परम्पराएँ और यथार्थ
परम्पराएँ और यथार्थ एक दूसरे के पूरक भी होते है तथा दोनों के बीच निरंतर टकराव भी होता रहता है। परम्पराएँ भूतकाल के निष्कर्ष तक सीमित होती है,जबकि यथार्थ वर्तमान के निष्कर्षों का संकेत होता है। परम्पराएँ और यथार्थ मिलकर भविष्य के दिशा निर्देश तय करते है। परम्पराएँ यथार्थ को लम्बे समय तक सुरक्षित रखती हैं, जबकि यथार्थ परम्पराओं की देशकाल परिस्थिति अनुसार समीक्षा करके संशोधन करने का प्रयास करता है। यही प्रयास परम्परावादियों तथा यथार्थवादियों के बीच टकराव का कारण बनता है।
परम्पराओं में जब विकृति आती है तो परम्पराएँ रुढिवाद में बदल जाती हैं। इसी तरह यथार्थवाद में जब विकृति आती है तब वह आधुनिकता में बदल जाता है। यह रुढिवाद और आधुनिकता के बीच उत्पन्न विकृति ही टकराव का कारण बनती है। सामान्यतया परम्परा और यथार्थ स्वाभाविक रुप से समाज में निरंतर चलते रहते है। न तो परम्पराएँ कभी समाज को संतुलित रख सकती है और न ही यथार्थवाद। क्योंकि समाज का औसत बहुमत न तो यथार्थ के विष्लेषण की क्षमता रखता है, न ही उसके पास इतना समय और साधन होता है। यही कारण है कि समाज एक छोटे से विचारक समूह के यथार्थवादी चिंतन के आधार पर निकले निष्कर्षों को अक्षरषः सत्य मानकर उन्हें परम्परा के रुप में विकसित कर देता है।
प्राचीन समय से भारत में यथार्थवाद का निरंतर प्रयास होता रहा। भारत ने दुनिया को यथार्थवादी निष्कर्ष प्रस्तुत किये किन्तु जब भारत गुलाम हुआ तो उसकी यह क्षमता लगभग समाप्त हो गई, और भारत पहले परम्पराओं का देश बना और बाद में रुढिवाद में जकड़ गया। पश्चिम के देश यथार्थ को परम्पराओं के साथ जोडकर देखने का प्रयास करते है किन्तु गंभीर चिंतन का अभाव उन्हें इस दिशा में आगे नहीं बढने देता। साम्यवादी देशों के पास कोई यथार्थवादी दृष्टिकोण कभी होता ही नहीं। वे तो सिर्फ परम्पराओं को तोड़कर उन्हें आधुनिकता की अंतिम सीमा तक विकारग्रस्त करने में प्रयत्नशील रहते है। ये दोनों ही विकृतियाँ समाज के लिए बहुत घातक होती है। रुढिवादी ऐसा मानता है कि वही अंतिम सत्य है और उसमें कभी किसी संशोधन की गुंजाईश नहीं हो सकती। ऐसे रुढिवादियों में इस्लाम सबसे उपर है तथा गुलामी के बाद धीरे-धीरे हिन्दुत्व भी उस दिशा में बढ रहा है। दूसरी ओर आधुनिकता हमेशा ऐसा मानती है कि जो भी परम्पराएँ है वे पूरी तरह गलत है और उन्हें बिना सोचे समझे, बिना किसी कसौटी पर कसे, बिना कोई निष्कर्ष निकाले समाप्त कर देना चाहिए। सच्चाई यह है कि ये दोनों ही धारणाएँ समाज में शांति भंग करती है, अस्थिरता फैलाती हैं तथा कभी-कभी हिंसक टकराव तक आगे चली जाती है ।
यदि हम प्राचीन समय का उदाहरण देखें तो पृथ्वी गोल है या चपटी , इस यथार्थ को बताने वाले वैज्ञानिक को रुढिवादियों ने मृत्युदण्ड दिया। ऐसी और भी अनेक घटनाएँ हुई है जो इतिहास में दर्ज है। दूसरी ओर साम्यवादियों ने अपने अपने देशों में लाखों करोडो परम्परावादियों का यह कहकर कत्ल कर दिया कि ये रुढिवादी हैं, दकियानुसी है, आधुनिकता के विरोधी हैं। रुढिवादी मुसलमानों ने मूर्तिपूजा के नाम पर रुढिवादी हिन्दुओं के साथ कितना अन्याय और अत्याचार किया वह भी इतिहास में दर्ज है। दुनिया का इतिहास रुढिवादियों और आधुनिकता के अंधसमर्थकों के अत्याचारों से काला हो चुका है।
अब हम पुरानी चर्चाओं को छोडकर आज की चर्चा करें। अभी कुछ दिनों पहले ही पाकिस्तान मे एक लडकी कदील बलोच की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई कि उसने एक मौलवी के साथ बहुत नजदीक बैठकर फोटो खिंचवाई थी। यह बात उसके परिवार को बुरी लगी और लड़की के भाई ने कदील बलोच नामक अपनी बहन की हत्या कर दी। ऐसी आनरकिलिंग की हत्याएँ भारत में भी और हिन्दुओं में भी आये दिन होती रहती हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि इन हत्याओं का दोषी कौन? हत्या करने वाले अपनी परम्पराओं की सुरक्षा करने का सामाजिक दायित्व पूरा कर रहे हैं और उसके लिए अपने परिवार के सदस्यों की हत्या तक करने का खतरा उठा रहे हैं। दूसरी ओर कदील बलोच जैसी महिलाएँ आधुनिकता के चक्कर में इस सीमा तक आगे बढ रही हैं कि उन्हें पारिवारिक अनुशासन के विरुद्ध आचरण करने में किसी भी प्रकार के खतरे का कोई डर नहीं, और वे परम्पराओं को तोडने के लिए ऐसे खतरे उठा रही हैं। बाहर के अन्य रुढिवादी ऐसी आनरकिलिंग का आतंरिक चर्चाओं में समर्थन और प्रशंसा करते दिखते हैं। जबकि बाहर के आधुनिकतावादी ऐसी आनरकिलिंग को कानून के द्वारा तथा प्रचार के द्वारा इतनी गंभीर सामाजिक समस्या प्रचारित करते रहते है कि कानून के द्वारा ऐसी घटनाएँ करने वालो को कठोरतम दण्ड की व्यवस्था हो। दुर्भाग्य से संकीर्ण रुढिवादी तथा उच्चश्रृंखल आधुनिकतावादी, दोनों ही संगठित होते है, दोनो ही सरकारों पर दबाव बनाते है तथा सरकारे समय-समय पर इनके दबाव के आगे झुक जाया करती है तथा कानून के द्वारा दो विपरीत धारणायें समाज में फैलाती रहती है।
व्यक्ति तीन जगह से अनुशासित होता है-1. परिवार से,2.समाज से,3. सरकार से। तीनों ही मिलकर व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देते है। परिवार अपने परिवार को अनुशासित रखता है, समाज धर्म के माध्यम से व्यक्ति के विचारों में सकारात्मक बदलाव के प्रयत्न करता है,तथा सरकार या कानून दोनों ही अनुशासनों के असफल होने की स्थिति में बल प्रयोग का सहारा लेता है। समस्या तो तब पैदा होती है जब परिवार और समाज की मान्यताएँ,सरकार की मान्यताओं से टकराव में बदल जाए । तब व्यक्ति के समक्ष दुविधापूर्ण संकट पैदा हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को स्वैच्छा अनुसार शारीरिक संबंध बनाने का मौलिक अधिकार है। इस अधिकार में बलपूर्वक कोई बाधा पैदा नहीं की जा सकती। इस तरह यदि किसी ने कदील बलोच की हत्या की है तो वह हत्या का अपराधी है किन्तु इसका एक दूसरा पक्ष भी विचारणीय है कि क्या कदील बलोच को अपने परिवार में रहते हुए परिवार का अनुशासन तोडने की असीम स्वतंत्रता थी ? यह सच है कि ऐसा अनुशासन तोडने वालो को किसी भी रुप में दण्डित नहीं किया जा सकता और जो परम्परावादी ऐसी आनरकिलिंग का परोक्ष भी समर्थन कर रहे है, वे दोषी है। उन पर सामाजिक अनुशासन की कार्यवाही होनी चाहिए। साथ ही कदील बलोच जैसी परम्पराओं को तोडने का प्रयत्न करने वाली महिलाओ या पुरुषों को तत्काल ही अपने परिवार से अलग हो जाना चाहिए या निकाल दिया जाना चाहिए। जो लोग किसी भी रुप में ऐसे अलगाव में बाधक बनते है ऐसे लोग भी ऐसी आनरकिलिंग के लिए दोषी माने जाने चाहिए। दुख तो तब होता है जब परिवारों के आंतरिक मामले, जो सिर्फ अनुशासन तक ही सीमित है, उनमें भी आधुनिक राजनेता कानून बना बनाकर अपनी इच्छाएँ जबरदस्ती थोपते रहते हैं। कल्पना करिये कि भारत में कोई लडकी परिवार के विरोध के बाद भी मोबाइल का मुक्त प्रयोग करना चाहती है। परिवार ने उसे हल्का सा डांट दिया और उसने आत्महत्या कर ली। सारे देश में आधुनिकतावादियों का तूफान खडा हो जायेगा। कानून भी अपना काम करने लगेगा। उस लडकी को आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा परिवार को झेलना पडेगा । सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि यही आधुनिकतावादी एक ओर तो व्यक्ति स्वातंत्र की इतनी वकालत करते है तो दूसरी ओर वही लोग परिवार के किसी भी सदस्य को कभी भी परिवार छोडने या परिवार से निकालने के विरुद्ध कानून भी बनाकर रखते है। पति पत्नी यदि अलग-अलग होना चाहे तो उन्हे सरकार की अनुमति चाहिए। एक ओर तो यही लोग शारीरिक संबंध बनाने की स्वतंत्रता की दुहाई देते है, तो दूसरी ओर यही लोग 18 वर्ष से कम उम्र में विवाह करने पर प्रतिबंध भी लगाते है। क्या यह उचित नहीं होगा कि आनरकिलिंग का दण्ड देते समय ऐसे ऐसे परिवार तोडक समाज तोडक कानून बनाने वालो को भी दण्डित करने की कोई व्यवस्था हो। यदि सरकार ऐसी व्यवस्था न करे तो समाज को ऐसी पहल क्यों नहीं करनी चाहिए ? इस तरह लम्बे समय तक कुछ निकम्मे या धुर्तो को परिवार व्यवस्था समाज व्यवस्था में अव्यवस्था फैलाने की छूट नहीं देनी चाहिए ।
मैं रुढिवाद के बिल्कुल विरुद्ध हूँ। मैं सामाजिक परम्पराओं का तब तक विरोध नहीं करता जब तक वे परम्पराओं तक सीमित हैं। मैं यथार्थवादी हूँ किन्तु यथार्थवाद के नाम पर आधुनिकता के विस्तार का भी घोर विरोधी हूँ। मैं किसी भी आनरकिलिंग के पूरी तरह विरुद्ध हूँ किन्तु इस बात का पूरी तरह समर्थक हूँ कि परिवार को अपने सदस्यों पर अनुशासन बनाये रखने का उस सीमा तक अधिकार है जहाँ तक उसके मौलिक अधिकार का उलंघन न होता हो। यदि कोई व्यक्ति परिवार के ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करता है तथा आंतरिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करता है तो मैं उसे भी दण्ड दिये जाने का पक्षधर हूँ भले ही वह कोई भी क्यों न हो। परिवार को यह अधिकार नहीं की वह किसी व्यक्ति को किसी भी गलत कार्य के लिए किसी भी रुप में दण्डित कर सके। क्योंकि यह काम सिर्फ शासन तक सीमित है। साथ ही शासन को भी यह अधिकार नहीं है कि वह हमारे पारिवारिक अनुशासन को छिन्न भिन्न करने का कोई कानून बनावे। मुझे उम्मीद है कि आप मेरी भावनाओं को ठीक-ठीक समझेंगे ।
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