आज से 50 साल पहले मोबाइल फोन भी एक कल्पना थी

16 जुलाई प्रातः कालीन सत्र। हम कई महीने से नई समाज व्यवस्था पर प्रतिदिन प्रात काल फेसबुक पर चर्चा करते हैं। हमारे कई मित्रों को ऐसा लगता है कि यह हमारी कल्पना है कई मित्रों को यूटोपिया लगता है कई मित्र समझते हैं यह कार्य पूरी तरह असंभव है मैं भी आपकी तरह सोचता हूं। यह कार्य असंभव हो असकता है यह कार्य उटोपिया हो सकता है लेकिन इसके अतिरिक्त भी कोई अन्य कार्य है वह अगर कोई बताने की कृपा करें तो हम अपनी योजना पर विचार मंथन छोड़कर उनके साथ कार्य करने के लिए तैयार है। हम एक कल्पना जगत में जी रहे हैं अगर इस कल्पना का एक प्रतिशत भी भविष्य में साकार हुआ तो बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा। आज से 50 साल पहले मोबाइल फोन भी एक कल्पना थी 10 साल पहले एआई एक उटोपिया था 10 साल पहले जूम की भी कोई कल्पना नहीं थी लेकिन किसी ने इस उटोपिया की कल्पना की होगी किसी ने असंभव कार्य को संभव करने का सोचा होगा हो सकता है कि सोचने वाले के जीवन काल में यह कार्य आगे ना बड़ा हो लेकिन उस सोचने वाले की अगली पीढ़ी ने उस असंभव कल्पना स्वप्न उटोपिया को संभव करके दिखा दिया है । इसलिए यदि हम किसी असंभव काल्पनिक उटोपिया की चर्चा कर रहे हैं तो यह चर्चा निरर्थक नहीं है। असंभव संभव की चर्चा तो तब होगी जब हम अपनी कल्पना को यथार्थ के धरातल पर उतारने में सक्रिय होंगे। अभी हम इस मामले में सिर्फ विचार मंथन तक सीमित है चर्चा तक सीमित है। हम कोई सक्रिय तरीके से इस कार्य में नहीं लगे हैं। लेकिन यह बात भी सच है कि भविष्य में इस दिशा में सक्रिय होना ही समाधान हो सकता है यही कारण है की ना संस्थान सिर्फ तीन छोटे-छोटे बिंदुओं पर सक्रियता दिखा रहा है एक है भारत के संविधान संशोधन में ग्राम सभाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो और ग्राम सभाओं को 29 संवैधानिक अधिकार दे दिए जाएं दूसरा है परिवार व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता मिलनी चाहिए तीसरा है विचारको का एक समूह तैयार होना चाहिए जो चिंतन मंथन के माध्यम से निष्कर्ष निकालकर राजनीति और समाज को समर्पित करें हम सक्रियता के मामले में सिर्फ तीन छोटे-छोटे कार्य कर रहे हैं अन्य कुछ नहीं बाकी सब हम उटोपिया स्वप्न या अन्य चर्चाओं में समय लगाते हैं। आप अपनी क्षमता योग्यता और सुविधा अनुसार किसी भी कार्य से जुड़ सकते हैं