आत्मनिर्भर भारत

स्वतंत्रता और सहजीवन का तालमेल ही समाजशास्त्र है । स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है तो सहजीवन प्रत्येक व्यक्ति की अनिवार्यता । किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन किसी भी स्थिति में उसकी सहमति के बिना नहीं हो सकता तो प्रत्येक व्यक्ति के लिये किसी अन्य के साथ जुड़ना उसकी मजबूरी भी है ।

प्रत्येक इकाई प्रारम्भ से अन्त तक एक दूसरे के साथ स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा करती रहती है तथा प्रत्येक इकाई अपनी ऊपर वाली इकाई के साथ इस प्रकार जुड़ी रहती है कि उसकी स्वतंत्रता में कोई बाधा न हो । व्यक्ति परिवार से, परिवार गांव से, गांव राष्ट्र से तथा राष्ट्र विश्व व्यवस्था से जुड़ा रहता है । विश्व की कोई प्रत्यक्ष इकाई न होने से राष्ट्र ही अन्तिम इकाई होती है । इस तरह राष्ट्रीय व्यवस्था एक ओर तो अपनी आंतरिक इकाइयों की स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा की सुरक्षा करती हैं तो दूसरी ओर विश्व की अन्य राष्ट्रीय इकाइयों से प्रतिस्पर्धा भी करती हैं । इन प्रतिस्पर्धारत इकाइयों में दो प्रकार की इकाइयां होती हैं:- एक वे जो भौतिक सुख को अधिक महत्व देती हैं भले ही कर्ज ही क्यों न लेना पड़े और दूसरी वे जो आत्मनिर्भरता को अधिक महत्व देती हैं भले ही उसके लिये भौतिक कष्ट ही क्यों न उठाना पड़े । भारत मे स्वतंत्रता से मोदी पूर्व तक भौतिक सुख वाली नीति पर चलने की कोशिश हुई । आवागमन को अधिक से अधिक सस्ता और सुविधाजनक बनाया गया । इससे पर्यटन को बढ़ावा मिला । अनावश्यक आवागमन विलासिता के रूप से विकसित हुआ । आवागमन को सुविधाजनक रखने के लिये विदेशों से डीजल, पेट्रोल का खुला आयात किया गया । भारत में सब प्रकार की उपभोक्ता वस्तुओं को भी सस्ता बनाये रखने की कोशिश की गई । नीति बनी कि हमारे देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ती रहे जिसके परिणाम स्वरूप हमारे देश का उत्पादन भी बढ़ता रहे । यदि किसी उपभोक्ता वस्तु की कमी हुई तो तत्काल विदेशों से आयात करके उस कमी को दूर कर लिया गया । हमारे देश में खपत बढ़ाने की पूरी कोशिश हुई और उसके लिये न कभी आयात निर्यात के संतुलन की चिन्ता की गई न कभी कर्ज लेने की । हमेशा भारत विदेशों में गरीबी और सहायता के लिये कटोरा लेकर खड़ा दिखा । कभी भारत ने दुनियां के समक्ष प्रतिस्पर्धी रूप प्रगट नहीं किया । हमेशा विश्व के समक्ष अविकसित राष्ट्र की पहचान बनाकर रखी गई । रोजगार के लिये भी विदेशों के समक्ष खड़े रहना हमारा स्टेटस सिम्बल बना रहा । हम कभी अच्छे स्कूल या अच्छे अस्पताल विकसित नहीं कर सके क्योंकि निःशुल्क शिक्षा और निःशुल्क चिकित्सा की भावना ने कभी इन दोनों मामलों में हमें आत्मनिर्भर बनने ही नहीं दिया । रोजगार के मामले में भी हमने कभी श्रम के साथ नहीं जुड़ने दिया । मुफ्त राशन, मुफ्त पैसा देकर व्यक्ति को स्वयं प्रतिस्पर्धा की इच्छा से ही दूर कर दिया । परिणाम हुआ कि भारत आन्तरिक रूप से सुखी सम्पन्न तथा वैश्विक स्तर पर गरीब भिखारी के रूप में स्थापित हो गया ।

नई सरकार ने ज्यों ही दुनियां की स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा में कूदने की कोशिश की तो दुनियां को आश्चर्य हुआ । लेकिन भारत आगे बढ़ता रहा । स्वाभाविक था कि प्रतिस्पर्धा करने के लिये आत्मनिर्भर बनना ही होगा । हम दूसरे देशों के समक्ष मदद का कटोरा लेकर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते । हमें अपनी अर्थ व्यवस्था मजबूत करनी होगी । अर्थ व्यवस्था मजबूत होने का अर्थ है आयात निर्यात का संतुलन लेकिन हम लोगों ने उपभोक्ता वस्तुओं को आधार मान लिया जो गलत था । इसके लिये हमें उत्पादन बढ़ाना होगा तथा खपत घटानी होगी । हमें आयात घटाना और निर्यात बढ़ाना होगा । हमें अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं में कटौती करनी होगी । आत्मनिर्भर भारत के लिये अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है । सत्तर वर्षों से हमारी उपभोक्तावादी संस्कृति में बदलाव करना ही होगा । चीन और भारत लगभग एक साथ स्वतंत्र हुये । दोनों की भौगोलिक संरचना भी करीब-करीब एक सी है तो आबादी का घनत्व भी समान ही है । अन्तर है तो सिर्फ राजनैतिक प्रणाली का । चीन ने उत्पादन बढ़ाया उपभोग घटाया तो भारत ने उपभोग बढ़ाया और उत्पादन को महत्व न देकर आयात का सहारा लिया । चीन आर्थिक स्थिति में भारत से कई गुना आगे निकल गया । अब भारत के समक्ष चीन बाधाएं पैदा करने की हिम्मत कर रहा है और भारत मुकाबला नहीं कर पा रहा क्योंकि चीन ने उत्पादन बढ़ाकर भारत को निर्यात बढ़ाया तो भारत ने उपभोग बढ़ाकर चीन से आयात बढ़ाया ।

वर्तमान भारत सरकार ने अपनी पूरी प्राथमिकताएं बदल दी हैं । उसने सुखी भारत की जगह आत्मनिर्भर भारत की घोषणा कर दी है । अब भारत को आयात घटाने और निर्यात बढ़ाने की मजबूरी है क्योंकि आत्मनिर्भरता का यही मापदण्ड है । अब भारत को उत्पादन बढ़ाना और उपभोग घटाना होगा । अब उपभोग के लिये उत्पादन की नीति बदलकर निर्यात के लिये उत्पादन की नीति बनानी होगी । उपभोग कम करने के लिये सरकार को आयात एकदम कम करना होगा । इससे उपभोक्ता वस्तुएं कुछ महंगी होगी तथा अनावश्यक उपभोग घटेगा । इसके लिये स्वास्थ शिक्षा आदि का निजीकरण कर दीजिये ।

इससे सरकार के दायित्व कम हो जायेंगे । वर्तमान समय में गरीबों को जितनी सुविधा प्राप्त है वह पर्याप्त है । आगे कोई और सबसीडी बढ़ाने की जरूरत नहीं है । डीजल, पेट्रोल, बिजली को बहुत महंगा कर दीजिये । इससे आवागमन महंगा हो जायेगा तथा अनावश्यक आना जाना कम हो जायेगा ।

हमें दूसरा काम यह करना होगा कि उत्पादन बढ़ाने को तेजी से प्रोत्साहित करना होगा । इसके लिये उच्च तकनीक का भरपूर उपयोग करना होगा । व्यवस्था में लगे रोजगार प्राप्त लोगों को नौकरी से हटाकर उन्हें उत्पादन इकाइयों में सक्रिय करना होगा । रोजगार की प्राथमिकता नौकरी से बदलकर उत्पादन संस्कृति की दिशा में मोड़ना होगा । श्रम कानूनों को या तो समाप्त करना होगा या उत्पादन सहायक बनाना होगा । उत्पादन इकाइयों की एक बड़ी बाधा है भारत की अधिक ब्याज दर । भारत घाटे की अर्थव्यवस्था के कारण हमेशा मुद्रास्फीति से दबा रहता है । मुद्रास्फीति के कारण ब्याज दर बढ़ी रहती है और अधिक ब्याज उत्पादक इकाइयों को प्रभावित करता है । मुद्रास्फीति से मुक्त होना कोई कठिन कार्य नहीं है । तीसरी बात यह है कि उत्पादक इकाइयों को कानूनी बाधाओं से मुक्त कर दीजिये । कोई बड़ा कारखाना लगाने के पहले अनेक विभागों की बाधाएं दूर करने में ही कई वर्ष लग जाते हैं । इन अनावश्यक बाधाओं को हटाइये । आवागमन को बहुत महंगा और अधिकाधिक सुविधाजनक बनाइये । इससे अनावश्यक आवागमन घटेगा तथा आवश्यक आवागमन में समय की बहुत बचत होगी । आवागमन बहुत महंगा होने से लघु उद्योग फिर से शुरू हो जायेंगे, स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा और शहरीकरण भी घट जायेगा । इस तरह हम धीरे-धीरे देश का उत्पादन बढ़ा सकते हैं ।

भारत चीन की तरह उत्पादन बढ़ा सकता है और उपभोग भी घटा सकता है किन्तु चीन की प्रगति में बहुत बड़ी सहायक है वहाँ की तानाशाही व्यवस्था । चीन में शक्ति का दुरूपयोग नहीं है । हड़तालें नहीं होती । बातूनी बिचौलिये कम हैं । सरकार निकम्में लोगो की सीमा से अधिक चिन्ता भी नहीं करती और स्वतंत्रता भी नहीं देती । इस मामले में भारत का चीन की तरह होना न तो उचित है न संभव । भारत चीन की तरह तानाशाह नहीं बन सकता । फिर भी भारत में जिस ढंग का लोकतंत्र है उसमें संशोधन हो सकता है । लोकतंत्र की वर्तमान खर्चीली प्रणाली में बदलाव हो सकता है । हड़ताल, धरना, प्रदर्शन का स्वरूप बदला जा सकता है । न्यायपालिका का स्वरूप भी सुधार सकते हैं । सरकार स्थानीय इकाइयों को अधिकतम अधिकार सौंपकर उन्हें आत्मनिर्भर बना सकती है । पेशेवर शिकायत करने वालों पर भी लगाम लग सकती है । भारत अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत करके स्वतंत्रता के दुरूपयोग में कटौती कर सकता है । इससे भारत की बहुत उर्जा और संसाधनों की बचत होगी और हम आयात निर्यात का संतुलन बना सकेंगे ।

भारत आत्मनिर्भरता की घोषणा कर चुका है । भारत की वर्तमान सरकार लगातार आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ रही है । उम्मीद है कि भारत आत्मनिर्भर भारत को एक शस्त्र के रूप में उपयोग करके विश्व प्रतिस्पर्धा में महत्वपूर्ण भूमिका बनाने में सफल हो सकेगा ।