’’कौन शरणार्थी कौन घुसपैठिया’’
कुछ मान्य धारणाएं हैः-
(1) व्यक्ति और समाज मूल इकाईयां होती हैं। परिवार, गांव, जिला, प्रदेश और देश व्यवस्था की इकाईयां है।
(2) किसी भी इकाई में सम्मिलित होने के लिए उस इकाई की सहमति आवश्यक है चाहे वह इकाई परिवार हो, गांव हो अथवा देश।
(3) देश या राष्ट्र व्यवस्था की अंतिम इकाई नहीं होते हैं क्योंकि संपूर्ण विश्व-समाज ही व्यवस्था की अंतिम इकाई होता है। वर्तमान समय में विश्व व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने से राष्ट्र को संप्रभुता संपन्न इकाई मान लिया गया है।
(4) किसी अन्य देश का नागरिक यदि अपना देश छोड़कर किसी अन्य देश में जाता है तो उसके तीन कारण हो सकते हैंः-
(क) जीवन पर संकट (ख) सुविधाओं का अंतर (ग) राजनीतिक सामाजिक षड्यंत्र।
(5) दुनियां में मुसलमान अकेला ऐसा समुदाय है जो अन्य समुदायों की तुलना में सामाजिक धार्मिक षड्यंत्रों के आधार पर दूसरे देश में अधिक पलायन करता है।
(6) अन्य सभी सम्प्रदायों की तुलना में मुसलमान सहजीवन सर्व-धर्म समभाव की अपेक्षा संगठन और धार्मिक संख्या-विस्तार को अधिक महत्व देता है।
(7) वर्तमान समय में पूरी दुनियां के समक्ष संगठित इस्लाम सबसे बड़ी समस्या है। भारत के लिए तो यह समस्या खतरनाक स्वरुप धारण कर चुकी है।
भारत में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है कि वे शरणार्थी हमारे अस्थाई मेहमान हैं या घातक शत्रु? जो लोग किसी तरह की वैधानिक सहमति या स्वीकृति लेकर भारत में आए हैं उनके संबंध में हम कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं। हम तो चर्चा सिर्फ उन लोगों की कर रहे हैं जो बिना अनुमति के, छिपकर चोरी से भारत में घुस आए हैं और रह रहे हैं। स्वाभाविक है कि सामान्य रूप से ये सब घुसपैठिए ही माने जाएंगे किन्तु यदि गहराई से विचार किया जाए तो उनमें से कुछ लोग ऐसे होंगे जो किसी खतरे से बचाव के लिए भारत में प्रवेश किए होंगे। कुछ ऐसे भी लोग हो सकते हैं जिन्हें बांग्लादेश की तुलना में भारत में अधिक भौतिक सुविधाएं मिल रही हों तथा कुछ अल्प संख्या ऐसे भी लोगों की हो सकती है जो भारत में किसी षड्यंत्र के अंतर्गत आए हो।
यदि सामान्यतः देखा जाए तो जो भी हिंदू बांग्लादेश से भागकर भारत आए है वेे किसी न किसी संकट के कारण यहां आए हैं। स्पष्ट है कि वे या तो वहां से भगाए गए हैं या डर कर भाग आए हैं जो भी मुसलमान भागकर आए हैं उनमे शायद ही कोई ऐसा हो जो किसी भय के कारण भारत आया हो। आमतौर पर वह सुविधाओं के लालच में भारत आया है लेकिन यह बात भी साफ है कि वह भारत में कुछ समय तक रह जाने के बाद भारत के संगठित मुसलमानों के साथ जुड़ जाता है धार्मिक मुसलमानों के साथ बिल्कुल नहीं जुड़ता। इस तरह यह बात लगभग निश्चित है कि वह भारत के लिए साम्प्रदायिक समस्याओं के विस्तार में सहयोगी बन जाता है समाधान नहीं।
स्पष्ट है कि बाहर से आए हुए अवैध हिन्दू भारत में शरणार्थी माने जाने चाहिए और उन्हें बिना जांच-पड़ताल किए नागरिकता प्रदान कर देनी चाहिए क्योंकि वे या तो भगाए जाने के कारण आये हैं अथवा डरकर। जो भी मुसलमान आए हैं उन लोगों की गंभीरता से जांच होनी चाहिए और यदि उनमें से किसी के विषय में यह प्रमाणित हो जाता है कि उसको कोई खतरा था तब उस पर परिस्थितियों के अनुसार विचार किया जा सकता है. किंतु जो मुसलमान सुविधाओं के लालच में भारत आए हैं उन्हें पूरी तरह घुसपैठिया मानकर देश से निकाल देना चाहिए. क्योंकि भविष्य में वे भारत की सामाजिक समरसता को नुकसान पहुंचाएंगे ही। इस संबंध में यदि कोई कानूनी या संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता पड़े तो वह भी करना चाहिए। यह समस्या सिर्फ आसाम तक सीमित नहीं है बल्कि भारत के हर क्षेत्र में गांव-गांव तक इस समस्या का विस्तार हुआ है।
पूरी दुनियां के लिए संगठित इस्लाम हिंसा और आतंक का पर्याय बन गया है चाहे पश्चिम के देश हो अथवा साम्यवादी रूस और चीन। सभी इस खतरे को दुनियां का सबसे बड़ा खतरा समझ रहे हैं। भारत के लिए यह खतरा और भी अधिक गंभीर है। यदि वर्तमान स्थिति का ठीक-ठीक आकलन किया जाए तो संगठित और हिंसक इस्लाम भारत की सबसे बड़ी समस्या है और इसे आपातकाल मानकर सारी शक्ति इस समस्या के समाधान में लगनी चाहिए। यह खतरा इसलिए और भी अधिक गंभीर हो जाता है कि भारत के मजबूत पड़ोसी देशों की भारत को अस्थिर करने में गंभीर रूचि है और भारत का संगठित इस्लाम उनके लिए सहायक हो सकता है। मरता हुआ भारत का साम्यवाद इस संगठित इस्लाम को अपना संरक्षक समझकर उसके साथ मजबूती से खड़ा हुआ है। इन दोनों का तालमेल पूरा प्रयत्न कर रहा है कि येन केन प्रकारेण अन्य समुदायों को विभाजित करके उन्हें टुकड़ों में बांट दिया जाए। वे अन्य समुदायों के बीच सवर्ण-अवर्ण, हिंदू-ईसाई-सिख आदि के नाम पर मतभेद पैदा करके विभाजन के लिए दिन-रात सक्रिय रहते हैं। दूसरी ओर हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल राजनीतिक स्वार्थ के लिए ऐसी अस्पष्ट भाषा बोलते हैं जिससे साम्यवादी व संगठित इस्लाम के गठजोड़ को अप्रत्यक्ष सहायता मिलती है। वर्तमान समय चुनावों के हिसाब से निर्णायक वर्ष है और काफी सोच समझकर निष्कर्ष निकालने की आवश्यकता है।
वर्तमान चुनावों में साफ-साफ धु्रवीकरण होना चाहिए जिसमें एक तरफ वे लोग हों जो संगठित इस्लाम और साम्यवादीे गठजोड़ को सबसे बड़ा खतरा समझते हैं तो दूसरी ओर वे लोग हों जो इस गठजोड़ को अपनी राजनीतिक सत्ता के लिए सहायक मानते हों। जो लोग कश्मीर के संबंध में ढुलमुल हो, बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के प्रति सहानुभूति रखकर हिंदू शरणार्थियों को भी उन्हीं की श्रेणी में रखने की भाषा बोलते हों, म्यामार से आए मुस्लिम शरणार्थियों को मानवीय आधार पर भारत में रखे जाने की वकालत करते हों, भारत में समान नागरिक संहिता का विरोध करके अल्पसंख्यक बहुसंख्यक धारणा को मजबूत करते हों, या कश्मीर के संबंध में बातचीत की वकालत करते हो इस प्रकार के लोगों से पूरा सावधान रहने की जरूरत है। क्योंकि ऐसे लोग या तो खतरे को ठीक से समझ नहीं रहे अथवा राजनीतिक स्वार्थ के लिए जयचंद की भूमिका निभा रहे हैं। साथ-साथ ऐसे लोगों से भी सावधान रहने की जरूरत है जो वर्तमान समय में सवर्ण-अवर्ण का मुद्दा उठाकर अप्रत्यक्ष रूप से संगठित इस्लाम व साम्यवादी गठजोड़ को लाभ पहुंचा रहे हैं। ऐसे नासमझ लोगों को भी समझाने की आवश्यकता है।
खतरा बहुत बड़ा है और भारत के लिए इस पार या उस पार का निर्णायक समय है। वर्तमान समय यह विचार करने का नहीं है कि राफेल डील में भ्रष्टाचार हुआ कि नहीं नोटबंदी से फायदा हुआ कि नुकसान, न्याय पालिका चुनाव आयोग आदि संस्थाओं की स्वायत्तता पर खतरा है कि नहीं, विपक्षी दलों के अस्तित्व पर संकट है या नहीं, अर्थव्यवस्था ऊपर जा रही है या रसातल में जा रही है। वर्तमान समय तो सिर्फ एक प्रश्न का उत्तर खोजने में है कि भारत में साम्यवादी व संगठित इस्लाम के संभावित खतरे से कौन निपट सकता है और उसके लिए कौन प्रयत्नशील हो सकता है। वर्तमान समय में भारत के लोकतंत्र को कोई खतरा है या नहीं यह प्रश्न भी महत्व नहीं रखता है क्योंकि साम्यवादी व संगठित इस्लाम का गठजोड़ अव्यवस्था का विस्तार करेगा, वर्ग समन्वय की जगह वर्ग विद्वेष पैदा करेगा, व गृह युद्ध की परिस्थितियां पैदा करेगा जिसका निश्चित परिणाम तानाशाही है। चाहे वह तानाशाही शरीयत की हो या साम्यवादी हम किसी भी परिस्थिति में इस प्रकार के खतरे को नहीं झेल सकते हैं. अंत में मेरा सुझाव है- 1400 वर्षों के बाद दुनिया को यह महसूस हुआ है कि संगठित इस्लाम दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा है. इस खतरे से निपटने में भारत का अपना भी हित निहित है और विश्व का भी. इस संकट काल में किसी भावना में बह कर मानवता के नाम पर अथवा, राजनीतिक स्वार्थ में की गई उनकी कोई भूल देश व संपूर्ण विश्व -समाज को निर्णायक नुकसान पहुंचाएगी, इसके प्रति सावधान होकर निर्णय करना चाहिए।
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