मूर्ति पूजा की एक समीक्षा

ईश्वर है या नही यह लम्बे समय से खोज अनुसंधान और विश्वास के बीच फंसा हुआ है । अनुसंधान या खोज और तर्क के आधार पर ईश्वर का कोई प्रभाण नही मिलता, लेकिन विश्वास के आधार पर ईश्वर का अस्तित्व है और हमेशा रहेगा । ईश्वर है या नही, इस अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचना लगभग असंभव है । इसलिये वर्तमान समय मे मै इस विचार तक पहॅुचा कि यदि ईश्वर न भी हो तो हमे समाज की व्यवस्था को ठीक ढंग से चलाने के लिये एक काल्पनिक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार कर लेना चाहिये । इस तरह मै ईश्वर के अस्तित्व को मानता हॅू ।

ईश्वर और भगवान बिल्कुल अलग-अलग होते हैं, यद्यपि कभी-कभी नासमझी से दोनो को एक साथ जोड दिया जाता है । ईश्वर एक होता है जबकि भगवान अलग-अलग होते है । ईश्वर दूसरो को जन्म देने वाला होता है और स्वयं जन्म मृत्यु से मुक्त रहता है, जबकि भगवान जन्म मृत्यु के बंधन मे रहता है । ईश्वर एक अदृश्य शक्ति के रूप मे होता है तो भगवान एक मार्गदर्शक महापुरूष के रूप मे । ईश्वर और भगवान को एक न माना जा सकता है, न ही मानना चाहिये ।

मूर्तिपूजा दुनियां मे कई रूपो मे विद्यमान है । हिन्दू समाज मे मूर्तिपूजा का व्यापक प्रभाव है, और इस्लाम मे पूरी तरह  निषेध । आमतौर पर माना जाता है कि मूर्ति मे ईश्वर है तो मूर्तिपूजा पूरी तरह मान्य होनी चाहिये । फिर यह भी प्रश्न उठता है कि यदि मूर्ति मे ईश्वर है तो मनुष्य मे भी ईश्वर है, फूल-पत्ते मे भी ईश्वर है, ऐसी स्थिति मे ईश्वर की पूजा ईश्वर के द्वारा ईश्वर को माध्यम बनाकर कैसे की जा सकती है । एक दूसरा प्रश्न भी उठता है कि ईश्वर का कोई आकार है कि नही । यदि है तो वह आकार कौन-सा है और यदि नही है तो फिर किसी भी मूर्ति को ईश्वर की मूर्ति किस प्रकार मान लिया जाय । तीसरा प्रश्न यह भी उठता है कि क्या किसी निर्जीव पदार्थ मे प्राण-प्रतिष्ठा करके उसे सजीव बनाया जा सकता है । मुझे यह बात भी संभव नही दिखती । इस तरह मूर्ति मे ईश्वर का तर्क भी उपयुक्त नही है, ईश्वर की मूर्ति भी तर्कसंगत नही है और किसी मूर्ति मे प्राण-प्रतिष्ठा करना भी अप्राकृतिक होने से हम मूर्ति और ईश्वर के संबंध को स्वीकार नही कर सकते । हमारे धर्म ग्रन्थ मे भी ईश्वर की मूर्ति होने को स्वीकार नही किया गया है । फिर भी हम मूर्ति को महापुरूष अर्थात भगवान की मूर्ति मानकर उसकी पूजा अराधना कर सकते है । मेरी जानकारी के अनुसार आम तौर पर मूर्तियो को भगवान की मूर्ति ही माना जाता है, ईश्वर की मूर्ति नही । कुछ लोग गलत धारणा से उसे ईश्वर की मूर्ति कह देते है।

    मूर्तिपूजा मे आस्था होती है तर्क नही होता । प्रत्येक व्यक्ति मे आस्था और तर्क का समन्वय आवश्यक है । आस्था के लिये मूर्तिपूर्जा भी एक अच्छा माध्यम है । हम अपने परिवार की किसी प्रमुख की मूर्ति रखकर उसे मार्गदर्शक माने या हम समाज के किसी महापुरूष की मूर्ति रखकर उसकी पूजा करे, उसके गुणो को याद करे तो मुझे नही लगता कि इसमे गलत क्या है । यदि कोई व्यक्ति बिना मूर्ति के सीधा ईश्वर के ध्यान का प्रयास करता है तो उसे भी किसी प्रकार की कोई रोक नही है । हिन्दू धर्म एक संगठन न होकर एक स्वतंत्र जीवन पद्धति है, जिसमे मूर्तिपूजक हो या न हो इससे कोई फर्क नही पडता । बताया जाता है कि बहुत प्राचीन समय मे मूर्तिपूजा नही थी । बुद्ध और महावीर के काल मे मूर्तिपूजा शुरू हुई और जब यह पूजा बहुत तेजी से बढने लगी तब हिन्दूओ ने भी रामकृष्ण या अन्य देवी-देवताओ की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा शुरू कर दी । स्वामी दयानंद ने मूर्तिपूजा को एक अनावश्यक कार्य बताकर उसका खंडन किया, ओैर इस्लाम ने मूर्तिपूजा का विरोध किया । मैने इस विषय पर बहुत सोचा । मुझे मूर्तिपूजा मे कोई भी कार्य गलत नही लगा क्योकि मूर्तिपूजा किसी दूसरे की स्वतंत्रता का उल्लंघन नही है । दूसरी ओर मूर्तिपूजा का विरोध दूसरे की स्वतंत्रता का उल्लंघन है । यदि हम मूर्तिपूजा का विरोध करते है तो यह गलत है । लेकिन यदि हम मूर्तिपूजा का खंडन करते है तो खंडन मे सिर्फ सलाह होती है कोई प्रत्यक्ष क्रिया नही होती । इसलिये ऐसा कह सकते है । फिर भी मेरा यह मानना है कि जो लोग मूर्ति पूजा करते है, वे लोग यदि गलत भी है तो वे अपनी शक्ति का अपव्यय  करते है । हम मूर्तिपूजा को एक निरर्थक कार्य कह सकते है, किन्तु उसे गलत कार्य कह कर उसका विरोध नही  कर सकते । मै स्वयं आर्य समाज से जुडा हुआ हॅू । आर्य समाज के जो लोग आवश्यक कार्यो को छोडकर   मूर्तिपूजा के विरोध मे समय और शक्ति खर्च करते है, उनके सारे कार्यो को मै उतना ही निरर्थक मानता हॅू जितना निरर्थक मूर्तिपूजा को । जब मूर्तिपूजा कोई अपराध नही है, कोई सामाजिक समस्या भी नही है तो हमे किसी निरर्थक कार्य का विरोध करने मे अपनी शक्ति क्यों लगानी चाहिये ?

इस्लाम का तो अस्तित्व ही मूर्तिपूजा विरोध पर टिका हुआ है, इसलिये वे इसे महत्वपूर्ण मानते है । दूसरी बात यह भी है कि इस्लाम कोई धर्म न होकर एक संगठन के स्वरूप तक सीमित है, इसलिये वह इस विरोध को बहुत महत्व देता है । मेरा मूर्तिपूजा पर कभी विश्वास नही रहा । फिर भी मेरे परिवार के लोग मूर्तिपूजक है, और हमारे परिवार मे पूरा तालमेल है क्योकि मै मूर्तिपूजक न होते हुए भी मूर्तिपूजा का विरोध नही करता । दूसरी बात यह भी है कि जो लोग मूर्ति पूजा नही करते वे लोग भी कही न कही अप्रत्यक्ष रूप से मूर्तियों को मानते है। यदि कोई मोहम्मद साहब की मूर्ति बनादे तो मुसलमान आम तौर पर मान लेता है कि वह मोहम्मद साहब की मूर्ति है और वह उस मूर्ति को बनाने वाले के खिलाफ जी-जान लगा देता है । यदि कोई किसी पत्थर को हजरत मुहम्मद कहने लग जाये और आपकी नजर मे वह हजरत मुहम्मद नही है, तो आपको क्यो परेशानी होनी चाहिये । यदि कोई व्यक्ति स्वामी दयानंद का चित्र बनाकर उसे अपमानित करने लगे तब आर्य समाज के लोग भी उसका बुरा मानते है । ऐसी परिस्थिति मे यदि कोई व्यक्ति राम की मूर्ति बनाकर उसी के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते है तो उसकी स्वतंत्रता मे हमे बाधक क्यो होना चाहिये । हिन्दू धर्म तो इस सीमा तक स्वतंत्रता देने का पक्षधर है कि यदि कोई व्यक्ति रावण या कंस की मूर्ति बनाकर भी पूजा करना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है । यह अलग बात है कि हिन्दू धर्म मे भी अब कुछ कट्टरवादी संगठन प्रिय लोग ऐसे पैदा हो रहे है जो हिन्दुत्व की मूल अवधारणा को न समझ कर इस्लाम की नकल कर रहे है ।

मूर्तिपूजा भारत से जुडा हुआ विषय है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग-अलग आस्था हो सकती है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग-अलग स्वतंत्रता हो सकती है । हमे उसकी स्वतंत्रता मे किसी भी रूप मे बाधा नही पहुंचानी चाहिये । यदि कोई व्यक्ति मूर्तिपूजा पर चर्चा करे तो हम उसे वास्तविकता बताने का अधिकार रखते है । किन्तु किसी को भी बिना पूछे उसकी आस्था मे बाधा पहुंचाना उचित नही । इसलिये मूर्तिपूजा का विरोध एक व्यर्थ की कसरत है । हमे इससे बचना चाहिये । स्पष्ट है कि मूर्तिपूजा एक अवैज्ञानिक यथार्थ है किन्तु जिस तरह ईश्वर का अस्तित्व प्रमाणित न होते हुए भी सामाजिक व्यवस्था बनाने के लिये एक ईश्वर मान लेना चाहिये उसी तरह मूर्तिपूजा को यथार्थवादी न मानते हुए भी हमे अपनी आस्था की जागृति के लिये इस तरह का कोई न कोई आधार स्वीकार कर लेना चाहिये ।