मानवीय ऊर्जा और कृत्रिम ऊर्जा

मानवीय ऊर्जा और कृत्रिम ऊर्जा

ऊर्जा के मुख्य रूप से दो स्रोत माने जाते हैं 1. जैविक 2. कृत्रिम। जैविक ऊर्जा में मनुष्य और पशु को सम्मिलित किया जाता है। कृत्रिम ऊर्जा में डीजल, पेट्रोल, बिजली, केरोसीन, गैस और कोयला को मानते है। हवा को भी आंशिक रूप से कृत्रिम ऊर्जा में माना जा सकता है। जैविक ऊर्जा भी दो प्रकार की होती है। 1. मानवीय 2. पशु। इन दोनो में यह अंतर है कि मनुष्य मानव समाज का अंग है और पशु मनुष्य का सहायक। पषुओं को कोई मौलिक अधिकार नहीं होता। जबकि मनुष्यों को होते हैं, इसलिये सारी व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु मनुष्य ही होता है।

मनुष्य भी दो प्रकार के होते हैं 1. श्रमजीवी 2. बुद्धिजीवी। श्रमजीवी मनुष्य अपनी स्वयं की मानवीय ऊर्जा का उपयोग करके अपना भरण पोषण करता है, और बुद्धिजीवी दूसरों की मानवीय ऊर्जा का अपने भरण पोषण में अधिक उपयोग करता है। इस तरह एक व्यक्ति अपना श्रम बेचता है जबकि दूसरा श्रम खरीदकर उसका लाभ उठाता है संपूर्ण सामाजिक तथा राजनैतिक व्यवस्था में श्रम खरीदने वालो का विशेष प्रभाव रहता है इसलिये श्रम खरीदने वाले ऐसे अनेक प्रयत्न करते रहते हैं जिससे मानवीय श्रम की मांग और मूल्य न बढे़।

बहुत प्राचीन समय में श्रम शोषण के उददेश्य से ही बुद्धिजीवियों ने जन्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था को अनिवार्य किया और अपनी श्रेष्ठता आरक्षित कर ली। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने श्रम शोषण के लिये कृत्रिम ऊर्जा के अधिक उपयोग को आधार बनाया। नई नई मशीनों का उपयोग बढा और कृत्रिम ऊर्जा को सस्ता रखने के लिये मानव अथवा पशु द्वारा उत्पादित एवं उपभोग की वस्तुओं पर विभिन्न प्रकार के टैक्स लगा दिये गये। इस समस्या को दृष्टिगत रखते हुये अलग अलग समय में महापुरूषों ने अलग अलग प्रयोग किये। स्वामी दयानंद ने जन्मना जाति व्यवस्था को बदलकर कर कर्म आधारित दिशा देने की कोशिश की जिसे स्वतंत्रता के बाद बुद्धिजीवियों ने विफल कर दिया। पश्चिमी देशों में मार्क्स ने एक नया प्रयोग किया जिसके अनुसार मशीनों के प्रयोग से प्राप्त सारा धन आम जनता के बीच वितरित करने की कोशिश हुई। एक अन्य महापुरूष महात्मा गांधी ने प्रयत्न किया कि मशीनों का प्रयोग कम से कम किया जाये और मानवीय श्रम को अधिक से अधिक महत्वपूर्ण बनाया जाये। मार्क्स का सिद्धांत इसलिये असफल हुआ क्योंकि मशीनों से प्राप्त सारा धन आम नागरिको में न बंटकर राष्ट्रीय सम्पत्ति के रूप में संग्रहित हो गया, जिसमे सरकार ही सब कुछ हो गई। गांधी का विचार पूरी तरह छोड दिया गया, क्योंकि बुद्धिजीवियों को यह विचार पसंद नहीं था, साथ ही पूंजीवादी देशों से भारत को आर्थिक आधार पर प्रतियोगिता भी करना आवश्यक था। वैसे भी पूरी दुनियां में पूंजीवाद सर्वमान्य सिद्धांत के रूप में स्थापित हो रहा है इसलिये मार्क्स और गांधी के प्रयत्नों पर कोई विचार उचित नहीं है। पूंजीवाद, श्रम शोषण की असीम स्वतंत्रता का पक्षधर है इसलिये यह संकट पूरी दुनियां के लिये स्थापित है कि मानवीय श्रम को बुद्धिजीवियों और पूंजीपतियों के शोषण से कैसे बचाया जाये। भारत इस समस्या से अधिक प्रभावित है, क्योंकि भारत श्रम बहुल देश है और पश्चिम श्रम अभाव देश। श्रम अभाव देशों में श्रम शोषण की समस्या कोई महत्व नहीं रखती है जबकि भारत में बहुत महत्व रखती है।

हमें निर्यात भी बढाना है और देश का उत्पादन भी बढाना है, इसलिये हम मशीनों का उपयोग कम नहीं कर सकते किन्तु हमें श्रम के साथ न्याय भी करना होगा। इसके लिये हमें पूंजीवाद का अंधानुकरण न करके नई अर्थव्यवस्था बनानी होगी अर्थात कृत्रिम ऊर्जा को इतना अधिक मंहगा कर दिया जाये कि समाज में श्रम की मांग बढे और श्रम का मूल्य भी बढे तथा साथ साथ देश का उत्पादन भी बढे। यदि कृृत्रिम ऊर्जा को मंहगा कर दिया जायेगा तो हमारी बेकार पडी श्रम शक्ति भी उत्पादन में लग सकेगी तथा अनावश्यक उपयोग में खर्च हो रही कृत्रिम ऊर्जा भी उत्पादन में लग सकेगी। इसका एक लाभ यह भी होगा कि गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी के उत्पादन और उपभोग की वस्तुयें कर मुक्त हो सकेंगी। इससे प्राप्त अतिरिक्त धन समाज में समान रूप से वितरित भी किया जा सकता है तथा विदेशों से निर्यात भी प्रभावित नहीं होगा क्योंकि हम निर्यात में आवश्यक छूट दे सकेगे। विदेशों से डीजल, पेट्रोल का आयात कम हो जायेगा और सौर उर्जा का उपयोग बढ जायेगा। पर्यावरण प्रदूषण कम हो जायेगा तथा अन्य अनेक लाभ भी होगें किन्तु सबसे बडा लाभ श्रम के साथ न्याय को माना जाना चाहिये।

मैं जानता हूॅ कि वर्तमान पूंजीवाद ऐसी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगा। आर्थिक असमानता और श्रम शोषण के आधार पर ही वर्तमान में पूंजीवाद की दीवार बनी हुई है। यदि कृत्रिम ऊर्जा की मूल्य वृद्धि हो गई तो पूंजीवादी दीवार की जडे़ खोखली हो जायेगी। पूंजीवाद और पूंजीवाद का लाभ उठा रहे लोग कृत्रिम ऊर्जा का मूल्य कभी नहीं बढने देंगे। किन्तु मानवीय आधार पर हम सबको आवश्यक रूप से विचार करना चाहिये कि श्रम शोषण भले ही अपराध न हो किन्तु अमानवीय भी है और अनैतिक भी। मेरा आप सब से निवेदन है कि हम अपने स्वार्थ से थोडा उपर उठकर इस सुझाव पर सोचने का प्रयास करे कि श्रमजीवियों की और पशुओं की कीमत पर हमारा विकास कितना उचित है। हम कृत्रिम ऊर्जा मूल्य वृद्धि का समर्थन करके इस कलंक से बच सकते हैं।