आदर्श राज्य

दुनियां का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी देश का नागरिक होता है । हर नागरिक की अपने देश की सरकार से कुछ मौलिक अपेक्षाएं होती हैं । यदि सरकार इन मौलिक अपेक्षाओं में असफल रहे तो राज्य चाहे अपने नागरिकों को अन्य कितनी भी सुविधाएं दे दें किन्तु राज्य को कभी आदर्श नहीं कहा जा सकता । भारत की भी स्थिति दुनियां के अन्य देशों के समान ही है । यहाँ के लोग भी अपनी सरकार से कुछ मौलिक अपेक्षाएं रखते हैं । असफल राज्य की कुछ विशेषताएं होती हैंः- 1. तीन का घातक केन्द्रीयकरण:- क). शक्ति का समाज के हाथ से निकलकर राज्य के पास । ख). अर्थ का गरीबों के हाथ से निकलकर पूंजीपतियों के पास । ग). रोजगार का श्रमजीवियों के हाथ से निकलकर बुद्धिजीवियों के पास । 2. कानून का उल्लंघन करने वालों के मन से कानून का डर और कानून का पालन करने वालों का कानून की शक्ति पर घटता विश्वास । 3. सुरक्षा और न्याय के लिये अपनी व्यक्तिगत सक्रियता की मजबूरी । 4. सामाजिक एकता से भयभीत राज्य द्वारा वर्ग समन्वय को कमजोर करके वर्ग विद्वेष को प्रोत्साहन ।

इन चार कसौटियों पर हम स्वतंत्रता से आज तक की संवैधानिक व्यवस्था की सफलता का आंकलन करें । सत्तर वर्षों तक भारत की जनता ने लोकतंत्र के कांग्रेसी मॉडल का अनुभव किया । सत्ता हमेशा मजबूत होती गई और अधिकार सत्ता के पास धीरे-धीरे इस तरह सिमटते गये कि जनता पूरी तरह राज्याश्रित हो गई । इसके बाद भी भारत में अव्यवस्था बढ़ती रही । भारत की जनता ने मजबूर होकर महसूस किया कि इस अव्यवस्था की तुलना में सत्ता के समक्ष आत्मसमर्पण करना ही ठीक रहेगा । जनता ने तानाशाह मोदी को पसंद करके नई व्यवस्था से कुछ बदलाव की उम्मीद की । आर्थिक स्थिति तो और भी ज्यादा खराब रही है । स्वतंत्रता से लेकर आज तक लगातार आर्थिक असमानता बढ़ रही है । गरीब और अमीर के औसत जीवन स्तर में स्वतंत्रता के बाद लगभग पचीस गुना का अन्तर बढ़ गया है । गरीब के जीवन स्तर में स्वतंत्रता के बाद दो गुना का सुधार है तो पूंजीपतियों के जीवन स्तर में करीब पचास गुने का सुधार दिखता है । धन लगातार गरीबों के हाथ से निकलकर अमीरों के पास इकटठा हो गया है । स्थानीय रोजगार बन्द होकर उद्योगों के पेट में समाहित होते जा रहे हैं । गरीब लोगों को आत्मनिर्भरता की तुलना में राज्य की सुविधाओं पर जीने को मजबूर होना पड़ रहा है । शारीरिक श्रम की जगह शिक्षा का महत्व बढ़ रहा है । रोजगार निरन्तर श्रम से निकलकर बुद्धिजीवियों के पास सिमट रहा है । तकनीक के विस्तार ने श्रमजीवियों की मदद न करके उल्टा उन्हें कमजोर किया है । हमारी राज्य व्यवस्था ने बेरोजगारी की परिभाषा चुपचाप बदलकर शिक्षित बेरोजगारी के नाम से बुद्धिजीवियों की श्रम रोजगार में घुसपैठ करा दी । बुद्धिजीवी अपनी शर्तों पर श्रम खरीदने में सक्षम है किन्तु श्रमजीवी उससे मोलभाव की स्थिति में नहीं है क्योंकि भारत के कुल विकास का सारा माल मलाई तो बुद्धिजीवी पूंजीपति खा गये और जूठन श्रमजीवियों को देकर अहसान कर दिया ।

आदर्श राज्य में कम कानून कठोर कानून का सिद्धान्त काम करता है । भारत में अधिक कानून अस्पष्ट अव्यावहारिक कानूनों का सिद्धान्त लागू  हुआ । न्यायालय और पुलिस ओवर लोडेड हुये । पुलिस पूरी मेहनत करके भी अपराधों की ठीक विवेचना नहीं कर पाती तो न्यायालय बीस बीस वर्ष तक निर्णय नहीं कर पा रहे । भारत की जनता सुरक्षा और न्याय की मांग करती है तो सरकार जनता को एक दो कानून और दे देती है जो जनता के लिये किसी काम के नहीं । आम नागरिक कानूनों के अधिकता से इतना परेशान है कि कानून तोड़ने को वह बिल्कुल अनैतिक काम नहीं समझता । भारत की जनता का सरकार पर इतना अविश्वास है कि जनता किसी भी प्रकार की टैक्स चोरी कालाधन का सहारा लेती है तो वही जनता जितना टैक्स चोरी से धन कमाती है उससे कई गुना ज्यादा मंदिर, धर्मशाला, धर्मगुरू अथवा अन्य सामाजिक कार्यों पर खर्च कर देती है । भारत की जनता को सरकारी कानूनों पर इतना अविश्वास हो गया है कि लोग आमतौर पर अपराधियों को प्रत्यक्ष दण्ड देना शुरू कर दिये हैं । किसी अफवाह में ही मारपीट और हत्या आम बात होती जा रही है। पुलिस भी यदि किसी अपराधी को गैरकानूनी तरीके से पकड़कर गोली मार दे तो जनता पुलिस वाले की प्रशंसा करती है । दूसरी ओर हर अपराधी पूरी कोशिश करता है कि वह भीड़ से किसी तरह बच निकले और सबसे अच्छा है न्यायालय । न्यायालय कानून से हट नहीं सकता और कानून अपराधी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता । गवाह गवाही देगा नहीं, निर्णय उसके मरते तक होगा नहीं, यदि जेल में रहा तो बाहर की तुलना में अधिक ही आराम है । आज स्थिति यह है कि न्याय और सुरक्षा के लिये सरकार पर भरोसा ही नहीं है । लोग अपनी सुरक्षा के लिये स्वयं चिन्तित हैं । गुण्डों और अपराधियों से सुरक्षा के लिये समझौते करने पड़ रहे हैं । सरकारी टैक्स की तुलना में गुण्डा तत्वों को अधिक पैसा मिल रहा है क्योंकि उनसे सुरक्षा की गारंटी है । लोग अपराधियों पर इतना ज्यादा आश्रित हैं कि अधिकांश अपराधों की तो थाने में रिपोर्ट न करके लोग अपराधी गुटों से ही न्याय मांगने लगे हैं ।

लोकतंत्र में एक कमी है कि सरकार जनहित की जगह लोकप्रिय कार्यों को महत्व देने लगती है । समाज में वर्ग संघर्ष बढ़ाकर सरकार बिचौलिये का काम करती है । धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता, उम्र, लिंग, गरीब-अमीर, उत्पादक-उपभोक्ता, शहरी-ग्रामीण जैसे वर्गों को सक्रिय करके सरकारें उनकी भावनाएं भड़काती है और टकराव का लाभ उठाती है । स्वतंत्रता से लेकर आज तक हर राजनैतिक दल इन सब टकरावों का पूरा-पूरा उपयोग कर रहा है । कोई भी दल इस टकराव को हवा देने में पीछे नहीं है ।

भारत की जनता ने नरेन्द्र मोदी को कुछ विशेष उम्मीदों के साथ वोट दिया । पिछली सरकारों की तुलना में सिर्फ एक बदलाव दिखा कि कश्मीर समस्या हल हुई और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण रोकने के ईमानदार प्रयास हो रहे हैं । शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार में भी कुछ बदलाव दिख रहा है किन्तु आदर्श राज्य के मैंने चार लक्षण उपर लिखे हैं उन चारों में कोई बदलाव नहीं है । शक्ति का जनता से निकलकर राज्य के पास बढ़ना, धन का गरीबों की तुलना में अमीरों के पास इकटठा होना, रोजगार का श्रम की तुलना में बुद्धिजीवियों की ओर बढ़ना, कानून पर शरीफों का घटता विश्वास, बढ़ता वर्ग संघर्ष ऐसे विषय हैं जिनमें पिछली सरकारों की लाइन ही आगे बढ़ाई जा रही है ।

प्रारम्भिक पांच वर्ष मोदी जी के लिये बहुत कम माने गये । अब भी राज्य सभा में उनका बहुमत नहीं है । अब भी मुसलमान विपक्ष से उम्मीद लगाये बैठा है फिर भी अब आदर्श राज्य व्यवस्था की दिशा में प्रारम्भिक कदम उठने चाहिये । मोदी जी आजीवन प्रधानमंत्री रह सकते हैं यह स्पष्ट है क्योंकि भारत की जनता अब पिछली राजनैतिक व्यवस्था की ओर नहीं लौट सकती । अन्य सभी राजनैतिक दल जनता का आदर्श राज्य व्यवस्था की रूपरेखा पर कुछ न बताकर पिछली व्यवस्था को ही दुहराना चाहते हैं जो असंभव है किन्तु मोदी जी से हम सत्ता में बदलाव की उम्मीद से हटकर कुछ व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद करते हैं ।