मुसलमानों के कट्टर आचरण का दुष्परिणाम

मुसलमानों के कट्टर आचरण का दुष्परिणाम 

कल शनिवार को इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हो रहा था मैं आमतौर पर क्रिकेट मैच में कोई रुचि नहीं रखता लेकिन कल मेरे मन में एक अज्ञात भाव स्थापित हो गया था, कि पाकिस्तान को हारना चाहिए। इसलिए मैं बीच-बीच में कई बार मैच का परिणाम देखने के लिए उत्सुक था और पाकिस्तान के हारने पर मुझे खुशी हुई। मैं सोचता हूं कि इस प्रकार की भावना मेरे अंदर कहां से आई. इसमें कहीं मैं गलत हूं या भारत के मुसलमान के व्यवहार ने मुझे इस दिशा में प्रेरित किया। मैं लगातार इस बात की प्रतीक्षा करता रहता हूं कि इसराइल कितना आगे बढ़ा। यह स्थिति अच्छी है या बुरी है यह मुझे नहीं पता लेकिन इस दिशा में मेरी सोच लगातार बढ़ती जा रही है। मैं तो इस विषय पर गंभीरता से सोचूंगा ही फिर भी मेरा निवेदन है कि भारत के मुसलमान भी इस विषय पर गंभीरता से सोचें कि मेरे जैसा व्यक्ति इस प्रकार से एक पक्षीय दिशा में क्यों सोचने लगा है।

मेरे कुछ मित्रों प्रमोद सिंह जी, जाकिर भाई, संजय तांती आदि ने मेरे विचारों में बदलाव का कारण पूछा कुछ मित्रों ने फोन भी किया। मैं स्पष्ट कर दूं कि मेरे विचारों में कोई बदलाव नहीं है नीतियों में भी कोई बदलाव नहीं है, जैसे-जैसे अनुभव आ रहा है समय बीत रहा है, उसी तरह अनुभव कुछ अलग परिणाम दे रहे हैं। मैं बचपन से ही गांधी को मानने वाला रहा मैं गांधी विचारों का प्रमुख समर्थक रहा। गांधी विचारों का विरोध किया सावरकर ने नेहरू ने अंबेडकर ने और मुसलमान ने। गांधी बटवारा नहीं चाहते थे लेकिन मुसलमानों के बहुमत ने बंटवारे के पक्ष में मत दिया, इससे गांधी दुखी थे। तो इन चारों को मैंने कभी माफ नहीं किया। मैंने पूरे जीवन में सावरकर नेहरू अंबेडकर और मुसलमान को माफ नहीं किया। मैंने बचपन में रामानुजगंज में जो प्रयोग किया, उस प्रयोग की सफलता से मुझे ऐसा विश्वास हुआ कि मुसलमान और संघ में बदलाव संभव है। उस समय संघ सावरकरवादियों की आंख बंद करके नकल करता था और मुसलमान पूरी तरह धर्म को ऊपर मानते थे समाज को नहीं। लेकिन रामानुजगंज में यह बदलाव दिखा जिससे मैं बहुत संतुष्ट हुआ। धीरे-धीरे आगे चलकर के अनुभव बताता है की संघ तो सावरकरवादियों से दूर होता गया लेकिन रामानुजगंज को छोड़कर बाहर के मुसलमान और अधिक साम्प्रदायिक होते गए। मैं आज भी रामानुजगंज के मुसलमानों के साथ खड़ा हूं। लेकिन सारे देश की जो स्थिति है वह मुझे मजबूर कर रही है कि मैं नई परिस्थितियों पर विचार करूं। संघ के लोग गांधी की प्रशंसा करने लग गए हैं संघ के लोग प्रवीण तोगड़िया और बालठाकरे से दूरी बना रहे हैं और दूसरी तरफ भारत का मुसलमान कट्टर से कट्टर होता जा रहा है। मुझे दुख होता है कि भारत का मुसलमान आज भी हिंदुओं को संवैधानिक तौर पर समान अधिकार देने के पक्ष में नहीं है। क्या भारत के हिंदुओं को भी बराबरी का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। इस संबंध में मुझे भारत के मुसलमान से शिकायत है।

मैं यह स्पष्ट कर चुका हूं की रामानुजगंज के मुसलमान के संबंध में मेरी धारणा अब तक नहीं बदली है, क्योंकि वहां के मुसलमान के सोचने का तरीका अन्य सारी दुनिया से कुछ अलग है। लेकिन देश भर के मुसलमान के संबंध में मैं यह चाहता हूं कि मेरे जैसे व्यक्ति के यदि अनुभव में कुछ ऐसे बदलाव दिख रहे हैं। तो देश भर के मुसलमानों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

पहली बात तो यह है कि भारत के मुसलमान को यह बात साफ कर देनी चाहिए कि समान नागरिक संहिता का किसी भी रूप में विरोध ना किया जाए। हम हिंदू हिंदू राष्ट्र का विरोध कर रहे हैं तो आपको समान नागरिक संहिता का समर्थन करने में क्या दिक्कत आती है और यदि आप हमें बराबरी का अधिकार नहीं दे सकते तो फिर हमारा आपका क्या संबंध हो सकता है।

दूसरी बात की मुसलमान को यह बात विचार करनी होगी कि वह समाज का निर्णय मानेंगे अथवा लड़कर न्याय लेंगे। यदि कोई बात गलत हो रही है तो आप अंत में समाज का निर्णय मानेंगे या नहीं अन्याय का बदला यदि आप लड़ कर लेना चाहते हैं तो हमें इससे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन फिर रोना धोना छोड़िए। आप दिन रात लड़ने के लिए भी तैयार रहें और रोने के लिए भी तैयार रहे यह दुहरा आचरण अब नहीं चलेगा।

तीसरी बात आपको यह गारंटी देनी होगी कि धर्म स्थान का राजनीतिक या आतंकवादी उपयोग नहीं किया जाएगा धर्म स्थान में किसी भी परिस्थिति में कोई उग्रवादी हथियार नहीं रखे जाएंगे। यदि आप धर्म स्थान का उपयोग उग्रवाद या आतंकवाद के लिए करते हैं तो आप जरा भी विश्वसनीय नहीं है।

इन तीन बातों की घोषणा के बाद ही मैं फिर से अपने निष्कर्ष पर विचार कर सकता हूं अन्यथा अनुभव ने मेरे सामने जो निष्कर्ष दिया है वह मैंने आपके सामने लिख दिया