दहेज़ प्रथा

दहेज प्रथा


भारत 125 करोड व्यक्तियों का देश है और उसमें प्रत्येक व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार समान हैं। इनमें किसी भी प्रकार का महिला या पुरुष या कोई अन्य भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार समान हैं।
फिर भी महिला और पुरुष के बीच कुछ प्राकृतिक और सामाजिक असमानताए हैं। दोनों की शारीरिक संरचना भिन्न भिन्न है। सामाजिक संरचना में भी कुछ भिन्नताये हैं। अर्थात एक महिला और पुरुष को संतान उत्पत्ति के लिए किसी अन्य परिवार के साथ जुडना अनिवार्य है। यह वैज्ञानिक कारण से है या परम्परागत किन्तु पूरे विश्व में इसकी मान्यता अवश्य है । इसी तरह पति पत्नी के बीच यह भी आवश्यक है कि पति को सामान्यतया आक्रामक और पत्नी को आकर्षक स्वरुप में रहना चाहिये । इन सब स्थितियों को देखते हुए ही संयुक्त परिवार को समाज की पहली व्यवस्थागत इकाई माना गया। यह व्यवस्था की गई कि परिवार के सदस्य मिलकर यह तय करेंगे कि किस सदस्य को किस प्रकार का कार्य प्रमुखता से करना है। इस कार्य विभाजन में भी महिला और पुरुष का भेद स्वाभाविक होता है। इस तरह यह व्यवस्था आवश्यक हो जाती है कि महिला और पुरुष में से कोई एक दूसरे के परिवार में जाकर रहे और इस परिवार परिवर्तन में महिलाओं को अधिक महत्व दिया जाता है।
समाज व्यवस्था में स्वतंत्रता के बाद राजनैतिक हस्तक्षेप बढा। हर राजनेता को पारिवारिक और सामाजिक एकता से हमेशा भय बना रहता है इसलिए हर राजनैतिक दल किसी न किसी रुप में इस एकता को छिन्न भिन्न करता रहता है। वह चाहता है कि धर्म जाति की तरह ही महिला और पुरुष का लिंग भेद भी उसकी परिवार तोडक, समाज तोडक भूमिका में सहायक हो। पारिवारिक संरचना एक बहुत जटिल प्रक्रिया है किसी एक परिवार का पला बडा सदस्य परिवार छोडकर किसी दूसरे परिवार में शामिल होने के लिए मजबूर होता है तो इस परिस्थिति की कल्पना करना भी कठिन होता है किन्तु इसके अलावा कोई मार्ग नहीं होता। इस जटिलता की कमजोरियों का राजनेता लाभ उठाते हैं। महिला और पुरुष के बीच एक दूसरे के प्रति कुछ स्वाभाविक आकर्षण होता है । इस आधार पर महिला और पुरुष के बीच दूरी घटनी चाहिये या बढनी चाहिये इसका निर्णय उन महिला और पुरुष अथवा उनके परिवार पर छोडा जाना चाहिये था किन्तु हमारे राजनेताओं ने जबरदस्ती इस दूरी घटाने और बढाने में अपना कानूनी पैर फसाया। सामान्यतया व्यवस्था है कि लडकी और लडके के परिवार यह अवश्य देखते हैं कि परिवार बदलते समय लडकी की तुलना में लडके की योग्यता अधिक हो। इसमें भी राजनेता महिला सशक्तिकरण के नाम पर हस्तक्षेप करता है। परिवार में जन्म लिया बालक परिवार समाज और राष्ट्र के सम्मिलित अधिकार का माना जाता है किन्तु इसमें भी कानून बालक को राष्ट्रीय सम्पत्ति मानने की तिकडम करता रहता है।
मैंने अपने अनुभव से देखा कि सम्पूर्ण भारत में लगभग 99 प्रतिशत लोग दहेज का विरोध करते हैं और लगभग सबके सब अपने लडके के विवाह में अधिक से अधिक दहेज लेने का प्रयास करते हैं। एक ओर तो ऐसे दहेज विरोधी लडकी के पिता के प्रति बहुत दया भाव प्रकट करते हैं दूसरी ओर वही लोग विवाहित लडकी को पिता से सम्पत्ति लेने के लिए मुकदमा लडने तक की प्रेरणा देते देखे जाते हैं। कानून तो पूरी तरह ऐसे पिता पुत्री टकराव का तानाबाना हमेशा बुनता ही रहता है। किन्तु कभी कभी तो धर्मगुरु तक इस प्रचार में शामिल हो जाते हैं। परिवार का अर्थ सम्पूर्ण समपर्ण और सहजीवन होता है। इस सहजीवन में बाहर का हस्तक्षेप विशेष परिस्थिति में ही होना चाहिए किन्तु हमारे कानून हर मामले में हस्तक्षेप भी करते हैं और यदि दो लोग अलग होना चाहे तो उन्हे अलग होने की स्वतंत्रता में भी बाधा उत्पन्न करते हैं।
मैं भी बचपन में दहेज विरोधी रहा। मेरे लडके के विवाह के लिए एक परिचित गरीब व्यक्ति ने इच्छा व्यक्त की । मैंने उन्हें एक अन्य बहुत योग्य लडका सुझाया तो उन्होंने यह कहकर इन्कार कर दिया कि वे तो मेरे ही घर में लडकी देना चाहते हैं। मुझे लगा कि उन्हें लडका या परिवार की अपेक्षा मेरी जमीन और आर्थिक सम्पन्नता से अधिक मोह है। मैंने इन्कार कर दिया और दहेज विरोध के प्रति मेरा मोह भंग हो गया। मैंने महसूस किया कि दहेज कोई बुराई न होकर एक सामाजिक व्यवस्था रहा है । विवाह के समय एक लडकी अपने पिता के घर से अपना अनुमानित हिस्सा लेकर जाती है और पति परिवार अपने लडके के हिस्से के अनुपात में जेवर के रुप में बहू को देता है। यह जेवर अंत तक उस लडकी की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती है। अपवाद स्वरुप ही माता पिता इसमें कोई गडबडी करते रहे हैं। मैं नहीं समझता कि इस दहेज प्रथा को क्यों तोडकर लडकी को पिता की सम्पत्ति में कानूनी अधिकार को मान्यता दी गई। यदि ऐसा करने वाले की नीयत पर संदेह किया जाये तो क्या गलत है? पुराने समय में तो वैसे भी सम्पत्ति का बटवारा न के बराबर होता था। यह तो कानूनी बटवारा भारत में अंग्रेजो की देन है जो न समाज व्यवस्था मानते हैं न ही परिवार व्यवस्था को। वे तो केवल व्यक्ति को ही समाज की एक मात्र इकाई मानते हैं। वैसे भी भारत में आधी आबादी दहेज से संबंध नहीं रखती। शेष आधी आबादी भी ऐसी है जो सम्पन्न माने जाते हैं। पता नहीं हमारे नेताओं को इन सम्पन्नों की दहेज प्रथा के बारे में सोचने की जरुरत क्यों पडी। इन्होने दहेज के नाम पर व्यवस्था को तोडा। जबकि यदि इनमें कोई कमी थी तो उसे सुधारना चाहिये था। मैं सोचता हॅू कि दहेज का विरोध करना बिल्कुल ही अव्यावहारिक है। कोई अच्छी लडकी बिना दहेज के सम्पन्न कमजोर लडके के साथ स्वेच्छा से जाती है या कोई सम्पन्न कमजोर लडकी धन देकर किसी गरीब के साथ चली जाती है तो यह उनका आंतरिक मामला है और यदि सहमति है तो इसमें समाज या कानून का हस्तक्षेप क्यों? भारत में जितने प्रतिशत गरीब हैं, उतने ही प्रतिशत गरीब लडको की भी संख्या है और गरीब लडकियों की भी। यदि कोई सामाजिक क्रांति करके या कानून बनाकर बडे घर के लडकों के साथ बिना दहेज के गरीब लडकियों का विवाह कराने की पहल की गई तो मेरे विचार से तो यह प्रयास बहुत ही हानिकारक होगा क्योकि क्या यह भी प्रयास होगा कि फिर बडे घर की लडकियों को गरीब लडकों के साथ जोडने की मुहिम शुरु की जाये। मैं तो सोच भी नहीं सकता कि दहेज का विरोध करने वाले इतनी साधारण सी बात भी क्यों नहीं समझ पाते।
यदि हम वर्तमान स्थिति की समीक्षा करें तो देख रहे हैं कि स्वाभाविक रूप सेे दहेज पूरी तरह समाप्त हो गया है। विवाह योग्य लडकियों की संख्या बहुत कम हो गई है। कहीं कहीं तो लडके वाले दहेज देने लगे हैं। जाति प्रथा भी टूट रही है। इसके बाद भी कुछ पेशेवर नेता और सामाजिक कार्यकर्ता दहेज को समस्या के रूप मे बताते रहते हैं। उनकी आदत हो गई है। एक विचारणीय सिद्धान्त यह भी है कि किसी वर्ग मे सभी व्यक्ति अच्छे या बुरे नही होते । यदि किसी वर्ग विशेष को विषेष अधिकार दिये जाते है तो उस अधिकार प्राप्त वर्ग के धूर्त अपराधी प्रवृत्ति के लोग उस विशेषाधिकार का लाभ उठाते हैं और उस वर्ग से बाहर के शरीफ लोगों का शोशण होता है। दहेज के कानून का कितना दुरूपयोग हुआ यह पूरा देश जानता है। फिर भी पता नही क्यो ऐसे ऐसे धूर्त सशक्तिकरण के विशेषाधिकार कानून बनाये भी जाते है और रखे भी जाते है।
मैं जानता हॅू कि दहेज के मामले में ऐसी सोच रखने वाला मैं अकेला ही हो सकता हॅू किन्तु मैं आश्वाश्त हॅू कि परिवार के पारिवारिक मामलों में किसी भी प्रकार का कोई कानूनी हस्तक्षेप बहुत घातक होगा। हिन्दू कोड बिल तो पूरा का पूरा समाज व्यवस्था के लिए एक कलंक है ही। यह परिवार को तोडता है, समाज को तोडता है, और किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं देता। फिर भी मैं यह महसूस करता हॅू कि पुरानी व्यवस्था पर न तो अब लौटना संभव है,न ही उचित। इसलिए मैं एक संशोधित व्यवस्था का सुझाव देता हॅू। इसके अनुसार सरकार को पारिवारिक मामलों में सारे कानून हटा लेने चाहिये। साथ ही एक नई व्यवस्था बनानी चाहिये कि परिवार की सम्पत्ति में परिवार के प्रत्येक सदस्य का जन्म से मृत्यु तक समान अधिकार होगा। इसमें उम्र,लिंग आदि का कोई भेद नहीं किया जायेगा। परिवार की आंतरिक व्यवस्था परिवार के लोग बिना बाहरी हस्तक्षेप के आपसी सहमति से स्वतंत्रतापूर्वक कर सकेंगे। यदि परिवार का कोई सदस्य कभी भी परिवार छोडना चाहे तो वह अपना हिस्सा लेकर परिवार छोड सकता हैं।


मैं यह भी जानता हॅू कि कोई भी राजनेता ऐसे सुझाव को स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि इससे तो उसका समाज तोडक उद्देश्य ही खत्म हो जायेगा किन्तु मैं समझता हॅू कि हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। मैं देखता हॅू कि मेरे कई साथी समाज सेवा के नाम पर दहेज प्रथा के विरोध में कुछ न कुछ करते बोलते रहते है। मेरा उन साथियों से भी निवेदन है कि वे राजनेताओं के दहेज विरोधी प्रचार से अपने को मुक्त करें और महसूस करें कि दहेज कोई सामाजिक समस्या या अन्याय अत्याचार नहीं बल्कि एक सामाजिक व्यवस्था है जो आपसी सहमति से चलती हैं।