लिव इन रिलेशन और विवाह प्रणाली
लिव इन रिलेशन शिप और विवाह प्रणाली
एक लडकी को प्रभावित करके कुछ मित्र उसका धर्म परिवर्तन कराते है तथा परिवार की सहमति के बिना किसी विदेशी मुस्लिम युवक से उसका विवाह करा देते है जो उसकी सहमति से होता है । वह लडकी विदेश जाने का प्रयास करती है तब मामला परिवार के लोग न्यायालय मे ले जाते है और सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध मे सीबी आई जांच शुरू कराता है कि क्या कोई आतंकवादी षणयंत्र तो नही है। यदि षणयंत्र नही है तो उक्त विवाह मान्य है । एक दूसरी 19 वर्ष की लडकी अपने प्रेमी के साथ विदेश जाने का प्रयास करती है और हवाई अडडे पर उसे माता पिता के आने की जानकारी होती है तो वह माता पिता से छिपने के लिये बुर्का पहन लेती हे और प्रेमी के साथ जाने का प्रयास करती है। विचारणीय प्रश्न यह है कि बालिग होने के बाद व्यक्ति पर माता पिता और समाज का कोई अधिकार है या नहीं।
वर्तमान समय मे लिव इन रिलेशन शिप की भी नई प्रथा शुरू हो गई है। यह प्रथा पूरी तरह विवाह प्रणाली से भिन्न है। इससे कोई भी दो वयस्क स्त्री पुरूष कभी भी कितने भी समय तक बिना विवाह किये पति पत्नी की तरह रह सकते है। कोई कानून उन्हें रोक नही सकता । ऐसा लगता है कि विवाह के नाम पर बने अनेक कानूनी या सामाजिक बंधन इन प्रथा के सामने अनावश्यक हो जायेंगे। क्योंकि इसमे व्यक्ति को असीम स्वतंत्रता प्राप्त है। न्यायालयो ने भी बिना सोचे समझे इन मामलो मे अपने निर्णय सुना दिये हैं।
विषय बहुत गंभीर है । मेरे विचार मे कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्षो के आधार पर विचार करना होगा।
1 सेक्स प्रत्येक व्यक्ति की प्राकृतिक भूख है। सेक्स सिर्फ इच्छा ही नही बल्कि आवश्यकता भी है। उसे बल पूर्वक नहीं रोका जा सकता।
2 सेक्स की असीम स्वतंत्रता नही दी जा सकती और समाज का कर्तब्य है कि वह विवाह पद्धति के माध्यम से सेक्स को व्यवस्थित और अनुशासित करे।
3 जबतक बलात्कार न हो तब तक राज्य को महिला पुरूष के बीच आपसी संबंधो के मामले मे किसी भी प्रकार का कोई कानून नही बनाना चाहिये।
4 परिवार के किसी भी सदस्य पर विशेषकर अवयस्क पर तेतीस प्रतिशत परिवार का तेतीस प्रतिशत समाज का तथा तेतीस प्रतिशत राज्य का हस्तक्षेप होना चाहिये।
5 विवाह पद्धति एक ऐसी सामाजिक प्रथा है जिसमे वर वधु की स्वीकृति, परिवार की सहमति तथा समाज की अनुमति आवश्यक होती है। यदि इन तीनो मे से किसी एक का अभाव है तो वह आदर्ष विवाह नही माना जा सकता।
उपरोक्त तथ्यो के आधार पर कहा जा सकता है कि विवाह प्रणाली की वर्तमान अव्यवस्था के लिये सभी पक्ष कुछ न कुछ दोषी हैं, किन्तु सत्ता पक्ष अकेला सबसे अधिक दोषी है। उसने हर मामले मे अपना पैर फंसा रखा है और किसी भी मामले मे निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सका। सहमत सेक्स के मामले मे राज्य को कोई हस्तक्षेप नही करना चाहिये। किन्तु वेश्यावृत्ति बार-बालाओ तक के मामले मे राज्य हस्तक्षेप करता है। महिला सशक्तिकरण के नाम पर महिला और पुरूष के बीच जो गंभीर विवाद बढाये जा रहे है वे निरंतर हिंसा की तरफ बढ रहे हैं। बहुत बडा खतरा पैदा हो गया है कि लिव इन रिलेशन शिप मे वर्षो से एक साथ रह रही महिला कभी भी बलात्कार का आरोप लगा सकती है। कोई भी पुरूष किसी भी महिला को सेक्स का प्रस्ताव मात्र दे दे तो उसे किसी भी सीमा तक कटघरे मे खडा किया जा सकता है। विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है किन्तु इसे भी अनावश्यक रूप से संवैधानिक व्यवस्था मान लिया गया। कोई स्त्री या पुरूष यदि एक साथ न रहना चाहे तो उसे कोई कानून एक मिनट भी एक साथ रहने के लिये बाध्य नही कर सकता । किन्तु भारत के कानून उन्हे इसके लिये मजबूर करते है। कोई दो लोग आपसी सहमति से प्रतिबंधित रिश्तो मे भी संबंध बनाते है तो कानून को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नही है। किन्तु वर्तमान मे है। जब भी किसी बालक बालिका के भीतर कामइच्छा अनियंत्रित हो जाये तो उसे नाबालिक मानकर अपनी भूख मिटाने को बाध्य करना राज्य के लिये उचित नही। किन्तु राज्य परिवार औेर समाज के विरूद्ध जाकर विवाह की उम्र बढाता घटाता है जो राज्य का काम नही है। विचारणीय है कि सेक्स के मामले मे हो रही अधिकांश आपराधिक घटनाए राज्य की इन गलतियो का परिणाम मात्र है।
जब यह मान्य तथ्य है कि सेक्स सिर्फ इच्छाए ही नही बल्कि आवश्यकता भी है तो एक तरफ तो सामाजिक वातावरण के कारण इच्छाए बढ रही है तो दूसरी ओर आवश्यककता की पूर्ति घट रही है। विवाह की उम्र मनमाने तरीके से बढाई जा रही है जबकि आवश्यकताओ की उम्र घट रही है। प्राचीन समय मे विवाह की उम्र चैदह वर्ष थी तो अब उसे बारह होना चाहिये था किन्तु उसे बढाकर अठारह और इक्कीस कर दिया गया। उसमे भी व्यक्ति परिवार और समाज को बिल्कुल बाहर कर दिया गया है। विवाह समाज शास्त्र का विषय है किन्तु राजनीति शास्त्र ने इस विषय पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया। अब यह होना चाहिये कि यदि बारह वर्ष से अधिक उम्र के लडके लडकी सेक्स की इच्छा को न रोक पा रहे हो तो परिवार और ग्राम सभा की स्वीकृति से सरकार इसे विशेष परिस्थिति मानकर स्वीकृति दे। यदि उम्र ही बारह कर दिया जाय तो अधिक अच्छा है।
वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था मे व्यक्ति को राष्ट्रीय संपत्ति के समान मान लिया गया है जबकि परिवार समाज और राज्य की मिश्रित व्यवस्था से व्यक्ति संचालित होना चाहिये। किसी लडकी को 18 वर्ष तक खिला पिलाकर पढा लिखाकर क्या परिवार और समाज यह उम्मीद न करे कि वह अपने विवाह मे इनसे सलाह ले। मै मानता हॅू कि अंतिम निर्णय लडके और लडकी का ही होगा और उसे कोई अन्य एक साथ रहने से नही रोक सकता। किन्तु यह कैसे संभव है कि बालिग होते ही वह मनमाने निर्णय लेने लग जाये और परिवार की भूमिका शुन्य हो जाये । कोई लडकी किसी के साथ संबंध बना सकती है, किन्तु ऐसा संबंध विवाह नही माना जा सकता क्योकि उस संबंध को पारिवारिक और सामाजिक स्वीकृति नही है। राज्य द्वारा ऐसे संबंध का नाम विवाह कर देना विवाह शब्द का दुरूपयोग है। वास्तव मे इस संबंध को ही लिव इन रिलेशन शिप कहा जाना चाहिये। कोई लडकी स्वतंत्रता से अपना पति घोषित कर सकती है, किन्तु बिना परिवार की सहमति के उसके माता पिता, सास ससुर कैसे हो गये? उसका परिवार ससुराल कैसे बन गया? परिवार की संपत्ति मे उसका स्वतंत्र हिस्सा कैसे हो गया? यदि इस तरह की प्रणाली लम्बे समय तक चली तो ऐसी संतानो को बचपन मे ही समाप्त कर देने की प्रथा को आप कैसे रोक सकेगे। प्रेम विवाह एक बुराई है। उसे बल पूर्वक नही रोका जा सकता किन्तु उसे प्रोत्साहित करने की जगह निरूत्साहित करना चाहिये । आज यह भी एक बडी समस्या बन गई है कि उसे प्रोत्साहित किया जा रहा है। प्रेमिका पत्नी और लिव इन रिलेशन मे बहुत फर्क होता है। विवाह सेक्स, संतान प्रशिक्षण, परिवारिक सहजीवन की ट्रेनिंग तथा माता पिता के कर्ज से मुक्ति का मिला जुला स्वरूप है। प्रेमिका के साथ संबंध मे सेक्स तो है किन्तु अन्य तीन गायब हैं क्योकि वह कार्य पत्नी परिवार ओर समाज से छिपा कर होता है। लिव इन रिलेशन शिप मे संतानोत्पत्ति है किन्तु माता पिता से कर्जमुक्ति और सहजीवन की ट्रेनिंग नही है। ऐसी स्थिति मे विवाह ही एक मात्र आदर्ष व्यवस्था है जिसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। किन्तु वर्तमान मे कुछ पश्चिम की ऐसी अन्धनकल शुरू हुई है कि सबसे ज्यादा विवाह प्रणाली के साथ ही छेडछाड ह रही है। आज तक यह समझ मे ही नही आया, न मेरी समझ मे आया न आप समझ पाये होंगे कि हमारी राज्य व्यवस्था महिला और पुरूष के बीच दूरी घटाने की पक्षधर है या बढाने की । क्या राज्य को यह निर्णय करने की स्वतंत्रता व्यक्ति परिवार ओर समाज पर छोडकर स्वयं को बाहर नही कर लेना चाहिये? मै तो समझता हूँ कि राज्य ही इस समस्या को उलझाने मे सबसे अधिक सक्रिय है। प्राचीन समय मे समाज बहिष्कार के माध्यम से इस समस्या को अनुशासित करता था । जब भारत मुसलमानो का गुलाम हुआ तो मुस्लिम समाज मे महिलाओ को समान अधिकार प्राप्त नही था तथा व्यक्ति को भी धार्मिक सम्पत्ति माना जाता था परिणाम स्वरूप बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के समाज को ही दंड देने का अधिकार मिल गया। स्वाभाविक है कि इसका आंशिक दुष्प्रभाव हिन्दुओ पर भी पडा। आज भी कही कही खाप पंचायत मे ऐसी गलत मानसिकता दिख जाती है। जब भारत अंग्रेजो का गुलाम हुआ तो उन्होने इसके ठीक विपरीत जाकर समाज का बहिष्कार करने का भी अधिकार छीन लिया । उसका प्रभाव हिन्दू व्यवस्था पर भी दिखा और आज तक सामाजिक हस्तक्षेप को अनावश्यक मानने की प्रथा बढती जा रही है। मेरे विचार से भारत को इस इस्लामिक या पश्चिम मान्यताओ की नकल से दूर होकर अपनी पुरानी व्यवस्था पर आ जाना चाहिये। फिर समाज किसी भी व्यक्ति के गलत कार्यो के विरूद्ध उसका बहिष्कार कर सकता है, किन्तु सामाज किसी भी व्यक्ति के गलत कार्यो के विरूद्ध बिना कानूनी प्रक्रिया के दंण्ड नही दे सकता । समाज की इस आदर्ष व्यवस्था के स्थापित होने मे सबसे बडी बाधा राज्य का हस्तक्षेप है।
आप एक और कल्पना करिये कि यदि विवाह और लिव इन रिलेशन शिप से हटकर एक तीसरी व्यवस्था आ जाये जिसमे कोई भी व्यक्ति किसी भी महिला से नौकरी का अनुबंध करा ले जिसमे उस महिला को पुरूष के घर के कार्यो के अतिरिक्त सेक्स की भी इच्छा पूरी करनी होगी। दोनो कभी भी अपने अनुबंध एक माह का नोटिस देकर तोड सकते है। प्रश्न उठता है कि इसे समाज या राज्य कैसे रोक सकेगा क्योकि आप विवाह प्रणाली को जटिल से जटिल बनाते जायेगे । पारिवारिक सहजीवन मे कानून चैका चुल्हा तक घुस जायेगा। महिला और पुरूष के बीच साधारण बात चीत भी भय और संदेह से प्रभावित हो जायेगी तथा सेक्स की प्राकृतिक भूख रोकी नही जा सकेगी तो उसके दुष्परिणाम होंगे ही चाहे बलात्कार के रूप मे हो अथवा हत्या के रूप मे। इसलिये समाज मे विवाह की प्रणाली विकसित किजिये जिसे अब निरूत्साहित या अव्यवस्थित किया जा रहा है।
अंत मे मै इस निष्कर्ष तक पहुचा हॅू कि यदि स्त्री पुरूष के व्यक्तिगत संबंधो तथा विवाह प्रणाली मे परिवार और समाज का किसी तरह का हस्तक्षेप समाप्त करके व्यक्ति और राज्य का सीधा हस्तक्षेप बढता गया तो बलात्कार और हत्याए बढेगी ही और राज्य की जेले या फांसी के फंदे ऐसी बढती घटनाओ को नही रोक पायेगे।
हमे चैतरफा प्रयास करने होंगे । समाज को बहिष्कार का अधिकार देना होगा । राज्य भी एक तरफ सामाजिक व्यवस्था मे अपना हस्तक्षेप घटा दे तो दूसरी तरफ अपराधियों को और अधिक कडे दंड दिये जाये। इसके साथ ही सामाजिक व्यवस्था को भी इस प्रकार करना होगा कि कोई भी बलात्कार मजबूरी न रहे । विवाह की उम्र घटानी होगी तथा परिवार और समाज को मजबूत करना होगा। इस तरह इस समस्या का समाधान आंषिक रूप से हो सकता है।
मै अपने प्रारंभिक जीवन से ही तीन बाते निरंतर लिखता रहा हॅू ।
1 असीम स्वतंत्रता व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है । कोई भी अन्य उसकी सीमा तब तक नही बना सकता जब तक उसने किसी अन्य की सीमा का उल्लंघन न किया हो।
2 प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित पहचान पत्र अवश्य होना चाहिये जो हर जगह प्रभावी हो तथा जिसकी नकल संभव न हो।
3 समानता व्यक्ति का मौलिक अधिकार नही हो सकता। समानता शब्द का व्यापक दुरूपयोग हो रहा है।
4 परिवार के पारिवारिक तथा समाज के सामाजिक मामलों मे कानून को कोई हस्तक्षेप नही करना चाहिये। तीन तलाक या हलाला भी मुसलमानो का आंतरिक मामला है।
वर्तमान समय मे सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया। मै समझता हॅू कि यह निर्णय बिल्कुल ठीक दिशा मे ऐतिहासिक कदम है। स्वतंत्रता की दिशा मे संविधान को बढना ही चाहिये। स्वतंत्रता की दिशा मे बढने मे सबसे बडी बाधा समानता शब्द है। इस शब्द का हमेशा दुरूपयोग होता है। प्रत्येक व्यक्ति को समान असीम स्वतंत्रता होनी चाहिये। स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का मैलिक अधिकार है। किन्तु यदि राज्य या संविधान चाहे तो अपने नागरिको को समान अधिका दे सकता है किन्तु मौलिक अधिकार मे शामिल नही कर सकता। व्यक्ति और नागरिक के बीच यह अंतर है।
प्रश्न है कि यदि न्यायालय ने आधार को मौलिक अधिकार के विपरीत माना तब मेरा क्या मत है । मै जितना स्वतंत्रता का पक्षधर हॅू उतना ही आधार का। यदि आधार को अवैध किया गया तो कानून उसका मार्ग निकाल सकता है। कल्पना करिये कि सरकार घोषित कर दे कि आधार वालो को ही राज्य कोई सुविधा देगा तब कोर्ट क्या करेगा क्योकि सुविधा प्राप्त करना आपका मौलिक अधिकार नही है, सिर्फ संवैधानिक अधिकार है।
तीन तलाक हलाला या चार विवाह को मै व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानता हॅू किन्तु कोर्ट ने तीन तलाक पर जो फैसला दिया वह गलत होते हुए भी पूरी तरह समर्थन करता हॅू। यदि किसी अत्याचारी अन्यायी के साथ कोई दूसरा अन्याय भी करे तो हमे खुशी होती है। भले ही वह अन्याय है। मै अपने पूरे जीवन काल मे कभी किसी मुसलमान के व्यक्तिगत पारिवारिक या व्यापारिक मामले मे अन्याय नहीं होने देता। आप मेरा पूरा जीवन पता कर सकते है कि हमारे क्षेत्र के मुसलमानो का मुझ पर कितना विश्वास रहता है। दूसरी ओर यदि धार्मिक मामलों मे उनके साथ कोइ अन्याय होता है तो मुझे कभी कष्ट नही होता क्योकि उनकी धार्मिक कटटरता इसी लायक है। पूरे देश मे तीन तलाक, हलाला, बहु विववाह, मांसाहार, लाउडस्पीकर, लव जिहाद आदि के नाम पर न्याय अन्याय की परवाह किये बिना इनका मनोबल तोडना उचित प्रतीत होता हे। इसलिये मै तीन तलाक के मामले मे न्यायालय के निर्णय को भी ऐतिहासिक ही मान रहा हूँ।
मै महिला पुरूष के बीच किसी भेदभाव के विरूद्ध हॅू । सबको प्राकृतिक तथा संवैधानिक रूप से समान अधिकार प्राप्त है। कोइ्र भी पुरूष या महिला कभी भी किसी भी समय एक ही बार मे बोलकर तलाक दे सकती है। मुसलमानो ने उसे एक से बढाकर तीन किया तो क्या गलत है। कोई महिला यदि किसी के साथ न रहना चाहे तो दुनिया का कोई कानून उसकी स्वतंत्रता नही छीन सकता। वह कभी भी जा सकती है। यदि उसे परिवार छोडते समय न्यायोचित एग्रीमेंट अनुसार सुविधा न मिले तो वह उसके लिये कानून का सहारा ले सकती है। कानून उसके एग्रीमेंट के न्यायोचित होने की समीक्षा कर सकता है। मै पूरी तरह आष्वस्त हॅू कि धीरे धीरे स्थितियों सुधर रही है। और आगामी कुछ ही वर्षो मे कलियुग सतयुग की दिशा मे कदम बढा सकता है।
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