युद्ध, न्याय और व्यवस्था: एक दृष्टिकोण

लगभग दो-तिहाई युद्धों के परिणाम पूर्व अनुमानित होते हैं, लेकिन एक-तिहाई युद्धों के परिणाम अप्रत्याशित रहते हैं। हाल ही में इज़राइल-ईरान युद्ध इसका एक उदाहरण बनकर सामने आया है। यह युद्ध दस दिनों से चल रहा है और इसकी दिशा कई बार बदली है।

प्रारंभिक दो दिनों में ऐसा प्रतीत हुआ कि इज़राइल ने निर्णायक बढ़त बना ली है—ईरान के भीतर घुसकर कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को मार गिराना इसकी मिसाल है। युद्ध लगभग एकतरफा लगने लगा था। परंतु चार-पांच दिनों में ही तस्वीर बदल गई। अब ईरान की स्थिति मजबूत और इज़राइल की अपेक्षाकृत कमजोर दिखने लगी। रूस, चीन और उत्तर कोरिया जैसे देश अमेरिका के विरोध में बोलने लगे। कई अन्य देशों ने भी अमेरिकी नीति पर सवाल उठाए। भारत में भी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं—कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने यहां तक कह दिया कि भारत को ईरान का समर्थन करना चाहिए।

लेकिन अगले 24 घंटों में ही युद्ध का रुख फिर बदल गया। आज की स्थिति में ईरान एक बार फिर अलग-थलग पड़ता दिख रहा है। जिन देशों ने पहले उसका समर्थन किया था, वे अब मौन हैं। सोनिया गांधी ने भी अपने सुर बदल लिए हैं।

युद्ध का अंतिम परिणाम क्या होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है, परंतु वर्तमान परिस्थितियों में बाज़ी फिर इज़राइल के पक्ष में जाती प्रतीत हो रही है।

यह स्पष्ट होता जा रहा है कि जब कोई ताकतवर होता है तो वह ‘व्यवस्था’ की बात करता है, लेकिन जब वही कमजोर पड़ता है तो ‘न्याय’ की दुहाई देने लगता है। इसलिये यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि न्याय तभी सुरक्षित रह सकता है जब वह किसी सशक्त और संगठित व्यवस्था द्वारा संरक्षित हो। यदि आप उस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं, तो केवल न्याय की गुहार लगाने से आपको सुरक्षा नहीं मिल सकती।

आज की वैश्विक व्यवस्था में सबसे प्रभावशाली समूह NATO है। उसके सामने साम्यवादी देशों का एक ढीला-ढाला गठबंधन खड़ा है, जिसमें रूस, चीन और कुछ हद तक ईरान शामिल हैं। अब प्रश्न उठता है—ईरान न्याय किससे चाहता है? किस वैश्विक व्यवस्था से वह सुरक्षा की अपेक्षा करता है?

ईरान यदि परमाणु हथियार विकसित कर रहा है, तो वह यह स्पष्ट क्यों नहीं करता कि वह इन्हें सुरक्षा के लिए बना रहा है या शक्ति प्रदर्शन के लिए? क्या उसकी छवि ऐसी है कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल कमजोरों की रक्षा के लिए करेगा, न कि उन्हें डराने के लिए? यदि ऐसा नहीं है, तो दुनिया उससे क्यों सहानुभूति रखे?

हाल के वर्षों में रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दुनिया को यह बता दिया कि ताकतवर देश अपनी "व्यवस्था" को थोप सकते हैं। इसी तरह ईरान ने भी लेबनान, गाज़ा और अन्य क्षेत्रों में परोक्ष रूप से हस्तक्षेप कर क्षेत्रीय अशांति फैलाई। ऐसे में अगर इज़राइल जवाब देता है, और अमेरिका उसका समर्थन करता है, तो यह सवाल उठता है कि वास्तव में अन्याय कौन कर रहा है?

यदि ईरान न्याय चाहता है, तो उसे पहले यह सिद्ध करना होगा कि उसने दूसरों के न्याय का सम्मान किया है। अगर शक्ति प्रदर्शन ही आपकी नीति है, तो फिर न्याय की गुहार का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

निष्कर्ष
ईरान के पास दो विकल्प हैं—या तो वह दुनिया की व्यवस्थागत ताकतों से तालमेल बैठाकर शांतिपूर्ण नीति अपनाए, या फिर अकेले खड़े होकर शक्ति-संतुलन की लड़ाई लड़े। लेकिन उसे यह तय करना होगा कि वह न्याय की भाषा बोलना चाहता है या केवल ताकत की। दुनिया अब न्याय उसी को देगी जो स्वयं दूसरों के न्याय का सम्मान करता है।

यदि आप चाहें, तो मैं इस पर आधारित एक लेख शीर्षक और उपशीर्षकों के साथ भी तैयार कर सकता हूँ, जो अखबार या ब्लॉग में प्रकाशित करने योग्य हो।