कश्मीर समस्या

कुछ सर्व स्वीकृत सिद्धांत हैं।

  1. कश्मीर समस्या दो देशों के बीच कोई बॉर्डर विवाद नहीं है बल्कि विश्व की दो संस्कृति दो विचारधाराओं के बीच का विवाद है।
  2. जब अल्पसंख्यक संगठित होकर बहुसंख्यक असंगठितों को अलग-अलग दबाते हैं या ठगते हैं और कभी इन असंगठितों को संगठित के रूप में ऐसा आभास हो जाता है तो संगठित अल्पसंख्यक लंबे समय के लिए अविश्वसनीय हो जाते हैं।
  3. असंगठित विश्व से संगठन की ताकत पर निरंतर लाभ उठाने वाला इस्लाम पूरी दुनियां में एक साथ अविश्वसनीय हो गया है।
  4. कोई भी व्यक्ति, व्यक्ति समूह या संगठन किसी विवाद के निपटारे के लिए सामाजिक न्याय या बल प्रयोग में से एक का ही सहारा ले सकता हैं दोनों का नहीं।
  5. भारत के 70 वर्षों के शासनकालों में अल्पसंख्यकों और सत्तारूढ़ो के बीच अघोषित समझौता होने के कारण कश्मीर समस्या फलती-फूलती रही।
  6. कश्मीर के संबंध में भारतीय मुसलमानों के बहुमत की निष्ठा या तो निष्क्रियता रही है या संदेहात्मक।
  7. भारत का मुसलमान भी दुनियां के मुसलमानों की तरह ही राष्ट्र की तुलना में संगठन को अधिक महत्वपूर्ण मानता है।
  8. यदि किसी अन्यायी के साथ कोई अन्य अन्याय करता है तो या तो हमें चुप रहना चाहिए या कमजोरों का साथ देना चाहिए। न्याय-अन्याय महत्वपूर्ण नहीं।
    कश्मीर समस्या का पुराना इतिहास रहा है। भारत के मुस्लिम बहुमत ने धर्म के आधार पर भारत के विभाजन की जिद्द की जिसे अंग्रेजों ने मान लिया। जहां-जहां अंग्रेजों का प्रत्यक्ष शासन था उन क्षेत्रों को भारत व पाकिस्तान में धर्म के आधार पर बांट दिया गया किन्तु जहां-जहां राजा थे उन क्षेत्रों के राजाओं को स्वतंत्र मान लिया गया कि वे भारत में या पाकिस्तान में चाहे तो मिल सकते हैं अन्यथा अलग भी रह सकते हैं। ऐसे करीब 500 स्वतंत्र राज्यों में से कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ को छोड़कर बाकी सबने भारत या पाकिस्तान में से किसी एक का चुनाव कर लिया। यह तीन टाल-मटोल करते रहे। जूनागढ़ पर भारत ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया। हैदराबाद की जनता हिंदू थी, राजा मुसलमान। वहां आर्य समाज के नेतृत्व में हिंदुओं ने विद्रोह कर दिया और भारतीय सेना की सहायता से हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। कश्मीर में मुस्लिम बहुमत था और राजा हिंदू था। राजा भी भारत-पाकिस्तान में ना मिलकर स्वतंत्र रहने की सोच रहा था तभी पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और कश्मीर के राजा ने संभावित हार के डर से कश्मीर का भारत में विलय कर दिया। इस तरह संवैधानिक आधार पर भारत में कश्मीर का विलय हो गया किंतु कुछ भाग पाकिस्तान के कब्जे में था और पाकिस्तान कश्मीर के विलय को मान्यता न देकर युद्धरत रहने का इच्छुक था। इसलिए यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में चला गया और राष्ट्र संघ ने जनमत संग्रह की सलाह दी जिसे भारत ने स्वीकार कर लिया। उस समय कश्मीर की मुस्लिम आबादी हिन्दु राजा के पक्ष में थी और स्पष्ट दिखता था कि जनमत संग्रह में भारत का पक्ष मजबूत रहेगा। इसी बीच गांधी की हत्या हो जाती है और पाकिस्तान को यह अवसर मिलता है कि वह कश्मीर के मुसलमानों को हिन्दुओं के विरूद्ध लामबंद कर सके। धीरे-धीरे स्थितियॉ बदलती गयीं और जनमत संग्रह टलता गया। पाकिस्तान को चाहिए था कि वह संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिक जोर शोर से बात उठाता और उस पर पूरा विश्वास करता किंतु पाकिस्तान ने एक-दूसरा मार्ग भी अपनाया और भारत से बलपूर्वक कश्मीर छीनने का प्रयास किया। यहॉ से विश्व जनमत में पाकिस्तान का पक्ष कमजोर हुआ। न पाकिस्तान ताकत के बल पर कुछ हासिल कर पाया न ही विश्व -व्यवस्था के माध्यम से।
    प्रशांत भूषण ने कश्मीर में जनमत संग्रह को न्याय संगत बताया। यह बात न्यायसंगत दिखती भी है किंतु प्रशांत भूषण की आवाज के विरूद्ध देश भर में विपरीत प्रतिक्रिया हुई क्योंकि प्रशांत भूषण तटस्थ व्यक्ति न माने जाकर वामपंथी अल्पसंख्यक पक्ष के वकील के रूप में माने जाते है। साथ ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कश्मीर समस्या दो देशो के बीच कोई बार्डर समस्या नहीं है बल्कि एक मुस्लिम विस्तारवादी संस्कृति से अन्य संस्कृतियों की सुरक्षा का प्रश्न है। मुसलमान जहॉ बहुमत में होता है वहॉ शरीया का शासन लागू करता है और जहॉ अल्पमत में होता है वहॉ या तो बराबरी का व्यवहार चाहता है या न्याय संगत। भारत अकेला ऐसा देश है जहॉ का मुसलमान अल्पसंख्यक होते हुए भी अपने लिए विशेषाधिकार की सुविधा प्राप्त करता रहा और संवैधानिक आधार पर प्राप्त सुविधाओं से हिन्दुओं को दुसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखा। स्वाभाविक था कि कश्मीर के मुसलमानों का भी हौसला बढता रहा और वे भी उस दिन की प्रतीक्षा करते रहे जब भारत दारूल इस्लाम बन जायेगा। इस दारूल इस्लाम के संघर्ष में भले ही पाकिस्तान कश्मीरी मुसलमानों के साथ प्रत्यक्ष दिखता हो किन्तु कश्मीरियों को दुनियां भर के सांप्रदायिक मुसलमानों की सहानुभूति मिलती रही। मैं आपको स्पष्ट कर दूॅ कि मुस्लिम देश सांप्रदायिक नहीं होते है बल्कि सांप्रदायिक भावना व्यक्तिओं में होती है और वहीं सांप्रदायिक भावना संगठित होकर राष्ट्र की पहचान बन जाती है। यदि कोई मुस्लिम बहुल देश आम मुस्लिम धारणा के विरूद्ध न्याय की बात करने लगे तो वह लम्बे समय तक नहीं टिक पाता। भले ही राजनैतिक परिस्थितिओं के कारण बहुत से मुस्लिम देश भारत के पक्ष में रहे किन्तु उन देशो के कट्टरवादी मुसलमानों की सहानुभूति व सक्रियता कश्मीर के मामलों में भारत के विरूद्ध रही। 1500 वर्षो में आम मुसलमानों के बीच यह धारणा मजबूती से स्थापित है कि वे यदि टकराते रहेंगे तो अंतिम लडाई वहीं जीतेगे क्योंकि खुदा उनके साथ है। न्याय-अन्याय अथवा सामाजिक सोच उनके लिए कोई मतलब नहीं रखती। यही कारण है कि दुनियां के अन्य समूह लम्बे समय तक लडने के बाद हित-अहित का ऑकलन करते है और लडाई छोड देते है किन्तु मुस्लिम समूह बर्बाद होने तक भी लडते रहते है क्योंकि उन्हें विश्वास है कि जीतेगें वही। प्रशांत भूषण को यह बात समझनी चाहिए थी कि कश्मीर समस्या न तो बार्डर समस्या है न ही न्याय-अन्याय से जुडा कोई मामला। यदि कश्मीर पाकिस्तान को दे दिया जाए तब भी किसी समस्या का समाधान नहीं होगा क्योंकि लडाई दारूल इस्लाम की धारणा से है। युद्ध का नया मैदान या तो कश्मीर से हटकर पंजाब की ओर बढ जायेगा अथवा आसाम में नया मोर्चा खुल जायेगा। जब युद्ध होना निश्चित ही है तब कश्मीर में न्याय-अन्याय की बात करना एक आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण कदम होगा। 70 वर्षो तक भारत ने तृष्टिकरण का राजनैतिक खेल खेलकर कश्मीर समस्याओं को मजबूत होने दिया। अब ऐसी भूल नहीं दोहरानी चाहिए।
    सारी दुनियां के लिए कश्मीर एक लिटमस टेस्ट की तरह है। आजतक दुनियां में मुसलमानों ने कहीं भी हार नहीं मानी भले ही कितना भी लम्बा युद्ध क्यों न चला हो। कश्मीर में उनके अस्तित्व की लडाई है। यहॉ का वातावरण उनके लिए परिस्थितियों के विपरीत है। दुनियां भर में उनकी विश्वसनीयता घट रही है। राजनैतिक समीकरण उनके विरूद्ध जा रहे है। मुस्लिम देश आम मुस्लिम धारणाओं के विपरीत आपस में ही बंटे हुए है। ऐसी स्थिति में उनके समक्ष कश्मीर में हार जाने का खतरा मंडरा रहा है। यदि कश्मीर में वे हार मानकर सहजीवन स्वीकार कर लेते है तो उनका 1400 वर्षों का विश्वास चूर-चूर हो जायेगा कि खुदा उनके साथ है और अंतिम विजय उनकी होगी। दूसरी ओर भारत में आबादी की दृष्टि से भी वे बहुत कम है और सरकार भी अब बदल गयी है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के मुसलमानों में भी बहुत बडा वर्ग अब सहजीवन की आवष्यकताओं को भी समझने लगा है। वह मानने लगा है कि उसे भारत में ही रहना है और कश्मीर के नाम पर किसी प्रकार का विवाद न ही न्यायसंगत है न ही उसके हित में है। ऐसे बदले वातावरण में अब कुछ सांप्रदायिक तत्व बातचीत से समाधान की वकालत करते दिखते है। स्पष्ट मानिए कि जो लोग बातचीत से कष्मीर समस्या का समाधान करने की बात करते है वे पूरी तरह गलत है और निराश भी है। उन्हें साफ-साफ दिख रहा है कि कष्मीर की लडाई में भारत पक्ष सब ओर मजबूत हो रहा है और बातचीत का कोई मार्ग ही कुछ उम्मीद जिंदा रख सकता है।
    कष्मीर समस्या भारत की बडी समस्या है क्योंकि सारी दुनियां की शाति का भविष्य कश्मीर पर टिका हैं। जो लोग कश्मीर में अब भी भारत के विरूद्ध टकराव की उम्मीद लगाये बैठे है ऐसे लोगों को न्याय-अन्याय की परवाह किए बिना नष्ट कर देने का प्रयत्न कर देना चाहिए। जो लोग कश्मीर में शांति पूर्ण वार्ता की वकालत करते है ऐसे लोगों का सामाजिक बाहिष्कार होना चाहिए। साथ ही भारत के जो मुसलमान कश्मीर मामले में अब भी चुप है उन्हें खुलकर भारत के साथ अपना पक्ष रखना चाहिए। कष्मीर तो भारत में ही रहेगा। कहीं ऐसा न हो कि कश्मीर को ले जाते-ले जाते कुछ ओर भी क्षेत्र भारत में शामिल न हो जाये।
    मंथन का अगला विषय बालिग मताधिकार होगा