राइट टू कंस्टीटयूशन
दुनियां की समाज व्यवस्था में व्यक्ति एक प्राकृतिक और प्राथमिक इकाई होता है तो समाज अमूर्त और अन्तिम। दुनियां के सभी व्यक्तियों के संयुक्त स्वरूप को समाज कहते हैं। समाज की एक व्यवस्था होती है। प्रत्येक व्यक्ति के कुछ प्राकृतिक अधिकार होते हैं जिन्हें कोई भी सामाजिक व्यवस्था किसी भी परिस्थिति में तब तक न संशोधित कर सकती है न उसकी कोई सीमा बना सकती है जब तक व्यक्ति ने कोई अपराध न किया हो। व्यक्ति के उपर कानून, कानून के उपर तंत्र, तंत्र के उपर संविधान तथा संविधान के उपर समाज होता है। तंत्र हमेशा मैनेजर होता है जो समाज द्वारा बनाये गये संविधान के अनुसार कार्य करता है।
सारी दुनियां के सभी व्यक्तियों को मिलाकर समाज होता है इसलिये आदर्श व्यवस्था में पूरी दुनिया का एक संविधान होना चाहिये। ऐसे संविधान निर्माण में दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति की समान भूमिका होनी चाहिये किन्तु अब तक ऐसी कोई विश्व व्यवस्था और विश्व संविधान नहीं बन पाया है इसलिये हम भारतीय संविधान को ही अन्तिम मानकर उसकी समीक्षा करने तक सीमित हैं।
तानाशाही और लोकतंत्र बिल्कुल विपरीत प्रणालिया है। तानाशाही में शासन का संविधान होता है और लोकतंत्र मे संविधान का शासन। भारत एक लोकतांत्रिक देश है इसलिये हम कह सकते है कि यहां संविधान का शासन है भी और होना भी चाहिये। दुनियां के अधिकांश लोकतांत्रिक देशो में संविधान का शासन माना जाता है। यदि हम पूरी दुनियां का आकलन करे तो अन्य लोकतांत्रिक देशो में भी वर्तमान संविधान अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे किन्तु यदि हम भारत का आकलन करे तो भारतीय संविधान सत्तर वर्षो में ही विपरीत परिणाम देता रहा है और यह गति आज तक बढ रही है। दुनियां के संविधान बनाने वालों की यदि समीक्षा करें तो हो सकता है कि उनसे कुछ भुले भी हुई हो अथवा लम्बा समय बीतने के बाद कुछ परिस्थितियां बदली हों किन्तु भारतीय संविधान बनाने वालो से अनेक भूले तो हुई ही किन्तु उनकी नियत पर भी संदेह होता है
यदि हम लोकतंत्र को ठीक-ठीक परिभाषित करे तो लोकतंत्र का अर्थ होना चाहिये लोक नियंत्रित तंत्र। भारतीय संविधान निर्माताओ ने इसे बदल कर लोक नियुक्त तंत्र तक सीमित कर दिया। वैसे तो पूरी दुनियां में कहीं भी लोकतंत्र की आदर्श परिभाषा स्पष्ट नही है किन्तु भारत ने तो दुनियां से अलग लोकतंत्र की अपनी अलग परिभाषा बना ली। ऐसा लगता है कि हमारे संविधान निर्माताओ में सत्ता प्राप्त करने की बहुत ज्यादा जल्दी थी। आदर्श स्थिति मे तंत्र प्रबंधक होता है और लोक मालिक किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओ ने तंत्र को प्रबंधक की जगह शासक कहना शुरू कर दिया, जिसका अर्थ हुआ कि लोक मालिक नही बल्कि शासित है। तंत्र के अधिकार लोक की अमानत होते है किन्तु हमारे तंत्र से जुडे लोगो ने उन्हे अमानत न समझ कर अपना अधिकार मान लिया।
पूरी दुनियां में न तो संविधान की कोई स्पष्ट परिभाषा बनी न ही मूल अधिकार की। यहां तक कि अपराध, गैर कानूनी, अनैतिक की भी अलग अलग व्याख्या दुनियां मे नही हो पाई। राज्य का दायित्व क्या हो और स्वैच्छिक कर्तब्य क्या हो, यह भी नही हो पाया। दुर्भाग्य से हमारे संविधान निर्माताओ ने जल्दवाजी मे या ना समझी मे इस प्रकार की परिभाषाओ पर चिंतन मंथन करने की अपेक्षा विदेशी संविधानों की नकल करना उचित समझा। परिणाम आपके सामने है कि आज तक ऐसे गहन मौलिक विषयो को कभी परिभाषित नही किया गया। न ही भारत में और न ही दुनियां में । संविधान की परिभाषा यह होती है कि तंत्र के अधिकतम और लोक के न्यूनतम अधिकारो की सीमाए निश्चित करने वाले दस्तावेज को संविधान कहते है और व्यक्ति के अधिकतम तथा तंत्र के न्यूनतम अधिकारो की सीमाएं निश्चित करने का कार्य कानून कहा जाता है। कानून तो तंत्र के द्वारा बनना स्वाभाविक है किन्तु संविधान या तो लोक के द्वारा बनाया जायेगा अथवा लोक और तंत्र की समान भूमिका होगी। किन्तु हमारे संविधान निर्माताओ ने तंत्र को ही संविधान संशोधन के असीम अधिकार दे दिये जिसका अप्रत्यक्ष अर्थ हुआ कि भारत मे संविधान तंत्र नियंत्रित हो गया अर्थात तंत्र की तानाशाही हो गई। संविधान के मौलिक सूत्रो का निर्माण समाज शास्त्र का विषय है और व्यावहारिक स्वरूप या भाषा राजनीति शास्त्र का। भारत का संविधान बनाने मे मौलिक सोच भी राजनेताओ की रही और भाषा देने मे भी लगभग अधिवक्ताओ का ही अधिक योगदान रहा। परिणाम हुआ कि भारत की संवैधानिक संरचना वकीलो के लिये स्वर्ग के समान बन गई।
भारतीय संविधान मे कुछ कमियां प्रारंभ से ही दिखती हैं।
- संविधान को हमेशा स्पष्ट अर्थ प्रदाता होना चाहिये, द्विअर्थी नही। आज स्थिति यह है कि न्यायालय तक संविधान की विपरीत व्याख्या करते देखे जाते है। ऐसा महसूस हो रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच के उपर भी कोई और बेंच होती तो फुल बेंच के अनेक निष्कर्ष बदल सकते थे।
- परन्तु के बाद मूल अर्थ न बदलकर अपवाद ही आना चाहिये किन्तु भारत के संविधान मे परन्तु के बाद उसके मूल स्वरूप को ही बदल दिया जाता है। भारत मे धर्म जाति, लिंग, का भेद नही होगा। सबको समान अधिकार होगे। किन्तु महिलाओ, अल्पसंख्यको, आदिवासियों, पिछडों के लिये विशेष कानून बनाये जा सकते है। स्पष्ट है कि भारत की 90 प्रतिशत आबादी समानता के अधिकारो से वंचित हो जाती है।
- धर्म, जाति, भाषा, लिंग आदि के भेद समाज के आंतरिक मामले है जबकि परिवार गांव जिले व्यवस्था की इकाइया है। भारतीय संविधान ने परिवार, गांव जिले को तो संविधान से बाहर कर दिया और धर्म, जाति, भाषा, लिंग, भेद को संविधान में घुसा दिया। परिणाम हुआ कि वर्ग समन्वय टूटा और वर्ग विद्वेश वर्ग संधर्ष बढ गया।
- संविधान बनाने वालो ने तंत्र के दायित्व और स्वैच्छिक कर्तव्य का अंतर नही समझा। तंत्र का दायित्व होता है सुरक्षा और न्याय और स्वैच्छिक कर्तव्य होता है अन्य जन कल्याणकारी कार्यो मे सहायता। संविधान निर्माताओ ने सुरक्षा और न्याय की तुलना में जन कल्याण को अधिक महत्व दिया। यहां तक कि संविधान मे व्यावहारिकता का भी पूर्णतः अभाव रहा। ऐसी ऐसी आदर्शवादी घोषणाए कर दी गई जो संभव नही थी। उसका परिणाम हुआ अव्यवस्था।
- संविधान निर्माताओ ने उद्देश्यिका में नासमझी में समानता शब्द शामिल कर दिया जबकि समानता की जगह स्वतंत्रता शब्द होना चाहिये था। उन्होने समानता का अर्थ भी ठीक ठीक नही समझा। आर्थिक असमानता की तुलना मे राजनैतिक असमानता अधिक घातक होती है। हमारा संविधान आर्थिक सामाजिक असमानता को अधिक महत्व देता है और उसके कारण राजनैतिक असमानता बढती चली जाती है।
- सिद्धान्त रूप से कमजोरो की सहायता मजबूतो का कर्तब्य होता है, कमजोरो का अधिकार नही। हमारे संविधान निर्माताओ ने इस सहायता को कमजोरो का अधिकार बना दिया। इसके कारण अक्षम और सक्षम के बीच वर्ग विद्वेष वर्ग संघर्ष बढा। मजबूतो को कमजोरो ने सहायक न मानकर शोषक मान लिया।
- संविधान हमेशा तंत्र को नियंत्रित करता है तथा तंत्र की अधिकतक सीमाएं निश्चित करता है। संविधान कभी तंत्र का मार्ग दर्शक नहीं होता न ही संविधान समाज का मार्गदर्शक होता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में नीति निर्देशक तत्व तथा व्यक्ति के मौलिक कर्तव्य जैसे अनावश्यक प्रावधान शामिल करके एक ओर तो संविधान को बहुत बड़ा बना दिया तो दूसरी ओर उसका वास्तविक स्वरूप ही धूमिल कर दिया।
- सैद्धान्तिक रूप से संविधान तंत्र से उपर होता है। संविधान ही तंत्र को अधिकार देता भी है और तंत्र पर नियंत्रण भी करता है। स्वाभाविक है कि संविधान संशोधन में तंत्र की कोई भूमिका नहीं हो सकती। हमारे संविधान निर्माताओं ने तंत्र को ही संविधान संशोधन के भी अन्तिम अधिकार दे दिये। भारत में कहा जाता है कि संसदीय लोकतंत्र है किन्तु यह बात पूरी तरह गलत है। सच बात यह है कि भारतीय शासन व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र न होकर संसदीय तानाशाही है जिसे समाज को धोखा देने के लिये लोकतंत्र कहा जाता है।
किसी संविधान मे यदि एक मौलिक कमी हो तो वह अकेली कमजोरी भी दूरगामी प्रभाव डालती है। किन्तु भारतीय संविधान में तो सारी कमियां ही विद्यमान है और हर साख पर उल्लू बैठा है के अन्जाम के आधार पर परिणाम स्पष्ट दिख रहा है। आज यदि भारत की जनता बढती हुई अव्यवस्था के समाधान के लिये किसी तानाशाह का भी सम्मान करने को तैयार है तो यह दोश जनता का न होकर हमारे संविधान निर्माताओ का ही माना जाना चाहिये। इसलिये मै समझता हॅू कि कही न कही संविधान निर्माताओ की नीयत में भी खराबी थी तभी उन्हेाने संविधान संशोधन तक के अधिकार लोक से छीनकर तंत्र को दे दिये तथा लोकतंत्र की परिभाषा पूरी तरह बदल कर लोक नियुक्त तंत्र तक सीमित कर दी।
हम भारतीय संविधान के कुछ परिणामो की व्याख्या करें।
- भारतीय संविधान का पहला परिणाम यह दिख रहा है कि तंत्र शरीफो, गरीबो, ग्रामीणो, श्रमजीवियों के विरूद्ध धूर्तो, अमीरों, शहरियों, बुद्धिजीवियों का मिला जुला षणयंत्र दिखने लगा है।
- स्पष्ट दिख रहा है कि संसद एक जेल खाना है जिसमे हमारा भगवान रूपी संविधान कैद है। संविधान एक ओर तो संसद की ढाल बन जाता है तो दूसरी ओर संविधान संसद की मुठ्ठी मे कैद भी है।
- न्यायपालिका और विधायिका के बीच ऐसी अधिकारो की छीना झपटी दिख रही है जैसे लूट के माल के बटवारे मे दिखती है।
- लोक और तंत्र के बीच दूरी लगातार बढती जा रही है। लोक हर क्षेत्र मे तंत्र का मुखापेक्षी हो गया है। यहा तक कि तंत्र और लोक के बीच शासक और शासीत की भावना तक घर कर गई है।
- समाज के हर क्षेत्र मे वर्ग समन्वय के स्थान पर वर्ग विद्वेष बढ रहा है।
- तंत्र का प्रत्येक अंग हर कार्य में समाज को दोष देने का अभ्यस्त हो गया है। तंत्र का काम सुरक्षा और न्याय है। किन्तु तंत्र इसके लिये भी लोक को ही दोषी कहता है। यहा तक कि कुछ वर्ष पूर्व भारत के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और विपक्ष के नेता तक ने कहा या कि संविधान दोषी नही है बल्कि उसका ठीक ठीक पालन नही होता। पालन न करने वाले दोषी है। दोषी संविधान है, व्यवस्था है, तंत्र है, और समाज मे हम सुधरेगें जग सुधरेगा जैसा गलत विचार प्रसारित किया जा रहा है ।
- भारत मे लगातार अव्यवस्था बढती जा रही है। भौतिक विकास तेज गति से हो रहा है और उससे भी अधिक तेज गति से नैतिक पतन हो रहा है।
समस्याओ पर हमने विचार किया किन्तु समाधान भी सोचना होगा। समस्या विश्वव्यापी है किन्तु समाधान की शुरूआत भारत कर सकता है और भारत की शुरूआत हम आप कर सकते है। 1॰ परिवार और गांव को तत्काल संवैधानिक अधिकार दिये जाने चाहिये। इससे तंत्र का बोझ घटेगा और तंत्र सुरक्षा और न्याय की ओर अधिक सक्रिय हो सकेगा। 2॰ संविधान को संसद के जेलखाने से मुक्त कराने की पहल होनी चाहिये। संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार तंत्रमुक्त किसी इकाई को दिये जाने चाहियें। 3॰ लोकतंत्र, मूल अधिकार अपराध, समानता आदि की वर्तमान भ्रम पूर्ण मान्यताओ को चुनौती देकर वास्तविक अर्थ स्थापित करने का प्रयास करना चाहिये। 4॰ संविधान कानून आदि शब्दो की भी स्पष्ट परिभाषा बननी चाहिये। भले ही अब तक दुनियां में न बनी हो। संसदीय लोकतंत्र को बदल कर सहभागी लोकतंत्र की दिशा में बढना चाहिये। 5॰ सांसद को दल प्रतिनिधि की जगह जन प्रतिनिधि होना चाहिये। संसदीय लोकतंत्र को बदलकर निर्दलीय व्यवस्था की ओर जाना चाहिये। जिस तरह आज संसद असंसदीय दृष्य प्रस्तुत करती है वह हमारे लिये शर्म और चिन्ता का विषय है। 6 भारतीय संविधान में कुछ मौलिक सुधार की आवश्यकता है। ऐसे सुधार भी होने चाहिये।
मुझे विश्वास है कि भारतीय संविधान की कमजोरियां को दूर करने की हमारी कोशीश विश्वव्यापी परिवर्तन की दिशा में ले जा सकती है हमे इस दिशा में विचार मंथन करना चाहिये।
स्पष्ट है कि भारत की वर्तमान अव्यवस्था के लिये भारतीय संविधान ही सर्वाधिक दोषी है। संविधान में संषोधन या बदलाव के दुनियां में चार मार्ग ही उपलब्ध हैं
- जयप्रकाश आंदोलन के अनुसार चुनावों के माध्यम से संसद में दो तिहाई बहुमत लाकर संविधान संशोधित कर दिया जावे।
- अन्ना आंदोलन के अनुसार जनता का इतना व्यापक दबाव दिखने लगे कि वर्तमान संसद ही डरकर संविधान को संशोधित करके उसे जनता के लिये स्वतंत्र कर दे।
- मिश्र टयूनीशिया के समान एकाएक जन विस्फोट हो और उस जन विस्फोट में संविधान पूरी तरह बदल जावे।
- लीबिया के समान गृह युद्ध हों और मरेंगे मारेंगे के आधार पर संविधान बदल दिया जावे।
भारत में तानाशाही न होकर विकृत लोकतंत्र है इसलिये चैथे मार्ग पर सोचने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। तीसरा मार्ग स्वनिर्मित है। उसमें हमारी कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं हो सकती। हम तो सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। हमारे पास पहले और दूसरे मार्ग ही उपलब्ध हैं किन्तु जे पी और अन्ना आंदोलन से निकले परिणामों ने समाज की हिम्मत खत्म कर दी है इसलिये कोई आंदोलन संभव नहीं दिखता। किन्तु निराशा की जगह कुछ न कुछ करना तो होगा ही और लोकतंत्र के दोनो मार्गो में जन जागरण की ही मुख्य भूमिका है। इसलिये अब समय आ गया है कि देश में राइट टू कंस्टीटयूशन अर्थात संविधान का अधिकार के लिये एक सूत्रीय जन जागरण हो। यदि भारत में यह मार्ग सफल हो सका तो सारे विश्व के लिये यह मार्ग दर्शक हो सकेगा और हम विश्व संविधान की दिशा में बढ सकेगे।
Comments