भारत में संसदीय लोकतंत्र है या लोकतांत्रिक संसद

दुनियां में अनेक व्यवस्थाएं प्रचलित हैं। भारत में समाज सर्वोच्च की व्यवस्था है तो पश्चिम में लोकतंत्र और पूंजीवाद, साम्यवाद में राष्ट्रवाद और सत्ता सर्वोच्च की व्यवस्था प्रचालित है तो इस्लाम में संगठनवाद और धर्म की। भारत की समाज सर्वोच्च की अवधारणा विकृत हुई और भारत लोकतंत्र तथा पूंजीवाद की दिशा में तेज गति से दौड़ने लगा। भारत वैचारिक धरातल पर कमजोर होकर हर दिशा में विदेशों की नकल करने लगा। भारत में वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था विदेशो की नकल है। भारत में कभी लोकतंत्र नहीं रहा बल्कि समाज व्यवस्था ही रही है जो वर्तमान में लोकतंत्र के समक्ष लगभग समाप्त हो रही है।

लोकतंत्र की पश्चिमी जगत की परिभाषा है कि वह लोक द्वारा लोक के लिये लोक के बीच से ही स्थापित हो। लोकतंत्र के लिये न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच चेक और बैलेंस सिस्टम अनिवार्य माना गया है। इसका मतलब होता है कि लोकतंत्र के तीनों अंग एक दूसरे पर अंकुश भी रखे और उनकी सहायता भी करे। पश्चिम जगत से भारत ने लोकतंत्र उधार लिया है। पश्चिम में जीवन पद्धति से लोकतंत्र शासन पद्धति तक गया जबकि भारत में सीधा शासन पद्धति में लोकतंत्र आया। जीवन पद्धति में हमारी पुरानी व्यवस्था बनी रही। भारत में परिवार व्यवस्था में अभी तक लोकतंत्र नहीं आ सका और न आने की कोई संभावना दिखती है परिणामस्वरूप भारत की संवैधानिक व्यवस्था में भी एक विकृत लोकतंत्र आया। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका आपस में लोकतांत्रिक तरीके के विपरीत जाकर अपनी अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने लगे। इसमें भी विधायिका के प्रमुख पंडित नेहरू और भीमराव अम्बेडकर ने संसदीय लोकतंत्र को विकृत करने की पूरी कोशिश की। सबसे पहले इन दोनों ने मिलकर छलपूर्वक संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार संसद के पास सुरक्षित कर दिये और धीरे धीरे न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के अधिकार भी कम करते चले गये। इसके कारण संसदीय लोकतंत्र का संतुलन बहुत बिगड़ा। 1973 में केशवानन्द भारती प्रकरण के बाद न्यायपालिका ने संसद को कमजोर करना शुरू कर दिया और धीरे धीरे न्यायिक सक्रियता को इतना बढ़ा लिया कि न्यायपालिका सर्वोच्च मानी जाने लगी। वर्तमान में न्यायपालिका और विधायिका के बीच सर्वोच्चता का टकराव चरम पर है, और भारत का संसदीय लोकतंत्र इन दोनों के टकराव से घायल हो रहा है।

यह स्पष्ट है कि भारत का लोकतंत्र विकृत हो गया है क्योंकि हमारी संसद लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं कर रही है। जब संसद की कार्यप्रणाली में ही लोकतंत्र नहीं होगा तो संसदीय लोकतंत्र विकृत होगा ही। लोकतांत्रिक संसद की यह परिभाषा होती है कि वहां सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच प्रतिस्पर्धा हो विरोध नहीं। यदि संसद में प्रतिपक्ष कमजोर होता है तब संविधान में मनमाने संशोधन हो जाते है और संसदीय लोकतंत्र विकृत हो जाता है। दूसरी ओर यदि विपक्ष प्रतिस्पर्धा छोड़कर सत्ता पक्ष के विरूद्ध सत्ता की लड़ाई लड़ना शुरू कर दे तब भी लोकतंत्र को नुकसान होता है क्योंकि उस स्थिति में सत्ता पक्ष लोकहित के काम छोड़कर लोकप्रिय कार्य शुरू कर देता है। वर्तमान भारत में यही हो रहा है। संसद लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं कर पा रही है। विपक्ष इस सीमा तक विरोध कर रहा है कि वह कश्मीर में धारा 370 हटाने जैसे उचित कदम के विरूद्ध भी मैदान में तालठोक कर खडा है। प्रतिपक्ष नागरिकता कानून जैसे अच्छे कानून का भी विरोध कर रहा है परिणामस्वरूप सत्ता पक्ष सभी जनहित के कार्यों से दूरी बनाकर हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण के एकमात्र लोकप्रिय मार्ग पर चल पड़ा है। लोकतांत्रिक संसद का कोई स्वरूप भारत में दिख नहीं रहा है।

संसद लोकतांत्रिक दिशा में बढ़ भी नहीं सकेगी क्योंकि भारत ने पश्चिम के लोकतंत्र के स्थान पर और भी अधिक गंदगी पैदा कर दी है। अब राजनैतिक दलों में भी लोकतंत्र पूरी तरह समाप्त हो गया है। दस वर्ष पहले तक भारतीय जनता पार्टी, जेडीयू और साम्यवादी दलों में आंशिक लोकतंत्र था वह भी अब धीरे धीरे कमजोर हो रहा है। कांग्रेस, आरजेडी, ममता बनर्जी, मायावती, शिवसेना, आम आदमी पार्टी आदि दलों में तो लोकतंत्र कभी था ही नहीं। राजीव गांधी ने दल बदल कानून बनाकर राजनैतिक दलों के साथ साथ संसद के भी लोकतांत्रिक स्वरूप की सदा सदा के लिये हत्या कर दी। अब जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद संसद में भी स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बात नहीं रख सकता। अब तो भारत की सारी राजनैतिक व्यवस्था कुछ दल प्रमुखों की तानाशाही तक आकर सिमट गई है। हमारे चुने हुये सांसद गुलामों के समान उस तरह नेताओं के पीछे पीछे आंख बंद कर हाथ उठाते दिखते हैं जैसे वे सिर्फ भेड़ बकरी मात्र हों। आवश्यकता पड़ने पर इन निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को होटलों में कैद कर दिया जाता है। यदि इसी को लोकतांत्रिक संसद कहा जाये तो हमें लोकतांत्रिक होने पर भी शर्म महसूस होती है।

70 वर्षों में भारत के लोकतंत्र में किस सीमा तक गिरावट आयी है कि भारत में भावनात्मक मुद्दों को उछालकर वैचारिक मुद्दे नेपथ्य में कर दिये जाते हैं। प्याज और टमाटर की महंगाई पर सरकार बदल दी जाती है तो कभी अनावश्यक युद्ध का हौवा खड़ा करके भी राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने का प्रयास होता है। यदि किसी सत्ताधारी की हत्या हो जाये तो उसी के नाम पर दशकों तक वोटों की दुकानदारी चलती रहती है। इंदिरा जी की हत्या होते ही उस हत्या को सुअवसर में बदलने का प्रयास हुआ। लालू प्रसाद ने अपने जेल जाते समय रावडी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह परिवार के लगभग तीस से ज्यादा सदस्य किसी न किसी राजनैतिक पद पर स्थापित हैं। यदि किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि की मौत हो जाती है तो उसकी पत्नी या पुत्र को ही उस स्थान को भरने के लिये सबसे अधिक योग्य मान लिया जाता है। समझ में नही आता कि भारत में यह कैसा लोकतंत्र है? न तो भारत में संसदीय लोकतंत्र दिख रहा है न ही लोकतांत्रिक तरीके से संसद चल रही है। संसद में विचार विमर्श को छोड़कर बाकी सारे अलोकतांत्रिक हथकंडे अपनाये जाते हैं। इस अलोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था से लाभ प्राप्त मीडिया तथा कुछ अन्य बुद्धिजीवी भारत में लोकतंत्र के मजबूत होने की दुहाई देते हैं जबकि भारत में न संसदीय लोकतंत्र है न लोकतांत्रिक संसद है और न राजनैतिक दलों में कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था है। एक प्रकार से लोकतंत्र की मरणासन्न लाश को ही हम मजबूत लोकतंत्र की बात कहकर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं।

लोकतंत्र का अर्थ होता है लोक नियंत्रित तंत्र। यह परिभाषा हमने कभी स्वीकार नहीं की। लोकतंत्र परिवार से शुरू होना चाहिये तभी सत्ता तक जाकर उसके अच्छे परिणाम निकल सकते हैं। लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधि को अपनी बात रखने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिये। राजनैतिक दल संसद के अंदर उसे अपनी सोच के विपरीत बोलने या मत देने से नहीं रोक सकते। राजनैतिक दलों के अंदर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था होनी चाहिये और इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुरूवात परिवार से होनी चाहिये क्योंकि परिवार में लोकतंत्र आयेगा तभी उपर जाकर लोकतंत्र मजबूत हो सकेगा। सबसे अच्छी व्यवस्था तो हमारी भारत की रही है जिसमें समाज सर्वोच्च माना जाता है किन्तु अभी हम इतना बदलाव की स्थिति में नहीं हैं तो हम प्रारम्भिक तौर पर दल बदल कानून को समाप्त कराने से ही अपनी शुरूवात करें। यदि दल बदल कानून समाप्त हो जायेगा तो हमारा जनप्रतिनिधि भेड बकरी के स्थान पर जीवित मनुष्य के समान अपनी बात रख सकेगा। पारिवारिक राजनीति पर अंकुश लगेगा। धीरे धीरे लोकतंत्र का स्वरूप भी बदल सकता है। दल-बदल कानून समाप्त होने के बाद ’राइट टू रिकाॅल’ की मुहिम चला सकते हैं। हम संविधान संशोधन के लिये तंत्र से हटकर कोई अलग व्यवस्था भी खड़ी कर सकते हैं और यदि हम एक बार राजनेताओं की उंगली पकड़ने में कामयाब हो जाये तो हम दुनियां को समाज सर्वोच्च का संदेष भी दे सकते है। आवश्यक है कि हम समाज के लोग भारतीय लोकतंत्र के इस बदबूदार नाली से बाहर निकलने का प्रयास करें और नई लोकतांत्रिक संवैधानिक या सामाजिक व्यवस्था पर सोचने के लिये सक्रिय हों।