मंहगाई का भूत
मंहगाई का भूत
भूत और भय एक दूसरे के पूरक होते है। भूत से भय होता है और भय से भूत। भूत का अस्तित्व लगभग न के बराबर ही होता है और इसलिये उसका अच्छा या बुरा प्रभाव भी नही होता किन्तु लगभग शत प्रतिषत व्यक्ति भूत से भयभीत रहते है। यहां तक कि छोटे बच्चे भी क्यांेकि बचपन से ही बच्चांे मे भूत का अस्तित्व बना दिया जाता है।
ठीक भूत के समान ही स्थिति मंहगाई शब्द की भी है । न महंगाई है न ही आज तक उसका आम जन जीवन पर कोई बुरा प्रभाव पडा किन्तु स्वतंत्रता के तत्काल बाद से ही आज तक शत प्रतिषत भारत मंहगाई से चिन्तित है। सन सैतालीस से आज तक मै मंहगाई बढने की बात सुनता रहा हॅू तथा आज भी सुन रहा हॅू। किन्तु जब मै प्रचार से दूर होकर वास्तविकता को खोजने लगा तब मैने देखा कि मंहगाई बिल्कुल ही अस्तित्व हीन प्रचार है और षणयंत्र पूर्वक जान बूझकर समाज मे मंहगाई का भय पैदा किया जाता है। लगभग हर सरकार मंहगाई को कम करते करते बदल भी जाती है। फिर भी मंहगाई एक ऐसा काल्पनिक दैत्य है जो लगातार शक्तिषाली होते हुए दिखता है।
मान्य सिद्धान्त है कि किसी वस्तु की तुलना जिस आधार वस्तु से होती है उस आधार वस्तु को स्थिर होना चाहिये। बहुत प्राचीन समय से सोने को आधार माना गया था जो बाद मे भारत की स्वतंत्रता तक चांदी के रूप मे स्थिर रहा। स्वतंत्रता के बाद आधार बदल गया और वह रांगा से गुजरते गुजरते सरकारी मान्यता प्राप्त कागज तक आ गया। मै नही समझ सका कि सन सैतालीस मे एक चांदी के रूपये के बदले जितना सामान मिलता था उसकी तुलना मे आज के रूपये से उतना सामान कैसे संभव है। स्पष्ट है कि रूपया स्थान बदल लिया और उस स्थान बदलाव को धूर्त लोग मंहगाई के नाम से प्रचारित करते रहे।
मंहगाई और मुद्रा स्फीति अलग अलग शब्द हंै । मुद्रा स्फीति का अर्थ होता है नगद रूपया पर अधोषित कर और उसका प्रभाव होता है नगद रूपये का मूल्य ह्रास। इसका वस्तुओ की कीमत पर कोई प्रभाव नही पडता। अन्य किसी भी परिस्थिति मे मंहगाई नही बढती। क्योकि वस्तु मंहगी हो सकती है और वस्तुओ के औसत को मंहगाई कहा जाता है जो सिर्फ मुद्रा स्फीति होती है, मंहगाई नही । सन 47 मे एक मजदूर को दिनभर की मजदूरी के बदले मे जितना अनाज दिया जाता था उसकी तुलना मे आज लगभग 6 से 8 गुना तक अधिक अनाज दिया जाता है। कई बार प्रष्न करने के बाद भी किसी ने यह उत्तर नही दिया कि स्वतंत्रता के बाद अनाज सस्ता हुआ या नही और श्रम मंहगा हुआ या नही। यदि हम सम्पूर्ण भारत के जीवन स्तर का आकलन करे तो जीवन स्तर मे तैतीस प्रतिषत गरीब लोगो के बीच लगभग दो गुना सुधार हुआ है। यदि मंहगाई है तो या तो उसका दुष्प्रभाव नही है या उसका अच्छा प्रभाव पड रहा है। फिर भी स्पष्ट दिखते हुए भी मंहगाई और उसके दुष्प्रभाव की चर्चा निरंतर जारी है। देष विकास कर रहा है। संभव है कि तेतीस प्रतिषत गरीब लोगो की विकास दर एक हो, मध्यम वर्ग की 6 हो, उच्च वर्ग की 12 हो किन्तु विकास दर तो लगातार जारी है। मै नही समझा कि यदि मंहगाई है और उसका दुष्प्रभाव भी है तो तैतीस प्रतिषत गरीब तबके की विकास दर त्रृणात्मक क्यों नहीं है।
मंहगाई का अस्तित्व न होते हुए भी सत प्रतिषत लोगो को मंहगाई दिखती है। वह एक षणयंत्र है। जब किसी व्यक्ति का वेतन बढता है तो एकाएक उसे अधिक वस्तु उपलब्ध होने लगती है। मुद्रा स्फीति बढने से एक वर्ष मे उसे वह वस्तु घटते घटते फिर वही आ जाती है जहां उसे पहले मिलती थी। फिर से उसका वेतन बढता है और फिर वही क्रम शुरू हो जाता है। सन 47 मे किसी व्यक्ति को कुल वेतन मे एक किलो अनाज मिलता था तो आज वेतन 90 गुना बढ गया है और मुद्रा स्फीति भी 90 गुना बढ गई है। इसका अर्थ हुआ कि यदि उसकी क्रय शक्ति और वस्तुओ के मुल्य 90 गुने बढे तो मंहगाई कहां है। सच्चाई यह है कि सोना, चांदी और जमीन मंहगे हुए है। इसी तरह दाल खादय तेल डीजल पेट्रोल बहुत मामुली मंहगे हुए है। अनाज कपडा दूध शक्कर सभी आवष्यक वस्तुए लगभग आधे मूल्य की हो गई हंै और इलेक्ट्रानिक्स वस्तुएं, आवागमन तो मटटी की मोल हो गई है। फिर भी मंहगाई का प्रचार आज भी जारी है।
स्वतंत्रता के पूर्व भी श्रम के साथ बुद्धिजीवियो का लगातार षणयंत्र चलता रहता था । सवर्ण और शुद्र का जातिगत आधार इसी के उपर टिका हुआ था। आज भी वह आधार शब्द बदल कर उसी तरह कायम है। भारत की सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था मंे बुद्धिजीवियों का एकाधिकार है। उस एकाधिकार के अंतर्गत वे लोग उपभोक्तावादी संस्कृति को विस्तार देते है। उत्पादन का मूल्य न बढे और उपभोक्ताओ की क्रय शक्ति तथा आय निरंतर बढती रहे । इसका पूरा पूरा प्रचार लगातार बुद्धिजीवियों और पूजीपतियों द्वारा किया जाता रहा है। इन्ही के प्रतिनीधि सत्ता मे होते है, और इन्ही के प्रतिनीधियों का प्रचार माध्यमो पर भी एकाधिकार होता है। यही लोग विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका पर भी कब्जा जमाए रहते है। स्वतंत्रता से लेकर आज तक इन लोगो ने मिलजुल कर मंहगाई का भूत खडा किये रखा। विषेष कर सरकारी कर्मचारी अपना वेतन बढवाने के लिये, नेता सत्ता परिवर्तन का खेल खेलने के लिये तथा पूंजीपति अर्थिक असमानता पर से ध्यान हटाने के लिये मंहगाई का प्रचार करते है और इन तीनो द्वारा धन और सुविधा की लालच मे मीडिया इसको हवा देती है।
यदि ठीक से विचार किया जाये ते मंहगाई अस्तित्व हीन शब्द है। मंहगाई आभासीय है, भावनात्मक है, इसका वास्तविकता से कोई संबंध नही। सन 39 से 47 तक क्रय शक्ति की तुलना मे वस्तुओ के मुल्य 12 गुना अधिक बढ गये थे तो उस समय वास्तव मे मंहगाई बढी थी और लोग परेषान थे किन्तु स्वतंत्रता के बाद स्थिति ठीक उल्टी हो गई । यदि रूपया 90 गुना गिरा है और सन 47 मे एक रूपया का एक किलो सामान मिलता था आज 90 रूपये मे मिल रहा है तो स्पष्ट समीकरण है कि वस्तु का मूल्य समतुल्य है, किन्तु उसे मंहगाई के साथ जोडा जाता है। आज तक किसी अर्थ शास्त्री ने यह नहीं बताया कि स्वतंत्रता के बाद आज तक मंहगाई कितने गुना बढी और उसका कितने गुना दुष्प्रभाव पडा? न तो उनके पास उत्तर है और न ही वे इस विषय पर चर्चा करना चाहते है। मै टीवी देखता हॅू तो मोटी मोटी बडे घरो की औरते सडक पर मंहगाई का रोना रोती दिखती है। उनका रोज बजट ही बिगडा रहता है। उन्हे क्या पता कि किसान कितनी मेहनत से उत्पादन करता है, कितनी मेहनत से वह लाकर बेचता है और उस उत्पादन और बिक्री पर भी वह टैक्स देता है। फिस टैक्स और उत्पादन की कीमत पर ये मोटे लोग और उनके एजेन्ट टीवी वाले मंहगाई का हल्ला करते हैं । सरकारंे जान बूझकर घाटे का बजट बनाती हैं जिससे मंहगाई का अस्तित्व दिखता है।
कल्पना करिये कि यदि वर्तमान सरकार एकाएक घोषणा कर दे कि सौ रूपये का मूल्य भविष्य मे एक रूपया होगा तो यथार्थ मे किसी प्रकार का कोई अंतर नही पडेगा । सबकुछ वैसा ही रहेगा और सारी वस्तुओ का मूल्य सौ गुना घट जायेगा। क्या आप मानेंगे कि मंहगाई खत्म हो गई? इसका अर्थ हुआ कि रूपये के मूल्य परिवर्तन से मंहगाई का कोई संबंध नही है। मंहगाई का संबंध तो तब है जब औसत व्यक्ति की क्रय शक्ति की तुलना मे आम लोगो की सामान्य उपभोक्ता वस्तुए कम उपलब्ध होने लगे। वर्तमान समय मे वस्तु स्थिति इससे ठीक विपरीत है और मंहगाई का हल्ला हो रहा है। यदि सरकारो की नीयत ठीक हो और वे घाटे का बजट बनाना बंद कर दे तो मंहगाई का हल्ला अपने आप खत्म हो जायेगा। किन्तु सरकारो को लोक हित की जगह लोक प्रिय बजट बनाने की जल्दी रहती है। और इसलिये समाज को घोखा देने के लिये घाटे का बजट बनाते है। सभी सरकारे जानती है कि मंहगाई शब्द पूरी तरह असत्य है किन्तु विपक्ष मंहगाई बढने का हल्ला करता है और सत्ता पक्ष मंहगाई घटाने का आष्वासन देता है जबकि दोनो ही बाते झूठ होती है। स्वतंत्रता से लेकर आजतक भारत की आम जनता इस मंहगाई के प्रचार से भयभीत रहती है और धूर्त लोग इससे लाभान्वित होते रहते है। इस प्रचार को चुनौती देने की आवष्यकता है।
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