भ्रष्टाचार की परिभाषा और हमारी सामाजिक धारणा

भ्रष्टाचार की परिभाषा और हमारी सामाजिक धारणा

हाल ही में छत्तीसगढ़ के एक मेडिकल कॉलेज को अनुमति दिलाने के मामले में दिल्ली से लेकर छत्तीसगढ़ तक के कई उच्च सरकारी अधिकारियों के खिलाफ घूस लेने का आरोप सामने आया है। कहा जा रहा है कि इस प्रक्रिया में सैकड़ों करोड़ रुपये की अवैध लेन-देन हुआ है। इस पर जब गंभीर जांच शुरू हुई, तो यह स्पष्ट हुआ कि घूस लेना-देना देशभर में एक 'शिष्टाचार' की तरह व्यवहार में आ चुका है — एक तरह की अवैध लेकिन स्वीकृत सेवा शुल्क जैसा।

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार ने इस प्रकरण में न केवल घूस लेने वालों पर कार्रवाई शुरू की, बल्कि घूस देने वालों को भी अपराधी घोषित कर कार्यवाही शुरू कर दी है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या घूस देना वास्तव में अपराध है?

जब घूस देना मजबूरी हो, तो क्या वह अपराध है?

कानून की दृष्टि से भले ही घूस देना और लेना दोनों दंडनीय हों, परंतु व्यवहारिक जीवन में अनेक बार हम ऐसी परिस्थितियों में होते हैं, जहां घूस देना मजबूरी बन जाता है — जैसे कि समय पर इलाज करवाना, यात्रा में सीट पाना, या किसी आवश्यक सरकारी कार्य को समय पर करवाना।

मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही रहा है कि जीवन के अनेक साधारण कार्यों में मुझे बार-बार घूस देनी पड़ी है — टिकट कन्फर्म करवाने के लिए, अस्पताल में जल्दी नंबर पाने के लिए, किसी फ़ाइल को समय पर चलाने के लिए। यदि यह सब अपराध है, तो फिर शायद देश का हर आम नागरिक प्रतिदिन अपराध कर रहा है। क्या यह समाज की विफलता नहीं है कि ईमानदारी से कार्य करवाने का रास्ता ही बंद हो गया है?

घूस लेने वाला वास्तव में किसका अपराधी है?

यह भी विचारणीय है कि जब कोई सरकारी अधिकारी घूस लेता है, तो वह किसके प्रति अपराध कर रहा है? समाज ने उसे नियुक्त नहीं किया है; उसे नियुक्त करने वाली संस्था के प्रति वह ज़रूर उत्तरदायी है। परंतु, आम जनता जब व्यवस्था से निराश होकर शुल्क देकर कार्य करवाती है, तो उसका अपराधी कौन?

नए सिरे से परिभाषा की आवश्यकता

अब समय आ गया है कि भ्रष्टाचार की परिभाषा को नए दृष्टिकोण से देखा जाए। क्या सभी प्रकार का घूस देना और लेना एक ही तराजू में तौला जा सकता है? क्या पीड़ित और उत्पीड़क को एक जैसा अपराधी कहना न्याय है?

हमारा प्रस्ताव यह है कि:

  • घूस लेना, यदि वह शक्ति के दुरुपयोग से किया गया हो, तो वह स्पष्ट अपराध हो;
  • घूस देना, यदि वह अत्याचार या अन्याय से बचने का तरीका हो, तो उसे अपराध न माना जाए;
  • भ्रष्टाचार की नई परिभाषा व्यवहारिक और नैतिक आधार पर हो, न कि केवल कानूनी शब्दों पर।

हमें समाज में इस विषय पर व्यापक विचार-विमर्श चलाना चाहिए ताकि कानून, नैतिकता और जीवन की व्यावहारिक सच्चाई के बीच एक संतुलन स्थापित किया जा सके।