न्याय और व्यवस्था

न्याय और व्यवस्था

व्यवस्था बहुत जटिल है । न्याय और व्यवस्था को अलग-अलग करना बहुत कठिन कार्य है, किन्तु हम मोटे तौर पर इस संबंध में अपने विचार रखकर मंथन की चर्चा शुरु कर रहे हैं । प्रत्येक व्यक्ति को एक दूसरे के साथ अपनी क्षमता और योग्यतानुसार प्रतिस्पर्धा करने की स्वतंत्रता ही न्याय माना जाता है । ऐसी स्वतंत्रता में बाधा अन्याय है । ऐसे अन्याय को दूर करने का प्रयत्न व्यवस्था मानी जाती है । व्यवस्था सामाजिक भी होती है और संवैधानिक भी । सामाजिक व्यवस्था समाज का कर्तव्य है और संवैधानिक व्यवस्था राज्य का दायित्व । इसका अर्थ है कि व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी राज्य देता है, समाज नहीं । समाज इसमें व्यवस्था की सहायता कर सकता है ।

            कुछ सर्वस्वीकृत सिद्धांत माने जाते हैं-

1 न्याय और व्यवस्था के बीच संतुलन होना अनिवार्य है । न्याय की भूख का बढ़ना अव्यवस्था पैदा करता है तो व्यवस्था का मजबूत होना तानाशाही का संकेतक माना जाता है ।

2 कर्तव्य और अधिकार एक दूसरे के पूरक होते है ।

3 न्याय सिर्फ व्यक्तिगत होता है, समूहगत नहीं । व्यवस्था समूहगत होती है, व्यक्तिगत नहीं । 

4 किसी व्यक्ति के अधिकार न्याय के रुप में माने जाते है तो कर्तव्य व्यवस्था के रुप में । इसका अर्थ हुआ कि न्याय तब तक नहीं मिल सकता जब तक कोई अन्य व्यवस्था न करे । किसी व्यक्ति के अधिकारों की पूर्ति के लिए किसी अन्य को कर्तव्य करना आवश्यक है ।

             न्याय दो प्रकार के होते हैं- 1 सामाजिक 2 संवैधानिक । सामाजिक न्याय की पूर्ति समाज करता है और संवैधानिक न्याय की पूर्ति राज्य । न्याय की पूर्ति करने वाली सामाजिक और संवैधानिक सक्रियता को व्यवस्था कहते है । व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं- 1 त्याग प्रधान 2 संग्रह प्रधान । त्याग प्रधान व्यक्ति किसी के लिए कोई अन्याय नहीं करते बल्कि व्यवस्था में सहायक होते है । संग्रह प्रधान व्यक्ति यदि सीमा से आगे चले जायें तो वे समस्या पैदा करते हैं और ऐसे व्यक्तियों को नियंत्रित करने के लिए व्यवस्था को आगे आना पड़ता है । वर्तमान समय में संग्रह प्रधान व्यक्तियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है । इसके कारण सम्पूर्ण भारत में व्यवस्था अव्यवस्था में बदलती जा रही है । संग्रह प्रधान व्यक्ति अधिकारों की चिंता करता है किन्तु कर्तव्य की चिंता बिल्कुल नहीं करता । ऐसा व्यक्ति हमेशा न्याय की मांग करता है किन्तु व्यवस्था की कभी कोई मदद नहीं करता । ऐसी न्याय की मांग बढ़ने के कारण व्यवस्था और न्याय के बीच का संतुलन खराब होता है जिसका परिणाम होता है अव्यवस्था और अव्यवस्था का परिणाम होता है अन्याय । क्योंकि न्याय बिना किसी व्यवस्था के पूरा नहीं किया जा सकता ।

            हम वर्तमान स्थिति की समीक्षा करें तो न्याय की मांग करने वालो की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । गली-गली में ऐसे लोग मिल जायेंगे जो एक ओर तो टैक्स नहीं देना चाहते दूसरी ओर दिन रात सुविधाओं में विस्तार करने की मांग करते रहते हैं ।  कुछ निकम्मे लोग कोई काम नहीं करते सिर्फ दिन रात किसी आधार पर न्याय की मांग करते रहते है । अनेक लोगों ने तो न्याय की मांग करने का व्यवसाय ही शुरु कर दिया है । एनजीओ अथवा किसी सामाजिक संगठन का बोर्ड लगाकर ऐसे पेशेवर लोग किसी भी मामले को अन्याय प्रमाणित करके अपनी दुकानदारी शुरु कर लेते है । सत्ता की छीनाझपटी में लगे लोग ऐसे पेशेवर न्याय दिलाने वालो के प्रभाव में आ जाते है जिसका परिणाम होता है व्यवस्था का कमजोर होना ।  गली-गली में आपको आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय दिलाने वालो के बोर्ड मिल जायेंगे । ऐसे अधिकान्श लोग व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए संगठन भी बना लेते है । राजनैतिक सत्ता की छीनाझपटी में लगे लोग और ऐसे आर्थिक सामाजिक न्याय की मांग करने वाले संगठनों के बीच तालमेल होता है जिसका परिणाम होता है कि इन दोनों का व्यवसाय फलता-फूलता है और व्यवस्था कमजोर होती जाती है, जिसका अंतिम परिणाम होता है अन्याय अर्थात न्याय की मांग करने वाले पेशेवर लोगों के व्यवसाय में वृद्धि ।

             स्पष्ट है कि अन्याय बढ़ रहा है न्याय देने वाली व्यवस्था कमजोर हो रही है । जब व्यवस्था कमजोर होती है तब वह मजबूर होकर न्याय की परिभाषा को बदलना शुरु कर देती है क्योंकि व्यवस्था के अभाव में न्याय दिया ही नहीं जा सकता । इस मामले में सबसे पहली गलती हमारी राजनैतिक व्यवस्था के द्वारा की गई । व्यवस्था ने अपनी शक्ति का आकलन किये बिना सम्पूर्ण पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थाओं को अपने अंदर समेट लिया । संवैधानिक व्यवस्था का कार्य तो तब प्रारंभ होता है जब पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था न्याय न दे सके । किन्तु संवैधानिक व्यवस्था ने अन्य सबको बाहर करके स्वयं ही न्याय देना शुरु कर दिया । परिणाम स्वरुप न्याय की मांग बेतहाशा बढ़ी जिसे पूरा करना व्यवस्था के लिए असंभव था । ऐसी स्थिति में ही व्यवस्था तानाशाही की ओर बढ़ना शुरु कर देती है जिसका पहला लक्षण होता है न्याय की मांग में कटौती करना । आज यदि नरेन्द्र मोदी की तानाशाही प्रवृत्ति का भारत में पुरजोर समर्थन दिख रहा है तो उसका मुख्य कारण यही है कि 70 वर्षो तक भारत में न्याय और व्यवस्था के बीच असंतुलन बना रहा । न्याय की मांग बढती रही और व्यवस्था कमजोर होती रही ।

           संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका आपसी तालमेल से न्याय प्रदान करते है । स्वतंत्रता के बाद शक्ति संग्रह प्रवृत्ति के पंडित नेहरु आगे आये । उन्होने सबसे पहले न्यायपालिका के पंख कतरने शुरु किये और धीरे धीरे राष्ट्रपति के अधिकारों तक पहॅुच गये । पंडित नेहरु में त्याग प्रवृत्ति का पूरा पूरा अभाव था । नेहरु माडल को साम्यवादियों का तथा साम्प्रदायिक मुसलमानों का भरपूर समर्थन मिला । इन तीनों के तालमेल के कारण देश की संवैधानिक व्यवस्था निरंतर कमजोर होती गई और इस कमजोरी का परिणाम हुआ न्याय का कमजोर होना जिसका अंतिम परिणाम हम नई परिवर्तित तानाशाही व्यवस्था के रुप में भुगत रहे है । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकतांत्रिक तरीके से इस अन्याय को ठीक करने की कोशिश की किन्तु सोनिया जी के पुत्र मोह, साम्यवादियों की अव्यवस्था लोलुपता तथा न्यायपालिका की अति सक्रियता ने मनमोहन सिंह जी की लोकतांत्रिक पहल को अव्यवस्था विस्तार में बदल दिया । मजबूरी में भारत की जनता को यह तरीका अपनाना पड़ा ।

          अब हमें नई परिस्थितियों में नये तरीके से पहल करनी होगी । धीरे-धीरे साम्यवादियों से पिंड छूट रहा है । साम्प्रदायिक मुसलमान भी न्याय और व्यवस्था के संतुलन पर विचार करने को तैयार होते दिख रहे है । विपक्षी दलों में भी चिंता व्याप्त हो गई है ।  ऐसी परिस्थिति में समाज को भी सक्रिय होना चाहिए । जो लोग आर्थिक और सामाजिक न्याय की मांग में तो निरंतर सक्रिय हैं किन्तु इस न्याय की मांग के माध्यम से वे राजनैतिक सत्ता संग्रह का खेल खेल रहे है ऐसी न्याय की मांग करने वालो को समाज का शत्रु घोषित कर देना चाहिए । समाज ऐसे संगठनों से पूरी दूरी बना ले ।  न्याय की कोई भी मांग किसी भी रुप में व्यवस्था को कमजोर करने का आधार नहीं बनना चाहिए । दूसरा प्रयत्न यह होना चाहिये कि न्यायपालिका और विधायिका के बीच सर्वोच्चता का टकराव बहुत घातक है । किसी भी परिस्थिति मे उसे समन्वय मे बदलना चाहिये ।     हमें तीसरा प्रयत्न यह भी करना चाहिए कि अव्यवस्था को आधार बनाकर देश में तानाशाही की स्थिति न आ जाये । राज्य को वर्तमान की अपेक्षा कई गुना अधिक सशक्त होना चाहिये । साथ ही उसका सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त सभी मामलो मे हस्तक्षेप शून्य होना चाहिये । यह तभी संभव है जब परिवार गांव और समाज की व्यवस्था को राजनैतिक व्यवस्था से मुक्त कराने का प्रयास किया जाये । जब न्याय और व्यवस्था का संतुलन संवैधानिक व्यवस्था के पास केन्द्रित न होकर पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था के बाद अल्पमात्रा में ही राज्य के पास एकत्रित होगा तब अपने आप विकेन्द्रित व्यवस्था मजबूत हो जायेगी । व्यवस्था मजबूत होगी तब लोगों को अपने आप न्याय मिलने लग जायेगा । भारत में न्याय की मांग करने वाले संगठनों की दुकानदारी भी बंद हो जायेगी और राजनैतिक तानाशाही का खतरा भी टल जायेगा ।