राज्य समाज का संरक्षक क्यों?
व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक भी होते हैं और नियंत्रक भी। व्यक्तियों से ही समाज बनता है और समाज से ही व्यक्ति। एक दूसरे का अस्तित्व ही इस तालमेल पर निर्भर होता है। व्यक्ति एक इकाई होता है। व्यक्ति समूह समाज का अंग होता है किंतु समाज नहीं। समाज के लिए सर्व व्यक्ति समूह होना आवश्यक है। परिवार, गांव, जिला, प्रदेश और देश व्यक्ति समूह हैं इसलिए समाज के अंग हैं किंतु समाज तो संपूर्ण विश्व का होता है। समाज शब्द बहुवचन होता है एकवचन नहीं।
हमारी भारतीय समाज व्यवस्था में चार का संतुलन अनिवार्य रहा हैः- 1. मार्गदर्शक 2. रक्षक 3. पालक 4. सेवक। ये चारों पूरी तरह स्वतंत्र भी होते थे और नियंत्रक भी जिस तरह लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका का चेक एंड बैलेंस होता है। सबके अलग अलग कार्यक्षेत्र, अधिकार, कर्तव्य तथा सुविधाएं थी। इसे वर्ण व्यवस्था नाम दिया गया। रक्षक अर्थात राज्य को न सर्वोच्च सम्मान था, न सर्वोच्च सुविधा और न ही सर्वोच्च सुख। राजा से भी ज्यादा सुख सेवक को प्राप्त था। जब हम गुलाम हुए तब हमारे संतुलन में राजा मालिक हुआ और हम प्रजा अर्थात गुलाम। यह राजा और प्रजा का भाव गुलामी काल की देन है। लंबी गुलामी के कारण राजा भगवान सरीखे देखे जाने लगे। हमारी वर्ण व्यवस्था विकृत हुई और विकृत वर्ण व्यवस्था विदेशी आक्रमण नहीं झेल सकी। भारत वैचारिक धरातल पर कमजोर होता चला गया जिसके परिणामस्वरुप हमें आदर्श वर्ण व्यवस्था की जगह अपूर्ण लोकतंत्र स्वीकार करना पड़ा। लोकतंत्र कभी भी वर्ण व्यवस्था का विकल्प नहीं बन सकता किन्तु हमारी गुलाम मानसिकता ने लोकतंत्र स्वीकार कर लिया।
वर्ण व्यवस्था में रक्षक अर्थात राज्य समाज का प्रबंधक होता है तो लोकतंत्र में संरक्षक। स्वतंत्रता के पूर्व राज्य हमारा मालिक था तो स्वतंत्रता के बाद राज्य मालिक की जगह संरक्षक अर्थात् कस्टोडियन हो गया। संरक्षक की नियुक्ति के पूर्व यह आवश्यक है कि उस समय मालिक या तो नाबालिक हो या पागल या गंभीर बीमार। यदि ऐसी स्थिति न हो तो संरक्षक नियुक्ति नही हो सकता। संरक्षक की नियुक्ति मालिक नहीं करता बल्कि समाज द्वारा नियुक्त कोई इकाई करती है। संरक्षक मालिक के समान व्यवहार करता है किंतु संरक्षक पर नियुक्तिकर्ता का नियंत्रण होता है। नियुक्तिकर्ता समय समय पर समीक्षा करता है कि मालिक बालिग या स्वस्थ हुआ कि नहीं। संरक्षक को यह अधिकार नहीं कि वही मालिक के स्वस्थ या बालिग होने की समीक्षा कर सके। यदि संरक्षक ही समीक्षा करेगा तो मालिक को कभी स्वस्थ या बालिग घोषित ही नहीं करेगा क्योंकि मालिक के स्वस्थ या बालिग घोषित होते ही उसकी नौकरी समाप्त।
जब भारत स्वतंत्र हुआ तो सत्ता लोलुप लोगों ने गांधी की हत्या कर दी। किसी ने गांधी के शरीर की हत्या कर दी तो किसी ने गांधी विचारों की। दोनों गुटों ने सहमति से मालिक अर्थात भारत की जनता को अक्षम अयोग्य अनपढ़ घोषित करके राज्य को संरक्षक घोषित कर दिया। इस मामले में नेहरू की भी अपेक्षा सरदार पटेल अधिक मुखर थे। सरदार पटेल तो बालिक मताधिकार भी नहीं देना चाहते थे लेकिन नेहरू की जीद से बालिक मताधिकार मिला। किंतु मालिक अर्थात् जनता के अक्षम अयोग्य अपढ़ मानने के मामले में पटेल और नेहरू एकमत थे। अन्य सभी नेता तो सहमत थे ही। इन्होंने स्वयं ही स्वयं को संरक्षक घोषित कर लिया और स्वयं ही संरक्षक नियुक्तकर्ता भी बन गए और स्वयं ही संरक्षक। इस तरह उन्होंने जनता को आयोग कह कर राज्य को संरक्षक की भूमिका में स्थापित कर दिया। लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं ने एक घपला और किया कि इन्होंने संरक्षक अर्थात् राज्य को ही यह अधिकार दे दिया कि मालिक अर्थात् लोक स्वस्थ या बालिग हुआ कि नहीं इसका अंतिम निर्णय भी संरक्षक ही करेगा। ऐसा तो कहीं दुनिया में होता ही नहीं कि संरक्षक ही मालिक के स्वस्थ और सक्षम होने की समीक्षा करेगा लेकिन भारत में यही हुआ। सरंक्षक अर्थात् तंत्र ने संविधान को भी गुलाम बना लिया और स्वयं ही संरक्षक तथा स्वयं ही समीक्षक बन गया। जन्म के 18 वर्ष बाद तो बच्चा भी बालिग हो जाता है किंतु भारत का लोकतंत्र 70 वर्ष बाद भी बालिग नहीं हुआ और यदि ऐसा ही चला तो 500 वर्ष तक भी बालिग नहीं होगा क्योंकि लोक को बालिग घोषित करते ही तंत्र संरक्षक की जगह प्रबंधक बन जाएगा।
70 वर्ष बीत गए। भारत का लोकतंत्र न्यायपालिका और विधायिका की सर्वोच्चता के टकराव के बीच फंसा हुआ है। कभी न्यायपालिका स्वयं को सर्वोच्च मान लेती है तो कभी विधायिका। भारत में पूरी तरह संसदीय तानाशाही है किंतु इसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है क्योंकि भारत का संविधान तंत्र के नियंत्रण में है। संरक्षक अर्थात् राज्य ने स्वयं को प्रबंधक की जगह षासक कहना शुरू कर दिया। स्पष्ट है कि लोक मालिक की जगह शासित कहा जाने लगा। अब लोक सिर्फ सत्ता परिवर्तन तो कर सकता है किंतु व्यवस्था परिवर्तन नहीं कर सकता क्योंकि लोक तो आज तक बालिग ही नहीं है। मौलिक अधिकार व्यक्ति के प्राकृतिक होते हैं और राज्य उन मौलिक अधिकारों में न कोई बदलाव कर सकता है न सीमा बना सकता है किंतु राज्य जब चाहे तब संपत्ति को मौलिक अधिकार से भी बाहर निकाल देता है और सीमा भी बनाने का अधिकार रखता है। सन् तिहत्तर में तंत्र के ही एक भाग न्यायपालिका ने जरूर अपना हस्तक्षेप बढ़ाया किन्तु उससे लोक को कुछ नहीं मिल सका। अब दोनो मिलकर जो चाहें कर सकते हैं। दोनों ने मिलकर सुरक्षा और न्याय को पीछे करके जनकल्याण को आगे कर दिया। अब आतंकवाद भले ही बढ़ता रहे किंतु किसी को भूखा नहीं रहने देंगे यह तंत्र की गारंटी है। बलात्कार और हिंसा भले ही बढ़ती रहे किंतु वैश्यालय और तंबाकू जैसी बुराइयां अवश्य दूर होंगी। सारे देश में कानूनों का ऐसा जाल बिछा दिया गया कि कोई भी व्यक्ति कानूनों से बचकर साफ निकल ही नहीं सकता। भारत की वास्तविक स्थिति यह है कि तंत्र हमारा संरक्षक न होकर मालिक बन गया और लोक गुलाम। स्वतंत्रता के पूर्व लोक के हाथों में विदेशी लोहे की हथकड़ी थी तो अब स्वदेशी लोहे की हथकड़ी है और अब हम स्वतंत्र घोषित हैं।
भविष्य अंधकार पूर्ण है किंतु समाधान पर सोचना तो होगा। हम आदर्श वर्ण व्यवस्था लागू नहीं कर सकते किंतु उस पर चिंतन अवश्य होना चाहिए क्योंकि वर्ण व्यवस्था ही अंतिम समाधान है। लेकिन हम आदर्श लोकतंत्र की आवाज तो उठा सकते हैं जिसका अर्थ होता है लोक नियंत्रित तंत्र। इस लोकतंत्र में सविधान सर्वोच्च होता है और तंत्र संविधान के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है किंतु तंत्र संविधान में संशोधन या बदलाव नहीं कर सकता। संविधान संशोधन के लिए लोक एक पृथक स्वतंत्र इकाई बना सकता है। यदि अभी यह भी कठिन है तो हम इतनी मांग तो कर सकते हैं कि तंत्र हमें न्याय और सुरक्षा की गारंटी दे। सामाजिक बुराइयां समाज दूर करेगा। तंत्र पहले सुरक्षा और न्याय सुनिश्चित करें। हमारे जो साथी भूल से सुरक्षा और न्याय की जगह तंत्र से तम्बाकू, शराब, गांजा, छुआछूत, आदिवासी हरिजन महिला भेदभाव, रोजगार, शिक्षा आदि की मांग करते हैं वे गलत हैं। वे राज्य को संरक्षक और अप्रत्यक्ष रूप से मालिक बने रहने की परिस्थिति बना रहे हैं। यदि हम कुछ कर सके तो लोक और तंत्र का वर्तमान समीकरण बदलकर लोक मालिक तंत्र मैनेजर बनने की दिशा में एक कदम हो सकता है।
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