अपराध और अपराध नियंत्रण
अपराध और अपराध नियंत्रण
धर्म ,राष्ट्र और समाज रुपी तीन इकाईयों के संतुलन से व्यवस्था ठीक चलती है। यदि इन तीनों में से कोई भी एक खींचतान करने लगे तो अपराधों का बढना स्वाभाविक हैं । दुनिया में इन तीनों में भारी असंतुलन पैदा हो गया है। धर्म का स्थान सम्प्रदाय ने, राष्ट्र का राज्य ने,और समाज का संगठित वर्गों ने ले लिया है। परिणाम दुनिया में स्पष्ट दिख रहे हैं।
अपराध दो प्रकार के होते हैं- 1 सामूहिक अपराध 2 व्यक्तिगत अपराध। पूरी दुनिया में सब मिलाकर जितने अपराध होते हैं उनका 90 प्रतिषत धर्म और राष्ट्र के नाम पर किये जाते है। ये अपराध धर्म और राष्ट्र की अतिसक्रियता के परिणाम होते हंै। व्यक्तिगत अपराध पूरी दुनिया में बहुत कम होते हंै। फिर भी हम इस लेख के माध्यम से सिर्फ व्यक्तिगत अपराधों की चर्चा तक सीमित हंै। धर्म और राष्ट्र के नाम पर होने वाले,अपराधों की चर्चा अलग से करेंगे।
सबसे बडी बिडम्बना यह है कि दुनिया में आज तक अपराध की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं बन सकी और जब अपराधों की परिभाषा ही नहीं है और पहचान ही नहीं है तो नियंत्रण कैसे संभव है? भारत में भी ऐसी कोई परिभाषा और पहचान अस्तित्व में नहीं है। न तो संविधान, न ही सरकार और न ही न्यायपालिका आज तक स्पष्ट कर सकी है कि अपराध क्या है?
व्यक्ति के अधिकार तीन प्रकार के होते हैं- 1 प्राकृतिक 2 संवैधानिक 3 सामाजिक। प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन अपराध होता है। संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन गैरकानूनी होता है अपराध नहीं। सामाजिक अधिकारों का उल्लंघन अनैतिक होता है, न तो गैरकानूनी होता है, न ही अपराध। आष्चर्य है कि इतनी छोटी सी बात भी आज तक दुनिया में परिभाषित नहीं हो सकी, न ही भारत में हो सकी है । आप किसी अच्छे से अच्छे अन्तर्राष्ट्रीय,या राष्ट्रीय विद्वान से पूछ कर देखिये कि अपराध गैरकानूनी और अनैतिक मंे क्या फर्क होता है तो आपको पता चल जायेगा। आप किसी से पूछ कर देखिये कि भारत में अपराधियों की मात्रा का प्रतिषत क्या है तो कोई आपको 50 बतायेगा , तो कोई 90 और कोई 99 जबकि सच्चाई यह है कि भारत में अपराधियांे और अपराधों का प्रतिषत कुल मिलाकर एक से दो के बीच होता है। अपराध गैरकानूनी और अनैतिक को एक साथ मिला देने से यह प्रतिषत बढ जाता है। स्वाभाविक है कि भूसे के ढेर से सुई का खोजना जितना कठिन होता है उतना ही कठिन समाज के बीच से अपराधी को खोजना होता है। मैं नहीं कह सकता कि भारत में यह भ्रम जानबूझकर फैलाया गया अथवा दुनिया की नकल करते हुये किन्तु यह सच है कि यह भ्रम सम्पूर्ण भारत में एक समान रुप में फैला हुआ है।
अपराध वृद्धि के कई कारण हैं- भारत में पुलिस और न्यायालय को इतना ओभरलोडेड बना दिया गया है कि वे अपराध की ठीक विवेचना कर ही नहीं पाते। पुलिस जल्दी जल्दी अपरिपक्व विवेचना के आधार पर न्यायालय में मुकदमा प्रस्तुत करती है तो न्यायालय धीरे धीरे अनंतकाल तक उसके न्याय में बाल की खाल निकालता रहता है। न्यायालय आज तक यह नहीं समझ सका कि किसी अपराधी का निर्दोष छूट जाना भी पीडित के साथ अन्याय है। न्यायालय को चाहिये था कि वह पुलिस को न्याय सहायक माने और पुलिस न्यायालय की संयुक्त भूमिका को अपराध नियंत्रण का आधार किन्तु न्यायालय अपने को अपराधी और पुलिस के बीच में न्यायकर्ता के रुप में स्थापित करने लगा जिसका परिणाम हुआ कि अपराधियों का बहुमत निर्दोष सिद्ध होकर छूटने लगा।
दूसरा कारण ये रहा कि हमारी विधायिका कभी दायित्व और कर्तव्य का अंतर नहीं समझ सकी। सुरक्षा और न्याय राज्य का दायित्व होता है तथा अन्य जनकल्याणकारी कार्य उसके स्वैच्छिक कर्तव्य। हमारी विधायिका ने विदेषों की नकल करते हुए जनकल्याणकारी कार्यो को अपना दायित्व मान लिया और उन्हें प्राथमिकता देने लगे । स्वाभाविक था कि अपराध नियंत्रण पीछे छूट गया। आज निकम्मे और बैठे ठाले परजीवी निरंतर, षिक्षा,स्वास्थ, गरीबी और भूख मिटाने के नाम पर इतनी बडी बडी मांगे प्रस्तुत करते रहते हंै कि पुलिस और न्यायालय का बजट सौतेला दिखने लगता है। सम्पूर्ण भारत के कुल बजट का एक प्रतिषत से भी कम पुलिस और न्यायालय पर खर्च होता है तो सेना पर तेरह प्रतिषत और अन्य जनकल्याण के कार्यो पर 86 प्रतिषत । इस एक प्रतिषत में भी 90 प्रतिषत घुसपैठ जनकल्याणकारी कार्यो की हो जाती है और कुल बजट का 10 नया पैसा ही वास्तविक अपराध नियंत्रण पर खर्च होता है। कानून भी इतने गलत बनते है कि बन्दूक और पिस्तौल को छोटा अपराध माना जाता है तो अवैध गांजा और अवैध अनाज को अधिक गंभीर। यहा तक कि गंभीर अपराधों में दोष सिद्धी का भार पुलिस पर डाला गया है और संदेह का लाभ अपराधी को मिलता है जबकि दहेज वन अपराध, आदिवासी हरिजन, कानून जैसे मामलों में इसका ठीक विपरीत है। भारत में पष्चिम की नकल करते हुये सिद्धांत बना कि भले ही 99 अपराधी निर्दोष सिद्ध हो जाये किन्तु एक भी निर्दोष दण्डित न हो जाये। एक ओर तो इतना उंचा आदर्ष और दूसरी ओर इतना लचर बजट। कोई तुलना ही नहीं हो सकती।
हमें समाधान के भी उपाय सुझाने होंगे। अपराध गैरकानूनी और अनैतिक का साफ साफ अंतर स्पष्ट करना होगा। हमें सरकार को भी समझाना होगा कि अपराध नियंत्रण उसका पहला दायित्व है और जनकल्याणकारी कार्य उसका स्वैच्छिक कर्तव्य । तदनुसार सरकार को अपनी बजट प्राथमिकताएॅ भी बदलनी होंगी। न्यायापालिका को भी यह समझाना होगा कि उसे अपराध नियंत्रण की पहली प्राथमिकता मानना चाहिये। उसे यह भी समझना चाहिये कि पुलिस उनकी न्याय सहायक है, पक्षकार नहीं। यह बात भी भारत में साफ साफ दिखती है कि देष के अनेक क्षेत्रों में लोग गवाही देने से डरते हंै। यदि कोई गवाही देता भी है तो उसकी सुरक्षा को खतरा है। यदि पुलिस कानून तोडकर सुरक्षा देती है तो न्यायालय भी अपने प्रभाव का उपयोग करता है। ऐसी परिस्थिति में एक तात्कालिक उपाय करना चाहिये अर्थात अल्पकाल के लिए यह व्यवस्था होनी चाहिये कि किसी जिले का कलेक्टर,एस पी, जिला न्यायाधीष, संयुक्त रुप से महसूस करें कि उस जिले के लोग भय के कारण गवाही नहीं दे पा रहे हंै तो उस जिले में आपात व्यवस्था लागू कर सकते हैं। जिसका अर्थ होगा कि उस जिले में कुछ गंभीर अपराधों का गुप्तचर न्यायालय में गुप्त मुकदमा चलेगा जिसकी अपील भी गुप्तचर न्यायालय में ही होगी और सर्वोच्च गुप्तचर न्यायालय का निर्णय अंतिम होगा जो अपराधी कभी नहीं जान पायेगा। वर्तमान समय में राज्य को न्यूनतम हिंसा और बलप्रयोग की जगह संतुलित हिंसा और बल प्रयोग का मार्ग अपनाना चाहिये। राज्य द्वारा दण्ड और हिंसा की मात्रा भय की आवष्यकता के अनुसार तय करनी चाहिये , किसी सिद्धांत के आधार पर नहीं। अल्पकाल के लिए कुछ अधिक कठोर दण्ड की भी व्यवस्था हो सकती है और उसके अंतर्गत खुलेआम फांसी का भी प्रावधान किया जा सकता है। यदि उसके बाद भी स्थिति नियंत्रित होते न दिखे तो यह भी घोषणा हो सकती है कि तीन महिने के अंदर पूरे देष से गुप्त मुकदमा प्रणाली के अन्तर्गत 50 लोगो को फांसी 500 को आजीवन कारावास दिया जायेगा।
अपराध नियंत्रण में धर्म, और समाज की भी भूमिका होनी चाहिए। धर्म तो व्यक्ति को अपराध से बचने का मार्ग सुझाता है और समाज उसे अनुषासित करता है । प्राचीन समय में समाज की अपराध नियंत्रण मंे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी जिसे सामाजिक बहिष्कार कहा जाता था। मुस्लिम शासनकाल में बहिष्कार को हिंसा के साथ जोड दिया गया तो अंग्रेजों के शासनकाल में बहिष्कार को पूरी तरह अपराध बना दिया गया। वास्तव में सामाजिक बहिष्कार अपराध नियंत्रण का एक मजबूत माध्यम है जिसे कानूनी मान्यता भी मिलनी चाहिए, उस सीमा तक जब तक वह किसी के प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन न करे और सामाजिक अधिकारों तक ही सीमित हो । इसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को परिवार व्यवस्था से भी जुडना अनिवार्य कर दिया जाये और यह घोषित किया जाये कि परिवार का कोई सदस्य यदि अपराध करता है और परिवार जानते हुए भी उसे न नियंत्रित करता है, न ही परिवार से निकालता है तो उक्त व्यक्ति के अपराध के लिए परिवार को भी उत्तरदायी माना जा सकता है।
मैं समझता हॅू कि अपराध नियंत्रण कोई असंभव कार्य नहीं है यदि हम ठीक नीयत और ठीक योजना से मिलकर इस कार्य को करें। मुझे उम्मीद है कि अपराध नियंत्रण की दिषा में कुछ रचनात्मक प्रगति संभव होगी।
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