दुनिया में लोकतंत्र कितना आदर्श कितना विकृत

दुनिया में लोकतंत्र कितना आदर्ष कितना विकृत

दुनिया में भारत विचारों की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था। भारत जब गुलाम हुआ तब भारत में चिंतन बंद हुआ तथा भारत विदेषों की नकल करने लगा। पष्चिम के देषों ने तानाषाही के विकल्प के रुप में लोकतंत्र को विकसित किया। लोकतंत्र तानाषाही का समाधान न होकर एक अस्थायी सुधार मात्र था। अब तक वही विकृत लोकतंत्र दुनिया में तानाषाही से मुकाबला कर रहा है, किन्तु वह समाधान न होने से कुछ समस्याएॅ भी पैदा कर रहा है। कुछ स्वीकृत सिद्धांत हैं-
(1) लोक सर्वोच्च है और तंत्र प्रबंधक। वर्तमान में तंत्र संरक्षक बन गया है और लोक संरक्षित।
(2) दुनिया की अनेक बडी समस्याएॅ धर्म,राष्ट्र,अर्थ आदि के माध्यम से वर्चस्व प्राप्त करने की छीनाझपटी का परिणाम है। इनमें भी राज्य की भूमिका सर्वाधिक है।
(3) किसी भी दायित्व को पूरा करने के लिए प्रबंधक को कुछ शक्ति दी जाती है। यह शक्ति दाता की अमानत होती है,प्रबंधक का अधिकार नहीं। वर्तमान में राजनेता अमानत को अधिकार मानने लगे है।
(4) स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। राज्य उस अधिकार की सुरक्षा मात्र करता है। वर्तमान में राज्य दाता बन गया हैं।
(5) राज्य कानून के द्वारा व्यक्ति की उच्श्रृंखलता पर नियंत्रण करता है,समाज पर नहीं ,क्यांेकि समाज मालिक होता है और राज्य प्रबंधक।
(6) समाज एक अदृष्य इकाई है जिसमें दुनिया के सभी व्यक्ति समान रुप से शामिल होते है, चाहे वे कहीं के नागरिक हो या न भी हो।

दुनिया की व्यवस्था चार प्रवृत्तियों का समिश्रण होती है-(1) विचार मंथन और मार्ग दर्षन (2) शक्ति और सुरक्षा (3) धन और सुविधा (4) पूर्ण स्वतंत्रता और सेवा। इसे ही प्राचीन समय में ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैष्य,षूद्र प्रवृत्ति का नाम दिया गया था। भारत मुख्य रुप से ब्राम्हण प्रवृत्ति का, इस्लाम क्षत्रिय प्रवृत्ति का,पष्चिम वैष्य प्रवृत्ति का और साम्यवाद शूद्र प्रवृत्ति को मुख्य आधार बनाकर चले। ब्राम्हण और वैष्य प्रवृत्ति वालो ने दुनिया में हिंसक खतरे को या तो निरुत्साहित किया या मजबूरी में अपनाया । जबकि क्षत्रिय और शूद्र प्रवृत्ति वालो ने हिंसा को पहले शस्त्र के रुप में उपयोग किया। मैं ऐसे परिवारों को जानता हॅू जिन्होने अपना नुकसान सहकर भी प्रत्यक्ष या कानूनी टकराव को टाला। कभी कभी ऐसे टकराव टालने को कायरता की भी संज्ञा दी गई किन्तु उन्होने टकराव से बचने को प्राथमिकता दी। मैं देख रहा हॅू कि ऐसे लोग अपने जीवन के हर क्षेत्र में अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक सफल रहे। ऐसे परिवारों में हर सदस्य को यह विषेष ट्रेनिंग होती थी कि गलत बात बर्दास्त करने की आदत ही विचारक और वैष्य की पहचान होती है। दूसरी ओर अनेक परिवार मॅूछ की लडाई में बर्बाद होते तक परेषान देखे गये। स्पष्ट है कि हिन्दू और इसाई ब्राम्हण या वैष्य प्रवृत्ति प्रमुख माने जाते है। दूसरी ओर मुसलमान साम्यवादी क्षत्रिय और शूद्र प्रवृत्ति के।

यदि हम वर्तमान विष्व की शांति व्यवस्था की समीक्षा करें तो दुनिया में लोकतंत्र निर्णायक बढत लेने के बाद भी युद्ध के खतरों से मुक्ति का विष्वास नहीं दिला पाया। कई विष्व युद्ध होने और उसके नुकसान को देखने के बाद भी दुनिया फिर विष्व युद्ध के खतरे की तरफ बढ रही है। वर्तमान दुनिया में विष्व युद्ध के लिए चार संभावनाएॅ प्रबल हो रही हैं-(1) उत्तर कोरिया और अमेरिका। (2) पाकिस्तान और भारत (3) कतर और साउदी अरब (4) चीन और भारत। मैं स्पष्ट कर दॅू कि अमेरिका दुनिया में एक शक्ति केन्द्र के रुप में दिख रहा है, तो चीन दूसरे शक्ति केन्द्र के रुप में। विष्व युद्ध की दृष्टि से चीन हर युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा तो अमेरिका भी चीन के विरुद्ध रहेगा ही। दुनिया चांद पर जा रही है नये नये ब्राम्हांड खोज रही है। गौड पार्टिकल तक रिसर्च हो रहा है किन्तु विष्व युद्ध से बचने का कोई स्थायी फार्मूला नहीं निकल पा रहा। विष्वयुद्धों में होने वाले नुकसान की विभीषिका की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है किन्तु वर्चस्व की लडाई उससे भी आगे निकल रही है।

हम यदि दुनिया से बाहर निकल कर भारत की समीक्षा करें तो भारत भी अपने आंतरिक मामलों में निरंतर गृहयुद्ध की दिषा में बढ रहा है। नरेन्द्र मोदी के आने के पूर्व तक हिन्दू अपने को दूसरे दर्जे का नागरिक मानकर संतुष्ट रहने के लिए मजबूर था। स्पष्ट है कि गृहयुद्ध का कोई खतरा दूर दूर तक नहीं दिखता था। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद आमतौर पर हिन्दुओं में वर्चस्व की इच्छा बढी है जबकि मुसलमान अब भी अपनी पुरानी स्थिति के फिर से आने की प्रतिक्षा कर रहा है। यह वर्चस्व की लडाई ही भारत में गृहयुद्ध की संभावना का विस्तार कर रही है। मुझे तो स्पष्ट दिखता है कि यदि भारत के मुसलमानों ने अपनी प्रतीक्षा को नहीं छोडा तो गृहयुद्ध टाला नहीं जा सकेगा। सारी दुनिया में भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता इस सीमा तक कटघरे में खडी हो चुकी है कि कहीं से उन्हें भारत में मजबूत समर्थन मिलने की संभावना नहीं है। भारत का हिन्दू जनमत अब तीन वर्ष पूर्व की स्थिति में जाने को तैयार नहीं है। इसका अर्थ है कि भारत का गृहयुद्ध टालने की पहल सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम विवेक के पास ही है।

मैं देख रहा हॅू कि यदि भारत के मुसलमान दब भी गये तो साम्प्रदायिक संघ परिवार उसे दबने नहीं देगा। क्योंकि साम्प्रदायिकता को कभी संतुष्ट नहीं किया जा सकता। उसे तो सिर्फ कुचला ही जा सकता है और वर्तमान परिस्थितियों में हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता को एक साथ कुचलना मोदी के बस की बात नहीं है। इसलिए यह संभव दिखता है कि यदि मुसलमानों ने सुझबुझ से काम नहीं लिया तो संघ परिवार के बढते वर्चस्व पर नियंत्रण असंभव हो जायेगा। विपक्ष में नीतिष कुमार को छोडकर अन्य कोई ऐसा नेता नहीं है जिससे भारत के अल्पसंख्यकों को कोई उम्मीद करनी चाहिये। लेकिन नासमझ अल्पसंख्यक अब भी इन मृत विपक्षी नेताओं के जीने की प्रतीक्षा में समय गंवा रहे हैं। यह समय बहुत महत्वपूर्ण है और भारत के अल्पसंख्यकों को जल्दी ही निर्णय लेना चाहिये। उनके समक्ष तीन विकल्प दिखते हैं-
(1) अल्पसंख्यक बहुत तेजी से समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए अल्पसंख्यक बहुसंख्यक शब्द और कानून का विरोध शुरु करंे। स्पष्ट है कि संघ परिवार समान नागरिक संहिता के विरुद्ध समान आचार संहिता अथवा हिन्दू राष्ट्र की मांग शुरु कर देगा।
(2) भारत के अल्पसंख्यक बहुत तीब्र गति से कष्मीर के कटटरवादी मुसलमानों के विरुद्ध आवाज उठानी शुरु कर दें। कष्मीर का समाधान बातचीत से नहीं बल्कि सैनिक बल पर होना चाहिए, यह मांग अल्पसंख्यक करनी शुरु कर दें।
(3) भारत के अल्पसंख्यक बहुत तेजी से नरेन्द्र मोदी के पक्ष में खडे हो जाये क्योंकि 2019 के चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार के बीच वर्चस्व के लिए टकराव होना निष्चित है।
(4) यदि विपक्ष को मजबूत करना हो तो अल्पसंख्यकों को नीतिष कुमार की तरफ ध्रुवीकृत हो जाना चाहिए।
हमें विष्व युद्ध से बचने का मार्ग भी खोजना होगा और गृहयुद्ध से भी। वर्तमान संयुक्त राष्ट्र संघ विष्वयुद्ध को कुछ दिन के लिए विलंबित कर सकता है किन्तु खतरा हमेषा बना रहेगा। इसके लिए आवष्यक है कि एक विष्व सरकार की पहल की जाये। वह विष्व सरकार राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व न करे बल्कि मनुष्यांे का करें। अर्थात दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति उस विष्व सरकार का मतदाता हो। विष्व सरकार के पास काम के रुप में सिर्फ सुरक्षा और न्याय ही हो। इस तरह एक विष्व समाज की रुपरेखा बनायी जा सकती है। यद्यपि यह यूटोपिया से अधिक कुछ नहीं दिखता किन्तु वैचारिक शुरुवात तो हो ही सकती है। इसके साथ साथ गृहयुद्ध को टालने के लिए हमेें भारत के अल्पसंख्यकों को यथार्थ स्थिति से अवगत कराना चाहिए तथा ज्यों ज्यों अल्पसंख्यक यथार्थ को समझने लगे त्यों त्यों हम हिन्दू साम्प्रदायिकता पर भी आक्रमण बढाते चले। गृहयुद्ध को टालने के लिए दो साम्प्रदायिक शक्तियों के बीच वर्चस्व की लडाई में तीसरी शक्ति के रुप में खडे होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। आषा है कि भारत के अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक इस दिषा में सोचेंगे।

लोक तंत्र हमारा मार्ग है लक्ष्य नहीं। कई सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी यदि भारत विष्व युद्ध या गृह युद्ध के भय से मुक्त नही हो सका तो भारत को लोक तंत्र की कमजोरियां खोजकर दुनियां का मार्ग दर्षन करना चाहिये। मुस्लिम साम्प्रदायिकता से सुरक्षा के लिये यदि हिन्दु साम्प्रदायिकता का सहारा लेना पड रहा है तो यह हमारी अल्प कालिक मजबूरी तो हो सकती है किन्तु समाधान नहीं। हम इस गंभीर विष्व व्यापी समस्या के दीर्घकालिक समाधान पर भी विचार करें। दुनियां को तानाषाही से मुक्त बनाने की दिषा मे पष्चिम निरंतर प्रयत्नषील है। भारत दुनियां को साम्प्रदायिकता से मुक्त कराने की दिषा मे पहल कर सकता है। मेरे विचार से वह पहल हो भी चुकी है। भारत को अपने आंतरिक लोकतंत्र के सुधार के लिये संसद मे सत्ता और विपक्ष की शासन प्रणाली को बदलकर निर्दलीय संसद व्यवस्था की भी पहल करनी चाहिये।
दुनियां के लोकतंत्र के समक्ष सबसे बडी समस्या यह है कि मै और हम के बीच मै हम पर हावी हो जा रहा है। यह स्थिति परिवार से लेकर विष्व तक की बन गई है। स्वामी दयानंद ने आर्य समाज के दसवे नियम मे मै और हम की सीमाएं बताई है किन्तु उन्हे ठीक से समझा नही जा रहा है। मेरे विचार से समय आ गया है कि मै पर हम भारी पडे।

लोकतंत्र लोक नियुक्त तंत्र होता है जिसमें तंत्र सरकार होता है। तंत्र सुषासन की चिंता करता है। तंत्र कस्टोडियन अर्थात संरक्षक होता है । तंत्र सर्वाधिकार सम्पन्न होता है। वह कानून भी बनाता है,पालन भी कराता है तथा समीक्षा भी करता है। तंत्र समाज से भी उपर होता है। तंत्र जब चाहे जितना चाहे उतने अधिकारों के उपयोग की समाज को अनुमति देता है तथा जब चाहे अनुमति वापस ले सकता है। तंत्र ही जनहित को परिभाषित कर सकता है, जन या व्यक्ति को ऐसा अधिकार नहीं।
लोकतंत्र का संषोधित परिमार्जित स्वरुप है लोक स्वराज्य अर्थात सहभागी लोकतंत्र। इसमें तंत्र सरकार न होकर प्रबंधक होता है। तंत्र सुरक्षा और न्याय तक सीमित रहकर प्रत्येक व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की व्यवस्था करता है। तंत्र संविधान के अनुसार कानून बनाता पालन कराता तथा समीक्षा करता है किन्तु तंत्र संविधान संषोधन नहीं कर सकता। तंत्र समाज से नीचे होता है और व्यक्ति से उपर। जब कोई व्यक्ति समाज से भी उपर होकर मनमानी करने लगे तब तंत्र हस्तक्षेप करता है। समाज के विभिन्न समूह परिवार गांव जिला प्रदेष और केन्द्र जितना कार्य तंत्र को सौंपते है तंत्र उतना ही करता है। तंत्र आर्थिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लोक की सहमति से तंत्र अपने खर्च के लिये टैक्स लगाता है न कि मनमाना। लोक की विभिन्न इकाइयंा अपने अधिकार अपने पास रखती हैं । वे जनहित को स्वयं परिभाषित कर सकती है।
मेरे विचार से यह अवधारणा मूल रुप से भारत की रही है जो गुलामी काल से विलुप्त हुई तथा बाद मंे पष्चिम की नकल के रुप में आयी। अब भारत ही इसकी पहल कर सकता है।