हमारी संपूर्ण व्यवस्था मूलतः दो भागों में विभाजित है — समाज व्यवस्था और राज्य व्यवस्था।
11 नवंबर, प्रातःकालीन सत्र
हमारी संपूर्ण व्यवस्था मूलतः दो भागों में विभाजित है — समाज व्यवस्था और राज्य व्यवस्था। इन दोनों के कार्यक्षेत्र भिन्न हैं और इनका उद्देश्य भी अलग-अलग है।
वर्तमान समय में पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर चुनौती के रूप में हमारे सामने है। दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक हो चुकी है, जिसका सीधा प्रभाव समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ रहा है। दूसरी ओर हिंसा और आतंकवाद भी उतने ही भयावह संकट बन चुके हैं। आतंकवाद का उन्मूलन किसी भी स्थिति में अनिवार्य है।
ऐसे समय में यह आवश्यक है कि समाज और राज्य — दोनों अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का स्पष्ट विभाजन करें।
- राज्य का दायित्व है कि वह हिंसा, आतंक, अपराध, बल-प्रयोग और जालसाजी पर नियंत्रण रखे।
- समाज का दायित्व है कि वह पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अधिक सक्रिय हो, क्योंकि प्रकृति को शुद्ध और संतुलित रखना समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है।
दुर्भाग्यवश आज न्यायपालिका और शासन दोनों में प्राथमिकताओं का यह संतुलन बिगड़ गया है। न्यायपालिका पर्यावरण के विषय में अत्यधिक सक्रिय हो गई है, जबकि सरकार ने स्पष्ट रूप से यह नीति अपनाई है कि—
“हम पर्यावरण की तुलना में विकास को, और विकास की तुलना में अपराध नियंत्रण को अधिक महत्व देंगे।”
इस दृष्टि से पर्यावरण की चिंता सरकारी प्राथमिकता सूची में तीसरे स्थान पर चली जाती है। कभी-कभी न्यायपालिका या कुछ राजनेता पर्यावरण को अत्यधिक प्राथमिक विषय मानने लगते हैं, जो संतुलित दृष्टिकोण नहीं है।
नई समाज व्यवस्था में हम यह स्पष्ट मान्यता रखेंगे कि —
“पर्यावरण को तीसरे स्थान पर रखा जाए, विकास को दूसरे पर, और हिंसा या अपराध नियंत्रण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए।”
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