विकास दर का तानाबाना

प्रत्येक व्यक्ति प्रतिस्पर्धा के माध्यम से दूसरो से आगे जाना चाहता है। इस आगे निकलने को ही विकास कहा जाता है। यह विकास परिवार, दूसरे परिवारो की तुलना मे आगे जाने के लिये करता है तो देश दूसरे देश की तुलना मे और संस्कृतियां दूसरी संस्कृतियों की तुलना मे। विश्व मे विकास के लिये चार संस्कृतियों के बीच प्रतिस्पर्धा है। भारतीय संस्कृति नैतिकता को विकास का आधार मानती है तो इस्लामिक संस्कृति संगठन शक्ति विस्तार को, पाश्चात्य संस्कृति भौतिक विकास को तथा साम्यवाद राजनैतिक शक्ति विकास को। भारतीय संस्कृति इस प्रतिस्पर्धा मे पिछड गई इस्लाम और साम्यवाद मौके की तलाश मे है और पाश्चात्य संस्कृति भौतिक विकास को ही विकास का मापदण्ड लागू करने में सफल रही है। इस तरह वर्तमान समय मे विकास की जो परिभाषा दुनियां मे प्रचलित है वह सिर्फ भौतिक विकास तक सीमित है। विकास के अन्य मापदंडो को छोड दिया गया है। भौतिक उन्नति के आँकलन को विकास दर कहते है। अभी तक मुझे पूरी तरह साफ साफ तो यह पता नही है कि विकास दर के आँकलन मे क्या क्या शामिल किया जाता है। किन्तु इतना अवश्य है कि उस आँकलन मे सिर्फ भौतिक विकास के माध्यम ही शामिल होते है।

भौतिक विकास के दो आधार हो सकते है। या तो कुछ नया उत्पादन किया जाये या दूसरो का शोषण किया जाये। सारी दुनियां की औसत विकास दर लगभग दो प्रतिशत मानी जा रही है। सारी दुनियां मिलकर कुछ नया सृजन नही कर सकती। स्वाभाविक है कि वर्तमान दो प्रतिशत विकास दर प्रकृति के शोषण से ही प्राप्त की जा रही है। विकास के लिये गति का बढना आवश्यक माना गया है और गति के बढने मे ऊर्जा का उपयोग होता है। मानवीय ऊर्जा सीमित है और उपयोग कठिन भी है। इसलिये विकास को गति देने के लिये कृत्रिम ऊर्जा का ही उपयोग किया जाता है। स्पष्ट है कि विकास और कृत्रिम ऊर्जा एक दूसरे के साथ जुडे हुए है।

विकास दर का आँकलन हर देश का अलग अलग भी होता है और सब देशो को मिलाकर विश्व की विकास दर का भी आँकलन होता है। विकास दर के मामले मे भारत भी लगातार प्रयत्न और चिंता करता रहता है। स्वतंत्रता के बाद सभी सरकारे विकास दर के लिये सक्रिय रही। यदि हम भारत की कुल औसत दर को चार से पांच तक वार्षिक मान ले तो सत्तर वर्षो मे भारत के आम आदमी का जीवन स्तर आठ गुना तक ऊपर हो जाना चाहिये था। किन्तु भारत की एक तिहाई गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी आबादी का जीवन स्तर दो ढाई गुना से अधिक ऊपर नही गया और 33 प्रतिशत आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न लोगो का जीवन स्तर साठ-सत्तर गुना तक ऊपर चला गया। यह विकास का असंतुलन कैसे उचित माना जा सकता है । होना तो यह चाहिये था कि अविकसित लोगो की गति तेज होती लेकिन हुआ ठीक उल्टा और विकसित लोगो की गति लगातार तेज होती गई। यह न्याय संगत नही है किन्तु विकास के लिये शोषण का भी बहुत महत्व होता है। पश्चिम के विकसित देश अपने विकास के लिये दुनियां के अन्य अविकसित देश का शोषण करते है तो भारत और चीन सरीखे अविकसित देश अपने देश के श्रमजीवियों का शोषण करके ही अपनी विकास दर बढाते है। उनकी यह मजबूरी होती है कि वे दुनियां से प्रतिस्पर्धा करने के लिये अपनी विकास दर बढावे और विकास दर बढाने के लिये मानवीय ऊर्जा के सस्ते होने की मजबूरी सामने आ जाती है। इसी जाल मे उलझकर कमजोर लोगो का शोषण करना मजबूरी हो जाती है।

कोरोना संकट ने एक नई परिस्थिति पैदा की है। सारी दुनियां की विकास दर तेजी से गिरेगी और उसी क्रम मे भारत की भी विकास दर गिरेगी। अगले कुछ महिनो के लिये भारत की विकास दर शून्य से भी नीचे जा सकती है। आमलोगो की क्रय शक्ति घटेगी और उस क्रय शक्ति का प्रभाव उत्पादन पर दिखेगा ही। आवागमन घटेगा, विलासिता की वस्तुओ का उपयोग कम होगा और विकास दर पर बुरा असर पडे़गा। लेकिन जिस तरह बढ़ती हुई विकास दर का प्रभाव निचले तबके पर कम और ऊपर वालो पर अधिक हुआ था, उसी तरह अब गिरती हुई विकास दर का प्रभाव भी ऊपर वालो पर बहुत अधिक और नीचे वालो पर बहुत कम होगा। मुझे तो लगता है कि गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवियो पर इस गिरती हुई विकास दर का कोई प्रभाव नही होगा। सारी दुनियां के लिये यह चिंतन करने का समय आ गया है कि विकास के लिये सिर्फ भौतिक उन्नति को ही मापदंड क्यो बनाया जाये। उसमे कुछ अन्य कारक भी क्यो न जोडे़ जाये। यदि हम विकास को सुख के साथ जोड़ते है तो भौतिक उन्नति के साथ साथ नैतिक उन्नति को भी महत्वपूर्ण मानना चाहिये। लेकिन वर्तमान परिभाषा मे ऐसा नही है। दूसरी बात यह भी है कि विकास के साथ साथ प्राकृतिक संतुलन पर भी सोचा जाना चाहिये। पर्यावरण प्रदूषित होता रहे, प्रकृति का प्राकृतिक ढांचा असंतुलित होता रहे और हम भौतिक विकास की प्रतिस्पर्धा मे तेज छलांग लगाते रहे। यह उचित विकास नही है। अब सारी दुनियां को नये सिरे से विकास का मापदंड और विकास के आधार की नयी पद्धति खोजनी चाहिये।

दुनियां की अन्य तीन संस्कृतियां ऐसी चिंता नही करेंगी। संगठन शक्ति विस्तार मे इस्लाम चुपचाप सक्रिय है। चीन भी अपनी सामरिक शक्ति बढ़ा ही रहा है किन्तु नैतिकता के विस्तार की तो सिर्फ भारत से ही अपेक्षा थी और भारत इसकी पहल नही कर पा रहा। भारत पश्चिम के साथ मिलकर चीन को तो टक्कर देने की कोशिश कर रहा है किन्तु नैतिकता के विस्तार मे इस्लामिक संस्कृति एक बहुत बड़ी बाधा है। यदि हम संगठित हिन्दुओं का नारा देकर इस्लाम से भारत मे प्रतिस्पर्धा करते है तो स्वाभाविक है कि हम नैतिकता को नहीं बचा सकते और नैतिकता का विकास ही हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। इसलिये हमें नया मार्ग खोजना होगा जिसमे इस्लाम से टकराव न होकर इस्लामिक संस्कृति से प्रतिस्पर्धा मात्र हो। पिछले साठ वर्षो से रामानुजगंज शहर मे इस संबंध मे जो प्रयोग हुआ वह सफल रहा और वह प्रयोग आधार बन सकता है। साठ वर्ष बीतने के बाद भी रामानुजगंज मे इस प्रयोग की सफलता स्पष्ट दिखती है।

विकास की प्रतिस्पर्धा मे हम अनन्त काल तक दुनियां की घातक या अविकसित विकास दर को आधार नही मान सकते। अब भारत को नयी पद्धति पर प्रयोग करना चाहिये।