सहजीवन और सतर्कता

स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार होता है और सहजीवन उसकी सामाजिक मजबूरी। स्वतंत्रता सबकी समान होती है। स्वतंत्रता की सीमा प्राकृतिक रूप से बनी हुयी है। कोई भी अन्य व्यक्ति या व्यवस्था किसी अन्य की सहमति के बिना उसकी कोई सीमा नहीं बना सकता। सामाजिक जीवन प्रत्येक व्यक्ति की मजबूरी है। इसी मजबूरी के अन्तर्गत पहली इकाई परिवार बनती है और उसके बाद ग्राम सभा, प्रदेश, राष्ट्र आदि। किसी अन्य व्यक्ति के साथ जुड़ते ही स्वतंत्रता अपने आप सामूहिक और सीमित हो जाती है। सहजीवन के लिये बनने वाली सामाजिक इकाई के रूप में परिवार पहली इकाई है। वर्तमान पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार अधिकांश परिवार प्राकृतिक रूप से चलते रहते है और विशेष परिस्थिति में मत विभिन्नता होने पर टूटकर अलग होते है। कभी-कभी ही अलग-अलग लोग आपस में सहमत होकर परिवार बनाते है।

सफलतापूर्वक सहजीवन का निर्वाह करना आमतौर पर कठिन होता है क्योंकि व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि उसे दूसरे व्यक्ति के साथ किस सीमा तक, किस तरह व्यवहार करना चाहिये। दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव, गुण-अवगुण और अच्छी- बुरी नीयत का निर्णय आसान नहीं होता इसलिये यह निर्णय और भी कठिन हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता भी समान नहीं होती इसलिये भी उसे सही निर्णय करने में कठिनाई होती है। फिर भी यह आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य के साथ व्यवहार करते समय कुछ बातों का ध्यान रखे। सामान्यतया सम्बन्ध आठ प्रकार के माने जाते है- 1. सहभागी  2. सहयोगी 3. समर्थक 4. प्रशंसक  5. समीक्षक 6. आलोचक 7. विरोधी 8. शत्रु। 1. सहभागी व्यक्ति वह होता है जो आपकी पूरी सफलता-असफलता या लाभ-हानि में बराबर का भागीदार होता है। आपका और उसका सबकुछ सामूहिक होता है, किसी का कुछ व्यक्तिगत नहीं होता। इस श्रेणी में आमतौर पर परिवार को माना जाता है। 2. सहयोगी उस  व्यक्ति को माना जाता है जो आपके किसी कार्य में सक्रिय सहयोग तो करता है किन्तु लाभ-हानि में हिस्सेदार नहीं होता। आमतौर पर सहयोगी संगठन से बाहर का व्यक्ति या सदस्य होता है। 3. समर्थक वह व्यक्ति होता है जो आपके किसी कार्य का बाहर रहकर सिर्फ मौखिक समर्थन करता है, सक्रिय सहयोग नहीं करता। 4. प्रषंसक वह व्यक्ति माना जाता है जो आपके अच्छे कार्या की प्रशंसा करता है किन्तु आप यदि गलती करते है या बुरा करते है तब वह व्यक्ति चुप रहता है। इसी तरह आपका कोई कार्य जनहित में है तब प्रशंसक की भूमिका अलग होती है और सक्रिय होती है किन्तु यदि वह कार्य जनहित के विरूद्ध है तब प्रशंसक उसमें चुप हो जाता है। यदि आपका कोई कार्य गलत भी है तो सहभागी उसे कुछ झूठ बोलकर, तोड़ मरोड़ कर सही सिद्ध कर देता है। सहयोगी सिर्फ घुमाफिराकर अर्थ बदल देता है। समर्थक और प्रषंसक ऐसी गलती के मामले में  प्रायः चुप हो जाते है। 5. समीक्षक उस व्यक्ति को कहते है जो आपके बिल्कुल भी पक्ष या विपक्ष में नहीं होता है। वह व्यक्ति पूरी तरह तटस्थ होता है और गुण-अवगुण, अच्छे-बुरे की तटस्थ समीक्षा करता है। 6. आलोचक वह होता है जो आपके अच्छे कार्यो में तो चुप हो जाता है और गलत कार्यो को समाज के समक्ष जैसा है, वैसा ही प्रस्तुत करता है। आलोचक किसी घटना को घुमाफिराकर अथवा तोड़ मरोड़ कर प्रस्तृत नहीं करता। 7. विरोधी वह व्यक्ति होता है जो आपके गलत कार्यो को तो गलत कहता ही है किन्तु सही कार्यो को भी घुमाफिराकर अथवा तोड़ मरोड़ कर गलत सिद्ध करने का प्रयास करता है किन्तु विरोधी किसी मामले में भी झूठ नहीं बोलता। 8. शत्रु वह होता है जो आपके विषय में किसी प्रकार का झूठ बोल सकता है। शत्रु उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय की परवाह नहीं करता। इस तरह व्यक्तियों में आठ प्रकार की भूमिकाएं होती है। आमतौर पर कोई व्यक्ति इस तरह अलग-अलग ना समझने के कारण भ्रम में पडकर गलत निर्णय कर लेता है और उसका उसे नुकसान होता है। बुद्धि प्रधान लोग प्रायः गलत ऑकलन नही करते किन्तु भावना प्रधान लोग प्रायः गलत ऑकलन करते है। मैंने कई लोगों को देखा है जो सामान्यतया मित्र के साथ भाई जैसा पारिवारिक व्यवहार रखते है किन्तु वे किसी एक जरा सी बात पर इतनी जल्दी नाराज हो जाते है कि उसे शत्रुवत मान लेते है। होना तो यह चाहिये कि किसी को मित्र अथवा भाई के समान मानने के पूर्व लम्बे समय तक उसका व्यावहारिक परीक्षण किया जाये और सम्बन्ध बिगड़ते समय भी उस गलत व्यवहार की गंभीरता से क्रमषः ऑकलन किया जाये। भावना में बहकर जल्द बाजी में लिये गये निर्णय हमेशा  घातक होते है। सोच समझकर निर्णय करना चाहिये और धीरे-धीरे व्यक्ति के साथ व्यवहार में उपर नीचे का बदलाव करना चाहिये। एकाएक या जल्दबाजी में नहीं।

मैंने स्वयं इन स्थितियां में धीरे-धीरे ऑकलन करने की आदत डाली। परिणाम हुआ कि मुझे अपने पूरे सार्वजनिक जीवन में बहुत ही कम लोगों के विषय में अपनी धारणाओं में बहुत अधिक बदलाव करना पडा। यदि बदलाव भी किया गया तो बदलाव बहुत धीरे-धीरे किया गया और सोच समझकर किया गया। मेरी राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक मामलों में अनेक प्रमुख लोगों के विषय में निश्चित धारणा रही है। इसी तरह ऐसे सिद्धान्तों पर भी और ऐसी घटनाओं पर भी मैं निश्चित प्रतिक्रिया व्यक्त करता रहा हूँ जो दो-तीन दशकों से लगातार ज्ञान तत्वों में प्रकाशित होती रही है। धार्मिक मामलों में, मैं हिन्दुत्व का पूरी तरह समर्थक रहा हूँ । इसाईयत का समीक्षक, इस्लाम का विरोधी तथा साम्यवाद को शत्रुवत मानता रहा हूँ । मेरे विचार से साम्यवाद में एक भी ऐसा गुण नहीं है जिसके कारण उसे शत्रु से अलग किया जाये। हिन्दुओं में भी मैं संघ परिवार, षिवसेना आदि का आलोचक रहा हूँ । संघ परिवार में अनेक अच्छाईयां होते हुये भी गांधी हत्या के विषय में उनकी धारणा से मुझे बहुत विरोध है।  मैं पूरी तरह गांधी का प्रषंसक हूॅ और किसी भी स्थिति में गांधी हत्या को हिन्दुत्व के विरूद्ध समझता हूँ  इसलिये मेरे मन से यह धारणा बिल्कुल नहीं निकल पाती है। राजनैतिक आधार पर मैं मनमोहन सिंह, नीतिश कुमार, नरेन्द्र मोदी, अखिलेश यादव, केरल के पूर्व मुख्यमंत्री अच्युतानंदन, बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटटाचार्य, ए. के. एंटोनी, शांता कुमार, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, खंडूरी, बाबूलाल मरांडी आदि को अच्छे राजनीतिज्ञों में गिनता हूँ और इनका प्रशंसक हूँ । दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती, मुलायम सिंह यादव, प्रकाष करात, ममता बनर्जी, शिब्बू सोरेन,  नवजोत सिंह सिद्धू का मैं हमेशा  से आलोचक हूँ । इसी सूची से करूणा निधि, जय ललिता आदि की मृत्यु के कारण उनके नाम निकाल दिये गये है। इन सब के बाद भी मैं वर्तमान परिस्थितियों में व्यक्तिगत रूप से राहुल गांधी को सबसे अच्छा मानता हॅू किन्तु उन्हें किसी भी परिस्थिति में दस से पंद्रह वर्ष सत्ता के पदों पर जाने के पूरी तरह विरूद्ध हॅू क्योंकि राहुल गांधी में कुटनीतिक दुर्दर्शित का अभाव है तथा राहुल गांधी का आगे बढना एक पारिवारिक गुलामी का आभाष कराता है, योग्यता का नहीं। इसी तरह सत्ता के मामले में नरेन्द्र मोदी को एक मात्र सफल व्यक्तित्व मानता हूँ और वर्तमान समय में, मैं उनका पूरी तरह पक्षधर हूँ । मैं तानाशाही, लोकतंत्र और लोकस्वराज्य का अंतर समझता हॅू। व्यवस्था का अंतिम पडाव या तो तानाशाही है या लोकस्वराज्य। लोकतंत्र बीच की सीढी है। यदि लोकतंत्र लम्बे समय तक चलेगा तो अव्यवस्था निश्चित है और अव्यवस्था का एक मात्र समाधान है तानाशाही। मनमोहन सिंह लोकतंत्र के आधार पर चले जिसका परिणाम हुआ अव्यवस्था और अव्यवस्था का परिणाम हुआ तानाशाही की भूख अर्थात नरेन्द्र मोदी। इसलिये वर्तमान अव्यवस्था का एक मात्र समाधान नरेन्द्र मोदी ही दिखते है। यदि स्वतंत्रता के समय के राजनेताओं का ऑकलन करे तो मैं सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्र शेखर आजाद आदि के मार्ग को ठीक नहीं मानता क्योंकि मैं गांधी मार्ग का पक्षधर हूँ। संघ परिवार ने भी स्वतंत्रता के पूर्व और स्वतंत्रता के शीघ्र बाद जिस तरह राजनीति में हस्तक्षेप किया वह अच्छा नहीं था। संघ परिवार की तुलना में आर्य समाज की भूमिका अच्छी थी। स्वतंत्रता के बाद जो लोग सत्ता में आये उनमें सबसे अधिक गलत भूमिका भीम राव अम्बेडकर की रही है। यही कारण है कि मैं हमेशा उनका विरोधी रहा। नेहरू, सरदार पटेल आदि की भी भूमिका स्वतंत्रता के बाद बहुत अच्छी नहीं रही है। इन लोगों ने जिस तरह का संविधान बनाकर दिया उसे देखते हुये मैं हमेशा इनका आलोचक रहा हूँ। इन सबकी गलतियों के कारण ही समाज में अव्यवस्था भी फैली और वर्ग संघर्ष भी। इन लोगों ने मिलजुलकर जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया जैसे लोगो को किनारे कर दिया। मैं राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का समर्थक रहा हूँ । सामाजिक मामलों में भी मैं समाज सुधार के  लिये कानून के हस्तक्षेप को घातक मानता रहा हूँ । समाज की बुराईयॉ दूर करना समाज का काम है राज्य का नहीं। कानून को सुरक्षा और न्याय तक सीमित रहना चाहिये इसलिये मैं किसी भी सरकार द्वारा छुआछूत  उन्मूलन, गरीबी अमीरी रेखा, शराब बंदी, गो हत्या पर प्रतिबंध, महिला सषक्तिकरण, षिक्षा विस्तार जैसे प्रयत्नों का आलोचक रहा हूँ । मैं हिन्दू धर्म व्यवस्था का बहुत अधिक प्रशंसक हूँ क्योंकि हिन्दुओं में परिवार व्यवस्था, पहचान प्रधान की जगह गुण प्रधान धर्म को महत्व, धर्म परिवर्तन के प्रयत्नों का विरोध तथा वर्ण व्यवस्था को अन्य सब की तुलना में बहुत अच्छा मानता हॅू। यद्यपि कानून के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण ये व्यवस्थाएं कुछ-कुछ विकृत हो गई हैं जिन्हें ठीक करना चाहिये। व्यक्ति को जीवन में सफल होने के लिये इस प्रकार की ट्रेनिंग होनी चाहिये कि वह प्रत्येक व्यक्ति के विषय में ठीक ठीक ऑकलन कर सके। मैं महसूस करता हूँ कि जीवन में सफलता के लिये समाज को सर्वोच्च मानना चाहिये। इसके लिये प्रत्येक व्यक्ति में सहजीवन की ट्रेनिंग होनी चाहिये और सहजीवन की ट्रेनिंग का प्रारंभ परिवार से ही हो सकता है जिससे व्यक्ति धीरे-धीरे अन्य व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार उसके साथ अपने सम्बन्धों की सीमाएं निर्धारित करने की आदत डाल सके। यह अंतर ना समझने के कारण ही समाज में अव्यवस्था फैलती है। आमतौर पर अच्छे लोगो में यह कमी होती है कि वे अन्य व्यक्तियों के विषय में  कुछ व्यक्तिगत धारणाएं बना लेते है। यदि उनकी दृष्टि में कोई बहुत अच्छा आदमी है और वह थोडी सी गलती कर दे तो यह अच्छे लोग उसके आलोचक हो जाते है। दूसरी ओर यदि कोई बहुत बुरा आदमी थोडा सा अच्छा काम कर दे तो ये प्रषंसक हो जाते है। यदि अच्छे लोगो की समझदारी बढ जाये तो ऐसी गलती नही होगी। इसलिये मेरा यह मत है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धारणा  निश्चित करने के पूर्व समझदारी बढनी चाहिये।

जो लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे सम्पर्क में रहते है उन्हें यदि आठ आधारों पर विभाजित करके हम व्यवहार  निश्चित करेंगे तो हमें बहुत सुविधा होगी। जो लोग हमारे प्रषंसक, समर्थक, सहयोगी या सहभागी है उनकी कभी सार्वजनिक आलोचना नही करनी चाहिये। ऐसे लोगो पर कभी व्यक्तिगत टिप्पणी से भी बचना चाहिये। जो लोग हमारे शत्रु या विरोधी है उन्हें बिना मांगे सलाह नहीं देनी चाहिये। इसी तरह आलोचक, विरोधी या शत्रु से किसी विषय पर अकेले में तर्क नहीं करना चाहिये तथा सार्वजनिक रूप से भी तर्क करते समय सर्तक रहना चाहिये। इस तरह की अनेक सावधानियां संकट से बचा सकती है।