हमने सेक्स के नाम पर समाज में इतने कठोर और अव्यावहारिक नियम बना दिए हैं, जिनका पालन सामान्य लोगों के लिए लगभग असंभव हो जाता है।
मेरा यह हमेशा से मानना रहा है कि हमने सेक्स के नाम पर समाज में इतने कठोर और अव्यावहारिक नियम बना दिए हैं, जिनका पालन सामान्य लोगों के लिए लगभग असंभव हो जाता है। परिणामस्वरूप, जब इन नियमों का कहीं उल्लंघन होता है, तो अपराधी और धूर्त लोग उसी को हथियार बनाकर अच्छे और ईमानदार लोगों को बदनाम करने लगते हैं।
ऐसा ही महात्मा गांधी के साथ हुआ, नेहरू जी के साथ हुआ, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. राम मनोहर लोहिया भी इससे अछूते नहीं रहे। विदेशों में भी यह प्रवृत्ति आम है—डोनाल्ड ट्रंप के मामले में हम यह देख ही रहे हैं। जापान सहित अनेक देशों में सेक्स को बदनाम करने के हथियार के रूप में खुलकर प्रयोग किया जाता है।
मेरे विचार से समस्या लोगों में नहीं है, समस्या हमारी सामाजिक मान्यताओं में है, जहाँ हमने सेक्स को अत्यधिक संवेदनशील और निषिद्ध विषय बना दिया है। मेरा अनुभव यह कहता है कि यदि कुछ अपवादस्वरूप लोगों को छोड़ दिया जाए, तो ऐसे लोग मिलना लगभग असंभव है जो जीवन भर अविवाहित और पूर्णतः ब्रह्मचारी रहे हों। यहाँ मैं नपुंसक व्यक्तियों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, बल्कि उन स्त्री-पुरुषों की बात कर रहा हूँ जो जैविक रूप से सेक्स के लिए सक्षम हैं।
मेरा सुझाव है कि हमें अपनी सेक्स संबंधी सामाजिक मान्यताओं पर पुनर्विचार करना चाहिए और उनमें आवश्यक सुधार करना चाहिए। सेक्स एक प्राकृतिक भूख है, एक मानवीय आवश्यकता है। इसे केवल अनुशासित किया जा सकता है, शासित नहीं। जो लोग बलपूर्वक सेक्स को रोकने का प्रयास करते हैं, वे वस्तुतः प्रकृति और मनुष्य—दोनों की समझ से वंचित हैं।
अतः मेरा मित्रों से निवेदन है कि किसी भी महिला या पुरुष की सेक्स के आधार पर तब तक आलोचना न की जाए, जब तक उसने कोई अपराध—विशेषकर बलात्कार जैसा जघन्य कृत्य—न किया हो।
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