राजनीति के दस नाटक भाग 2
स्वतंत्रता के बाद भारत में कई प्रकार के लोकतंत्र आये लेकिन हर लोकतंत्र, लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही का ही स्वरूप था क्योंकि कभी भी संविधान का शासन नहीं रहा बल्कि संविधान संशोधन के असीम अधिकार तंत्र के पास ही रहे । पण्डित नेहरू का लोकतंत्र अलग था तो इन्दिरा जी का अलग । न्यायिक लोकतंत्र अलग था तो मनमोहन सिंह का अलग । अब नरेन्द्र मोदी का कुछ अलग लोकतंत्र है । लोकतंत्र का स्वरूप भले ही बदल रहा हो किन्तु व्यवस्था में कभी कोई बदलाव नहीं दिखा । जो व्यवस्था मोदी जी के पूर्व थी वही अब भी है । उस समय भी लोकतंत्र का अर्थ लोक नियुक्त तंत्र था तो आज भी वही है । उस समय भी संविधान तंत्र नियंत्रित था जो आज भी है । उस समय भी जनता अपना मैनेजर नहीं मालिक का चयन करती थी तो आज भी वही करती है । सिर्फ एक ही अन्तर दिखता है कि उस काल खंड की तुलना में मालिक की नीयत कुछ अधिक ठीक दिखती है किन्तु व्यवस्था तो वही की वही है ।
यह व्यवस्था प्रति पांच वर्ष में हमसे यह प्रमाण पत्र लेती है कि व्यवस्था ठीक है । हम खुशी-खुशी हम पांच वर्ष में मतदान को एक महापर्व मानकर उक्त व्यवस्था के प्रति सहमति व्यक्त करते हैं । यह एक प्रकार का जादू ही तो है जो प्रत्येक पांच वर्ष में हमारी सहमति स्वीकृति प्राप्त करके हमें गुलाम बनाये रखने का अधिकार लेता है । इस जादू को ही हम राजनीति के दस नाटक के नाम से पुकारते हैं । हम इस पूरे विषय को चार सप्ताह में समाधान पर चर्चा के साथ पूरा करेंगे । आज के इस लेख में हम दस में से तीन नाटकों की विस्तृत विवेचना करेंगे ।
- राज्य निरंतर प्रयास करता है कि समाज कभी एक जुट न हो । राज्य अपनी बांटो और राज्य करो की नीति के अन्तर्गत समाज को अनेक वर्गों में विभाजित करके उनमें इस तरह वर्ग विद्वेष फैलाता है कि समाज में वर्ग संघर्ष बढ़े और राज्य बिचौलिये के रूप में पंच बनकर उस संघर्ष का समाधान करता रहे । ऐसे वर्ग निर्माण में आठ आधार प्रमुख माने जाते हैंः- 1. पंथ 2. जाति 3. भाषा 4. क्षेत्रीयता 5. उम्र 6. लिंग 7. गरीब अमीर 8. उत्पादक उपभोक्ता । पंथ को ही धर्म कह दिया जाता है । स्वतंत्रता के बाद वर्ग संघर्ष के लिये धर्म अर्थात पंथ शब्द का व्यापक उपयोग किया गया । इस टकराव की नींव तो स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों ने ही डाल दी थी किन्तु स्वतंत्रता के बाद भी इसका पूरा पूरा लाभ उठाया गया । नेहरू अम्बेडकर को पता था कि हिन्दू बहुमत है किन्तु एकजुट नहीं हो सकता । मुसलमान एक जुट हो सकता है । दोनों ने मिलकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के साथ समझौता किया और हर तरह हिन्दुओं को दबाया गया । पहले तो यह षड्यंत्र गुप्त रूप से था किन्तु सोनिया गांधी के बाद यह पूरी तरह उजागर हो गया । परिणाम हुआ कि हिन्दू भी साम्प्रदायिक आधार पर संगठित हुआ और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में संघ और भाजपा की मिली जुली सरकार बन गई । माना जा रहा है कि यह हिन्दुओं की सरकार है । अब तक तो मोदी सरकार ने कोई साम्प्रदायिक भेदभाव शुरू नहीं किया है किन्तु इस सरकार के एक घटक का पूरा पूरा प्रयत्न है कि स्थायित्व के लिये साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को आधार बनाना आवश्यक है । भारत की राजनीति हिन्दू राष्ट्र और अल्प संख्यक तुष्टीकरण के बीच ध्रुवीकृत होती जा रही है । समाज में वर्ग संघर्ष का दूसरा आधार है जाति । वैसे तो स्वतंत्रता के बहुत पहले से ही जातीय शोषण अपने चरम पर था किन्तु इस जातीय शोषण का लाभ उठाया डॉक्टर अम्बेडकर ने । उन्होंने जातीय शोषण का लाभ उठाने के लिये इसे जातीय संघर्ष का स्वरूप दिया । धीरे-धीरे जातीय टकराव का एक हथियार के रूप में सभी दल उपयोग करने लगे । पहले तो यह टकराव सिर्फ सवर्ण अवर्ण के बीच ही था किन्तु बाद में यह टकराव अन्य जातियों तक फैल गया । वर्तमान में ब्राह्मण राजपूत का भी खतरनाक ध्रुवीकरण एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है । जिसमें लगभग सभी राजनैतिक दलों की रूचि बनी हुई है ।
वर्ग संघर्ष का तीसरा महत्वपूर्ण आधार है भाषा । भाषा सिर्फ विचार अभिव्यक्ति का माध्यम होती है किन्तु भाषा को राजनेताओं ने संस्कृति और रोजगार के साथ जोड़कर उसे टकराव का माध्यम बना लिया । नेहरू जी ने भाषावार प्रान्त बनाकर भाषा को और अधिक महत्व दे दिया । जब भी दक्षिण भारत को उत्तर भारत के साथ विवाद पैदा करना हो तो भाषा उसका सबसे सहज मार्ग है । अब तो धीरे धीरे उत्तर भारत भी आपसी विवाद के लिये क्षेत्रीय भाषाओं को आधार बनाने के लिये प्रयत्नशील हैं । हमारी छत्तीसगढ़ सरकार भी दिन रात भाषा को राजनैतिक सत्ता के खेल का मुख्य आधार बनाने के लिये सक्रिय रहती है । अन्य प्रदेश भी कहीं पीछे नहीं है ।
वर्ग संघर्ष का चौथा आधार है क्षेत्रीयता । उत्तर और दक्षिण के बीच तो यह टकराव चलता ही है । किन्तु प्रदेशों के आपसी टकराव के लिये भी क्षेत्रवाद का उपयोग किया जाने लगा है । क्षेत्रवाद का सबसे ज्यादा राजनैतिक उपयोग किया गया महाराष्ट्र तथा बिहार में । अब धीरे धीरे बंगाल सरकार भी उस दिशा में सक्रिय है । हरियाणा पंजाब का क्षेत्रीय टकराव हम देखते ही रहे हैं । अन्य प्रदेशों में भी क्षेत्रीय भावनाएं भड़काने का प्रयत्न जारी है । मध्य प्रदेश सरकार ने अभी सभी तरह की नौकरियों के लिये शत प्रतिशत क्षेत्रीय अनिवार्यता घोषित कर दी है । इस दिशा में अन्य प्रदेश भी पहल कर सकते हैं ।
सामाजिक विघटन के लिये राजनैतिक दल सबसे उपयोगी और प्रभावी हथियार मानते हैं आर्थिक असमानता । गरीब और अमीर की आज तक न पूरे विश्व में कोई स्पष्ट परिभाषा बनी है न भारत में किन्तु सभी राजनैतिक दल हमेशा ही इन दोनो शब्दों का भरपूर दुरूपयोग करते रहते हैं । साम्यवादी पार्टी का तो सत्ता संघर्ष के लिय प्रमुख आधार ही यही है । अनेक राजनैतिक दल गरीबी हटाओ का नारा लगाकर ही चुनाव जीतने की कोशिश करते रहे हैं तो कई राजनैतिक दल अमीरी हटाओ का भी नारा उठाने का प्रयास करते हैं । गरीबी रेखा और अमीरी रेखा तो इन राजनेताओं के खेल का एक हिस्सा लम्बे समय से बना रहा है ।
वर्ग संघर्ष का एक और माध्यम बना है उत्पादक उपभोक्ता । इन्हें किसान मजदूर के नाम से भी विभाजित किया जाता है । समय समय पर मजदूरों को भड़काकर इस टकराव का भरपूर उपयोग किया जाता है । स्वतंत्रता के बाद अब तक इस टकराव का कई बार व्यापक उपयोग हुआ ।
सभी राजनैतिक दल समाज व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने के लिये तो उपरोक्त छः आधारों का उपयोग करते रहे किन्तु जब तक परिवार व्यवस्था न टूटे तक तक राजनेताओं का उद्देश्य पूरा नहीं होता । इसके लिये उन्होंने दो शब्दों का उपयोग कियाः- 1 युवा वृद्ध 2 महिला पुरूष । युवा सशक्तिकरण और महिला सशक्तिकरण को एक अभियान के रूप में चलाया गया । राहुल गांधी को स्थापित करने के लिये युवा शक्ति को इकटठी करने की जो कोशिश हुई उसके भयानक दुष्परिणाम कांग्रेस पार्टी में ही विवाद के रूप में दिखने लगे हैं तो महिला सशक्तिकरण का नारा भी परिवार व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने का महत्वपूर्ण आधार बनता दिख रहा हैं । महिला पुरूष के बीच तो संगठित टकराव जल्दी ही देखने को मिल सकता है ।
पूरा विश्व जानता है कि व्यक्ति दो ही प्रकार के होते हैः- 1. अच्छे 2. बुरे । न सभी हिन्दू अच्छे होते हैं न सभी हिन्दू बुरे । न सभी मजदूर अच्छे होते है न सभी मालिक बुरे । किन्तु सभी राजनेता इन आधारों पर निरंतर वर्ग विद्वेष बढ़ाकर उसका लाभ उठाते रहते हैं । भारत में तो यह प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है ।
राजनेताओं के नाटक का दूसरा भाग यह है कि भारत का प्रत्येक नागरिक स्वयं अपराध भाव से ग्रसित हो । देश का कोई भी व्यक्ति कभी सिर उठाकर न कह सके कि वह अपराध नहीं करता । यह कार्य पूरे लोकतांत्रिक तरीके से किया जाता है । इसके लिये सबसे पहले अपराध गैरकानूनी और अनैतिक को एक साथ जोड़कर सबको अपराध घोषित किया जाता है । वर्तमान भारत में एक सामान्य नागरिक भी तीनों का अन्तर समझता और जानता है किन्तु इन तीनों का अन्तर न सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बता सकते हैं न ही संविधान विशेषज्ञ । कोई भी धर्मगुरू या समाज शास्त्री तीनों का फर्क नहीं बता पाता । धीरे-धीरे इस अपराध शब्द के एकीकरण का लाभ उठाकर राजनेता समाज में इतने अधिक कानूनों का जाल बिछा देता है कि कोई भी व्यक्ति उससे स्वयं को बचा ही नहीं पाता । पूरे भारत में एक भी ऐसा आदमी आपको नहीं मिलेगा जो किसी भी कानून का उल्लंघन न करे । भिखारी से लेकर राष्ट्रपति तक लगातार कहीं न कहीं कानून तोड़ते रहते हैं और इसीलिये वे राजनेताओं और प्रशासन से भयभीत रहते हैं । यह अपराध भाव राजनेताओं के लिये एक कवच का काम करता है । किसी भी प्रकार का शोषण कभी अपराध नहीं होता किन्तु कानूनी शब्दावली में शोषण भी अपराध होता है । कानून ने तो आत्महत्या तक को अपराध घोषित कर रखा है । स्थिति यहाँ तक खराब है कि यदि आप गूगल में भी सर्च करेंगे तो तीनों में आपको कोई अन्तर नहीं मिलेगा क्योंकि यह षड्यंत्र विश्वव्यापी है किन्तु भारत में इस शस्त्र का प्रयोग अधिक होता है ।
राजनीति का एक तीसरा प्रभावी सूत्र यह है कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति राज्य को अनिवार्य आवश्यकता महसूस करे । समाज राज्य को प्रबंधक या मैनेजर न मानकर मालिक माने । इसके लिये बचपन से ही शासक और शासित का भाव भरा जाता है । प्रत्येक व्यक्ति को मानसिक स्तर पर तैयार किया जाता है कि वह अपूर्ण है, अक्षम है, अयोग्य है । उसे हर हालत में राज्य का आश्रय चाहिये ही । लगातार कोशिश की जाती है कि सामान्य लोग राज्य के मुखापेक्षी बनें । वे किसी भी मामले में आत्म निर्भर न हो न स्वावलम्बी बने । धार्मिक सामाजिक आर्थिक पारिवारिक यहाँ तक कि व्यक्तिगत मामलों में भी वे स्वयं निर्णय लेने में क्षमता विकसित न कर सकें । भोजन, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ सहित सभी मामलों में उनका निर्णय राज्य करें । वर्तमान समय में तो एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं बचा है जिसमें राज्य के हस्तक्षेप का अधिकार न हो । व्यक्ति पूरी तरह राज्य के गुलाम सरीखा बनता जा रहा है ।
हमने इस विषय पर तीन बिन्दु रखे हैं । अगले दो सप्ताह इस विषय पर और चर्चा चलेगी उसके बाद समाधान की चर्चा होगी ।
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