जीव दया सिद्धांत
कुछ निष्कर्ष हैः-
1. कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत सीमा तक ही किसी अन्य पर दया कर सकता है, अमानत का उपयोग नहीं किया जा सकता। राजनैतिक सत्ता समाज की अमानत होती है, व्यक्तिगत नहीं।
2. समाज में चार प्रकार के लोग होते है- मार्गदर्शक, रक्षक, पालक और सेवक। मार्गदर्शक और पालक को प्रवृत्ति में दयालु होना चाहिए जबकि रक्षक और सेवक को दयालु प्रवृत्ति प्रधान नहीं होना चाहिए।
3. न्यायाधीश को प्राप्त शक्ति तंत्र की अमानत होती है। न्यायाधीश को किसी भी मामले में किसी के साथ दया करने का अधिकार नहीं है।
4. मनुष्य को छोडकर किसी अन्य जीव को मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है। पशु-पक्षी या पेड-पौधे का कोई मौलिक अधिकार नहीं होता।
5. समाज किसी भी पशु जीव पेड-पौधे को अवध्य घोषित कर सकता है किन्तु कोई वर्ग नहीं कर सकता। किसी वर्ग द्वारा घोषित किसी पशु पक्षी को सम्मान देना अन्य वर्ग की मजबूरी नहीं है।
6. जो लोग गाय को माता न समझ कर पशु समझते है उनकी स्वतंत्रता में तब तक बाधा नहीं पहुॅचाई जा सकती जब तक सम्पूर्ण समाज ने मान्य न किया हो।
7. सब प्रकार के जीवों के बीच संतुलन होना चाहिए। जीव दया का सिद्धांत असंतुलन पैदा करता है। दया या हिंसा करना व्यक्ति की स्वतंत्रता है, बाध्यता नहीं।
8. बंदर, कुत्ते और नील गायों की बढती संख्या अव्यवस्था फैलाती है। बंदर हनुमान का भी प्रतीक हो सकता है और बालि का भी।
9. भारत के वर्तमान कानूनों में दया का भाव अधिक होने के कारण अपराध भी बढ रहे है तथा आवारा पशुओं की संख्या भी अव्यवस्था फैला रही है। मेरा अपना अनुभव है कि जीव दया का सिद्धांत अधिक प्रभावी होने से अव्यवस्था फैलती है जैसा भारत में हो रहा है। सरकारों ने अनेक अनावश्यक कानून बना दिये है। पशुओं को किस प्रकार का कष्ट दिया जाये इसके भी नियम बनाये गये है। कोई व्यक्ति अमानवीय तरीके से अपने पशु को नहीं पीट सकता न हीं अमानवीय तरीके से काट सकता है। मुर्गे को काटा जा सकता है रेत-रेत कर जब्हा किया जा सकता है किन्तु ठूस-ठूस कर गाडी में नही भरा जा सकता क्योंकि कानून इसकी इजाजत नहीं देता। जब मनुष्य को छोडकर किसी भी अन्य जीव को मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं है तब सरकार ऐसे मामले में कानून कैसे बना सकती है। फिर भी सरकारे कानूनों का दखल बढा रही हैं। राज्य अनेक मामलों में दया करने का अपना अधिकार सुरक्षित रखता है जबकि राज्य की शक्ति समाज की अमानत है और समाज के निर्णय के बाद ही राज्य किसी के साथ दया कर सकता है, किन्तु वह करता है। यदि राज्य दया करने लग जायेगा तो समाज में अपराध और अव्यवस्था बढेगी ही वर्तमान समय में राज्य निरंतर ऐसा ही कर रहा है। मैं हिमाचल के एक गांव में गया था। मैंने देखा कि वहाॅ के आम लोग बंदरों से बहुत परेशान थे लेकिन वे धार्मिक भावना से बंदर को मार नहीं सकते थे और कानून भी उन्हें रोकता था। मैंने उन्हें सलाह दी कि आपको जो बंदर हनुमान सरीखा दिखे उसकी रक्षा किजिए और बालि सरीखा दिखे तो मार देना चाहिए क्योंकि भगवान राम ने भी ऐसे बंदर का वध किया था। बिहार और उत्तर प्रदेश में बडी संख्या में किसान नील गायों से परेशान है। मुख्यमंत्री नितिश कुमार ने इस समस्या को समझकर समाधान करना चाहा तो निकम्मे धर्म-प्रेमियों ने रोडा डालने का प्रयास किया। हमारे छत्तीसगढ के सरगुजा संभाग में हाथियों का उत्पात मचा हुआ है। जंगली हाथी प्रति वर्ष बडी मात्रा में फसलों को नुकसान करते है, ग्रामीणों के घर तोड देते है और सैकडों की संख्या में निरपराध लोगों की हत्या कर देते है। यदि ग्रामीण किसी आक्रामक हाथी की हत्या कर दे तो वह जेल में बंद कर दिया जायेगा किन्तु यदि हाथी किसी ग्रामीण की हत्या कर दे तो उसे सिर्फ दो लाख रूपये मुआवजा दिया जायेगा। दूसरी ओर ग्रामीण अगर किसी ट्रेन एक्सीडेंट में या दुर्घटना में मर जाये तो मुआवजा दो लाख से कई गुना अधिक मिल सकता है किन्तु हाथी के मारने पर दो लाख की भीख सरकार द्वारा दी जाती है। बडी संख्या में आवारा कुत्ते निर्दोष लोगों को काटते है और उसके लिये भारी संकट झेलना पडता है। मैं जब नगरपालिका का अध्यक्ष था तब मैंने आवारा कुत्तों को मरवाने का अभियान चलाया। अनेक तथाकथित दयालु लोग सामने आये कि कुत्तों को इस तरीके से निर्दयतापूर्वक मारना ठीक नहीं है। इन नासमझों ने कभी यह नहीं सोचा कि इन कुत्तों के काटे हुये लोग कितनी परेशानी झेल रहे है। जीव दया के नाम पर जिस प्रकार असंतुलन बढाया जा रहा है वह भारत के कृषि उत्पादन पर भी बहुत विपरीत प्रभाव डाल रहा है। मैं देख रहा हॅू कि गौ हत्या के नाम पर नर हत्या का भी समर्थन किया जा रहा है। गाय आपकी माता है, आवश्यक नहीं कि वह मेरी भी माता हो। गाय कोई धार्मिक प्रतीक नहीं है क्योंकि हिन्दू अपने को साम्प्रदायिक न मानकर समाज के रूप में मानता है अर्थात हिन्दुत्व जीवन पद्धति है सिर्फ पूजा पद्धति तक सीमित नहीं है। ऐसी स्थिति में गौ रक्षा का निर्णय समाज जब तक नहीं करता तब तक आप किसी को यह मजबूर नहीं कर सकते है कि वह गाय को माता माने। जीव दया के सिद्धांत में सबसे ज्यादा अव्यवस्था जैन लोगों ने की है। भगवान महावीर ने अपना वैचारिक और नैतिक प्रभाव डालकर दया और अहिंसा पाठ पढाया, कानून का सहारा कभी नहीं लिया। निकम्में दयावान लोग कानून के द्वारा दया भाव का विस्तार करना चाहते है जो एक गलत मार्ग है। अहिंसा और दया के एक पक्षीय प्रचार ने भारत का बहुत नुकसान किया। शत्रु के साथ कैसी दया कैसी अहिंसा? अहिंसा और दया भाव ज्ञान प्रधान तथा व्यवसायी प्रवृत्ति के लोगों तक सीमित रहना चाहिये। यदि राज्य भी अहिंसा और दया करने लगेगा तो गुलामी स्वाभाविक है। आज सारी दुनियां में यदि कट्टरवादी इस्लाम समस्या के रूप में खडा हो रहा है तो उसका मुख्य कारण यही अहिंसा और दया का भाव है। स्पष्ट नीति बननी चाहिेये कि राज्य का काम अहिंसा या दया करना नहीं है क्योंकि राज्य को दी गई शक्ति समाज की अमानत है और राज्य का दायित्व सुरक्षा और न्याय। उसके लिए आवश्यक है कि हिंसा और दया के बीच संतुलन हो। यदि असंतुलन होता है तो राज्य को ऐसा संतुलन बनाने के लिए समुचित हिंसा का उपयोग करना चाहिए। जो विचारक या व्यवसायी हैं उन्हें दया और अहिंसा को अपनाना चाहिये किन्तु कभी राज्य पर दबाव नहीं बनाना चाहिये कि वह अहिंसा और दया को नीतियों का आधार बनाये। मेरे विचार से वर्तमान भारत में दयाभाव का विस्तार एक समस्या के रूप में विस्तार पा रहा है। इसे समाधान के रूप में आना चाहिए।
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