एक शक्ति सम्पन्न इकाई का गठन करता है। यही इकाई राज्य होती है । राज्य कभी संप्रभुता सम्पन्न नही हो सकता क्योकि राज्य का गठन, शक्ति तथा दायित्व तो समाज द्वारा ही दिये जाते हैं। समाज ही संप्रभु इकाई होती है।
राज्य का गठन व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी के लक्ष्य के लिये होता है। इस तरह सुरक्षा और न्याय राज्य का दायित्व होता है तथा अन्य सभी जन कल्याण के कार्य उसके कर्तव्य । विदित हो कि दायित्व के लिये राज्य समाज के प्रति उत्तरदायी होता है जबकि कर्तव्य उसके स्वैच्छिक होते है।
सुरक्षा और न्याय राज्य का लक्ष्य होता है और अहिंसा तथा सत्य मार्ग । सुरक्षा और न्याय की लक्ष्य प्राप्ति के लिये अहिंसा और सत्य की बलि चढाई जा सकती है। किन्तु अहिंसा और सत्य के लिये सुरक्षा और न्याय के साथ कोई समझौता नही हो सकता। दूसरी ओर व्यक्ति को सहजीवन का प्रशिक्षण देना समाज का दायित्व होता है तथा सुरक्षा और न्याय कर्तव्य । समाज सुरक्षा और न्याय के लिये अहिंसा और सत्य के साथ कोई समझौता नही कर सकता किन्तु अहिंसा और सत्य के लिये न्याय और सुरक्षा को छोड सकता है।
व्यक्ति की स्वतंत्रता को राज्य या समाज उसकी सहमति के बिना तब तक सीमित नही कर सकता जब तक उस व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा का अतिक्रमण न किया हो। किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का उलंघन अपराध होता है, तथा ऐसे अपराध से व्यक्ति को सुरक्षित रखना राज्य का दायित्व होता है। राज्य को ऐसा कोई अधिकार नही होता कि वह व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता की कोई सीमा बना सके तथा उसे उस सीमा मे रहने के लिये मजबूर कर सके जब तक वह किसी अन्य की सीमा के लिये खतरा उत्पन्न न करे। यदि राज्य कभी उच्श्रंृखल होने लगे तो समाज का कर्तब्य है कि वह राज्य को अपनी सीमा मे रहने के लिये मजबूर करे और यदि वह फिर भी न माने तो समाज अल्प काल के लिये आपात्काल घोषित करके राज्य की सम्पूर्ण व्यवस्था अपने हाथ मे ले ले, तथा यथाशीघ्र नई व्यवस्था बना दे। ऐसी विशेष परिस्थिति मे राज्य की भी सम्पूर्ण शक्ति समाज के पास आ जाती है तथा समाज ऐसे आपात्काल मे सुरक्षा और न्याय के लिये अहिंसा और सत्य की भी बलि चढा सकता है। किन्तु ध्यान रहे कि ऐसी परिस्थिति सिर्फ आपात्काल के लिये ही है तथा अल्पकालिक ही है अन्यथा सामान्यतया समाज अहिंसा और न्याय के साथ कोई समझौता नही कर सकता।
जब भारत गुलाम था तब स्वतंत्रता संघर्ष के समय हिंसा या अहिंसा मार्ग था। उस समय भारतीय समाज व्यवस्था के लिये आपात्काल था। अब भारत स्वतंत्र है । ऐसी स्थिति मे समाज किसी भी रूप मे अहिंसा और सत्य के विपरीत नही जा सकता। सहजीवन का प्रशिक्षण देना समाज का दायित्व है तथा न्याय और सुरक्षा राज्य का दायित्व। दुर्भाग्य से राज्य अपने दायित्व और कर्तव्य का अंतर नही समझ पा रहा। यही कारण है कि अहिंसा और सत्य के मामले मे भी समाज मे भ्रम फैल रहा है।
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