स्वतंत्रता के बाद भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरू, विनायक दामोदर सावरकर और डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिकाएँ कुछ हद तक विवादास्पद रही हैं।

मैंने अपने अध्ययन और ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि स्वतंत्रता के बाद भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरू, विनायक दामोदर सावरकर और डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिकाएँ कुछ हद तक विवादास्पद रही हैं। स्वतंत्रता संग्राम के कुछ वर्षों पहले से ही इन तीनों के कार्यों पर प्रश्न उठते रहे हैं, विशेषकर उनके अंग्रेजी सरकार और लॉर्ड माउंटबेटन के साथ संभावित संपर्कों को लेकर। कुछ इतिहासकारों और विश्लेषकों का यह भी मानना है कि महात्मा गांधी की हत्या में इनकी किसी न किसी रूप में संलिप्तता हो सकती थी, हालाँकि इस पर ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं।

इन तीनों में से, मेरे विचार से, डॉ. अंबेडकर की भूमिका स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में सबसे अधिक प्रश्नों के घेरे में रही है। हाल ही में मैंने पटना के प्रसिद्ध शिक्षक खान सर का एक लेख पढ़ा, जिसमें डॉ. अंबेडकर की तुलना नेहरू से अधिक योग्य बताते हुए उनकी प्रशंसा की गई थी। मेरे विचार से, यह लेख या तो ऐतिहासिक तथ्यों की गलत व्याख्या करता है या जानबूझकर उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है।स्वतंत्रता संग्राम में नेहरू और सावरकर की सक्रिय भूमिका रही है, लेकिन डॉ. अंबेडकर की कोई उल्लेखनीय भागीदारी नहीं दिखती। इसके विपरीत, उन्होंने कई अवसरों पर महात्मा गांधी के प्रयासों का विरोध किया और नीतिगत रूप से उनके मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न कीं। कुछ दस्तावेजों के अनुसार, डॉ. अंबेडकर के कार्य अंग्रेजी सरकार के हितों के साथ संरेखित प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए, खान सर द्वारा 1932 के गोलमेज सम्मेलन में अंबेडकर के पृथक निर्वाचन की माँग न करने की प्रशंसा की गई है। लेकिन यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि उस समय मुस्लिम लीग ने भी ऐसी कोई माँग नहीं रखी थी। इसके अलावा, स्वतंत्रता के संदर्भ में अंबेडकर ने कुछ शर्तें रखी थीं, जो राष्ट्रीय एकता के बजाय विभाजनकारी प्रतीत होती थीं।

इसके अतिरिक्त, एक महत्वपूर्ण दस्तावेज का उल्लेख करना आवश्यक है। 14 मार्च 1946 को डॉ. अंबेडकर ने अंग्रेजी सरकार को पत्र लिखकर कहा था कि उनके समुदाय ने अंग्रेजी शासन को बनाए रखने में सहयोग किया है और इसके बदले में उन्हें विशेष सुविधाएँ दी जानी चाहिए। यह पत्र उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है और उनके कार्यों पर सवाल उठाता है।मेरा मानना है कि कोई भी व्यक्ति जो महात्मा गांधी की नीतियों का लगातार विरोध करता हो और उनके प्रयासों को कमजोर करने का कार्य करता हो, उसे पूर्ण रूप से देशभक्त मानना कठिन है। खान सर जैसे विद्वानों को ऐतिहासिक तथ्यों का निष्पक्ष विश्लेषण करना चाहिए, ताकि जनता के सामने सत्य स्पष्ट हो सके।