हाथ-पैर तोड़ देना, अंग-भंग कर देना या हत्या करना अतिशयोक्ति है और ऐसे सुझाव न तो उचित हैं और न ही स्वीकार्य।
आज मैंने प्रज्ञा ठाकुर के उस सुझाव की निन्दा की थी जिसमें किसी धर्म विरोधी के साथ जाने वाली परिवार की लड़की के “हाथ-पांव तोड़ देने” की बात कही गई। कई साथियों ने अपने विचार दिए और अधिकांश ने मेरी बात से सहमति जताई। अधिकांश का मानना है कि परिवारों को कुछ हद तक दंड देने का अधिकार होना चाहिए। मैं भी मानता हूँ कि परिवारों को सीमित अधिकार मिलना चाहिए, पर यह अधिकार भी निरपेक्ष नहीं हो सकता — इसकी स्पष्ट सीमा होनी चाहिए।
हाथ-पैर तोड़ देना, अंग-भंग कर देना या हत्या करना अतिशयोक्ति है और ऐसे सुझाव न तो उचित हैं और न ही स्वीकार्य। मैं प्रज्ञा जी से पूछना चाहूँगा: क्या उन्होंने अपने जीवन में कभी बल प्रयोग किया है? क्या उनके सामने किसी अपराध की घटना आई है? क्या उन्होंने कभी किसी नज़दीकी से बल प्रयोग की बात कही? जिस राजनीतिक और सामाजिक संगठन से वे जुड़ी हैं, उसकी कई लड़कियाँ मुसलमान साथियों के साथ गई हैं — क्या उन लोगों ने कोई बड़ी गलती की? क्या उन परिवारों का हाथ-पांव तोड़ देना या उनका कत्ल करना सही है? क्या प्रज्ञा जी कह सकती हैं कि इन परिवारों ने—बल प्रयोग से बच कर—गलत किया?
दूसरों को ऐसे हिंसक और कानून-भंग करने वाले सुझाव देना, भले ही सुनने में तत्क्षण सुखद लगे, समाज को कानून तोड़ने के लिए प्रेरित कर सकता है। मेरी दृष्टि में यह ठीक नहीं है। मैं मानता हूँ कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कानून और सार्वजनिक व्यवस्था का सहारा लिया जाना चाहिए। मामूली बल-प्रयोग की परिस्थितियाँ अलग हो सकती हैं, पर अंग-भंग या हत्या जैसी क्रियाएँ न्यायोचित नहीं ठहराई जा सकतीं।
मैं अपने सभी साथियों से पुनः निवेदन करता हूँ: इस विषय को गंभीरता से सोचें। दूसरों को उपदेश देने और अपने ऊपर बीते अनुभव के बीच फर्क समझने की आवश्यकता है। कठिन परिस्थितियों में त्वरित उत्तेजना में आकर निर्णय लेना खतरनाक होता है — निर्णयों में सोच-विचार और संयम आवश्यक है।
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