धर्मनिरपेक्षता और तुष्टिकरण की दुविधा में फंसा कांग्रेस: GT 446

धर्मनिरपेक्षता और तुष्टिकरण की दुविधा में फंसा कांग्रेस:

५          मैंने कल इस विषय पर चर्चा की थी कि कांग्रेस पार्टी का एक बड़ा धड़ा संघ के साथ तालमेल करने का प्रयत्न कर रहा है, आज हम इस मामले में और आगे विचार कर रहे हैं । कांग्रेस पार्टी का एक मजबूत समूह इस बात का पक्षधर है कि जब तक हम हिंदुओं को अपने विश्वास में नहीं लेंगे तब तक हम मजबूत नहीं हो सकते । यदि हम हिंदुओं को जोड़ सके तब भी मुसलमान तो कहीं जाएगा नहीं क्योंकि मुसलमान के मन में भाजपा के प्रति इतनी चिढ़ है कि वह किसी भी हालत में हमारे साथ रहेगा । दूसरा गुट मानता है कि यदि हमने मुसलमान को नाराज कर दिया तो हिंदू हमारे साथ अभी लंबे समय तक नहीं जुड़ेगा और मुसलमान भी नाराज होकर क्षेत्रीय दलों के साथ जुड़ जाएंगे और जो कुछ भी हमारे पास बचा है वह भी समाप्त हो जाएगा। हिंदुओं के पक्ष में जाने के लिए कमलनाथ, भूपेश बघेल, अशोक गहलोत सरीखे अन्य बड़े-बड़े नेता पूरे जोर से कोशिश कर रहे हैं कि हिंदू मुसलमान के बीच ध्रुवीकरण को रोका जाए । दूसरी ओर  राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, जय राम रमेश सहित सभी वामपंथी कम्युनिस्ट नेता इस बात पर पूरी तरह मजबूती के साथ खड़े हुए हैं कि हमें किसी भी स्थिति में अपनी पुरानी नीतियों में बदलाव नहीं करना चाहिए । दोनों गुटों के बीच यह वैचारिक दुविधा दूर होने का नाम नहीं ले रही है। कभी तो राहुल गांधी जनेऊ पहन लेते हैं, अपने को ब्राह्मण घोषित कर देते हैं तो कभी राहुल गांधी राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में जाने से भी इंकार कर देते हैं । यह दुविधा कांग्रेस पार्टी के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रही है। कांग्रेस पार्टी का एक धड़ा संघ के साथ तालमेल करना चाहता है और मोदी को किनारे करना चाहता है दूसरा धड़ा जो कम्युनिस्टों के प्रभाव में है वह इस बात का पक्षधर है कि हम नरेंद्र मोदी का प्रत्यक्ष विरोध करके ही उन्हें कमजोर कर सकते हैं । अन्य विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी के साथ चलने के लिए मजबूर हैं। अरविंद केजरीवाल हिंदुओं को अपने साथ जोड़कर चलना चाहते हैं तो अखिलेश यादव और ममता बनर्जी मुसलमान को अपने साथ जोड़कर रखना चाहते हैं । इस तरह पूरा का पूरा विपक्ष हिंदू और मुसलमान इस मामले पर कोई एक नीति नहीं बना पा रहा है और इसका दुष्प्रभाव वर्तमान चुनाव में एकदम साफ दिख रहा है कि चुनाव लगभग एकपक्षीय होते जा रहे हैं, नीरस होते जा रहे हैं और राष्ट्रीय मुद्दों पर ना खड़े होकर क्षेत्रीय मुद्दे तथा लोकल लीडरों पर निर्भर कर रहे हैं। हमारे कई मित्र इस बात से बहुत चिंतित हैं कि इस तरह लोकतंत्र में चुनाव का एकपक्षीय होना उचित नहीं है लेकिन मैं दलविहीन राजनीति का पक्षधर हूं और चुनाव में यदि दलगत राजनीति कमजोर हो जाती है या समाप्त हो जाती है तो यह देश के लिए हित में होगा ।

यह बात साफ होती जा रही है कि विपक्षी दलों ने वर्तमान चुनाव में दो प्रकार के प्लान बनाए थे, उनका प्लान यह था कि यदि विपक्षी दल बहुमत के करीब पहुंच जाएंगे तो जोड़-तोड़ करके अपना प्रधानमंत्री चुन लेंगे । आगे प्लान यह भी था कि यदि विपक्षी दल बहुमत से बहुत दूर रह जाएंगे तो वह भारतीय जनता पार्टी में से ही नरेंद्र मोदी की जगह किसी अन्य को प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश करेंगे। अब विपक्षी दलों का आंतरिक सर्वे यह स्पष्ट कर रहा है कि विपक्षी दल बहुमत से बहुत दूर हैं इसलिए पिछले कई दिनों से विपक्षी दलों ने ‘प्लान बी’ पर काम शुरू कर दिया है । ‘प्लान बी’ का मतलब यह है कि संघ की तरफ से विपक्षी दल एक साथ जुड़कर नरेंद्र मोदी के खिलाफ नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री बनने में मदद करेंगे । पिछले दिनों यह बात साफ-साफ दिखाई कि विपक्ष के बड़े नेता उद्धव ठाकरे के खासमखास संजय राउत ने खुलेआम यह कहा कि नितिन गडकरी हमारे साथ आ जाएं हम उन्हें अपने साथ देखना चाहते हैं । उसके बाद भी लगातार नितिन गडकरी के पक्ष में विपक्षी दलों ने वातावरण बनाया उसके साथ-साथ विपक्ष ने संघ के साथ भी संपर्क करना शुरू किया और संघ को यह बार-बार संदेश भेजा गया कि आप नरेंद्र मोदी की जगह नितिन गडकरी को आगे करो। आश्चर्य हो रहा है कि पिछले दिनों राहुल और दिग्विजय सिंह को छोड़कर बाकी सभी कांग्रेसियों की भाषा संघ के प्रति नरम हो गई है और मोदी के खिलाफ उग्र हो गई है। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी ने मोदी के खिलाफ और संघ के पक्ष में यह खुलेआम बयान दिया है कि संघ मुसलमान का शत्रु नहीं है बल्कि संघ ने तो मुसलमान के साथ मिलकर बंगाल में सरकार चलाई थी। मेरे कई निकट के मित्रों ने भी मुझे व्यक्तिगत रूप से यह बात बताई की विपक्षी दल धीरे-धीरे नितिन गडकरी को स्वीकार करते जा रहे हैं और संघ के प्रति भी नरम पड़ते जा रहे हैं । यह भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव है कि भारत का विपक्षी दल राहुल गांधी की बात ना मानकर और दिग्विजय सिंह को किनारे करके संघ के साथ अंदर-अंदर कोई समझौता कर रहा है । मेरी व्यक्तिगत जानकारी के अनुसार अब तक संघ ने या नितिन गडकरी ने ऐसा कोई आभास नहीं दिया है लेकिन विपक्षी दलों का यह प्रयास लगातार जारी है।