शादी विवाह को छोड़ दें तो बाकी सब मामलों में सामाजिक व्यवस्था में कहीं जाति भेद नहीं है‌।

मेरे विचार से भारत में अब समाज व्यवस्था में जातिवाद लगभग समाप्त हो चुका है। यदि आप शादी विवाह को छोड़ दें तो बाकी सब मामलों में सामाजिक व्यवस्था में कहीं जाति भेद नहीं है‌। अब तो धीरे-धीरे कर्म के अनुसार जातियां बढ़ रही हैं। जन्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह विचार लगभग समाप्त हो रहा है। सरकारी कानून के द्वारा जन्म अनुसार जाति को स्थापित करने की जीतोड कोशिश हो रही है लेकिन समाज उस व्यवस्था को मानने के लिए तैयार नहीं है। अभी-अभी आपने देखा होगा कि ब्राह्मण और यादव के बीच में इस बात पर विवाद हुआ की कथा कहने का अधिकार किसको है तो पूरे देश भर के आम लोगों ने इस विवाद को अस्वीकार कर दिया। आपने कुंभ मेले में भी देखा होगा कि कुंभ मेले में भी किसी प्रकार का जातीय भेदभाव नहीं था। कावड़ यात्रा में भी ऐसा ही नजारा दिख रहा है। अन्य स्थानों पर भी जो यज्ञ होते हैं किसी यज्ञ में इस तरह का कोई भेदभाव नहीं होता। एक दो प्रतिशत लोग अभी भी कानून का लाभ उठाने के लिए जातिवाद को प्रसार देते हैं। मैं तो हमेशा ही कर्म के अनुसार जाति मानता रहा। मेरे विचार से नई व्यवस्था में मार्गदर्शन, रक्षक, पालक और सेवक यह चार ही वर्ण माने जाएंगे इन वर्णों के अंतर्गत ही कर्म के अनुसार जातियां होगी। वकीलों की अलग जाती होगी डॉक्टरों की अलग जाती होगी किसान की अलग जाती होगी मजदूरों की अलग हो जाएगी। इस तरह अलग-अलग जातियां मानी जाएगी नेताओं की एक अलग जाति मान ली जाएगी। यदि हमारी राजनीतिक संवैधानिक व्यवस्था अब जातिवाद को प्रोत्साहित करना बंद कर दे तो बहुत जल्दी जातिवाद खत्म हो जाएगा और यदि राजनीतिक व्यवस्था इस बात के लिए तैयार नहीं होगी तो राजनीतिक व्यवस्था को ही बदल दिया जाए यही एक समाधान दिखता है। क्योंकि वर्तमान जातिवाद को अब लंबे समय तक ढोना किसी भी तरह अच्छा नहीं है।