राईट टू रिकाल

राईट टू रिकाल

कुछ सर्व स्वीकृत सिद्धान्त हैं ।

1 व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक होते है । दोनो के अलग अलग अस्तित्व हैं, और  अलग-अलग सीमाएं भी ।

2 अधिकार और शक्ति अलग-अलग होते है । अधिकार को राईट और शक्ति को पावर कहा जाता है । जब किसी व्यक्ति के अधिकार किसी दूसरे व्यक्ति के पास जाते हैं तब वह शक्ति बन जाते हैं ।

3 कोई अधिकार किसी अन्य को दिये जाते हैं तो वे दाता की अमानत होते हैं ग्रहण कर्ता के अधिकार नहीं ।

4 नियोक्ता को नियुक्त के अनुशासन, निलंबन या निष्कासन का अधिकार होता है । इस अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती ।

5 यदि नियोक्ता पागल हो जाये, नाबालिग हो अथवा गंभीर रूप से बीमार हो तभी उसके अधिकार किसी को स्थानांतरित हो सकते हैं अन्यथा नहीं ।

 6 समाज व्यक्ति को अनुशासित करने के लिये संवैधानिक व्यवस्था  बनाता है और संविधान व्यक्ति को नियंत्रित करने के लिये कानूनी व्यवस्था बनाता है ।

7 राजनैतिक व्यवस्था और राजनेता एक दूसरे के पूरक होते है । दोनों मिलकर समाज को गुलाम बनाने में सफल होते है ।    

         भारत की राजनैतिक व्यवस्था के संचालन के लिये एक संविधान  बना । संविधान बनाने में समाज शास्त्रियों की भूमिका शुन्य रखी गई और राजनेताओ के बीच ही जोड़-तोड़ करके अंग्रेज़ो ने एक संविधान सभा बना दी । संविधान सभा को आधार बनाकर राजनेताओं ने बुरी नीयत से संविधान मे तीन ऐसे प्रावधान कर दिये जिसका लाभ उठाकर सत्तर वर्षो से राजनैतिक व्यवस्था समाज को कमजोर तथा स्वयं को मजबूत बनाती जा रही है । (1) संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार से समाज को बिल्कुल बाहर करके सारे अधिकार तंत्र के पास रख लिये गये । (2) समाज को नाबालिग मानकर तंत्र को संरक्षक तो घोषित कर दिया गया किन्तु यह व्यवस्था नहीं की गई कि किस परीक्षण के बाद समाज बालिग माना जायेगा । (3) सांसदो की नियुक्ति तो जनता द्वारा करने की व्यवस्था की गई किन्तु उनपर नियंत्रण से जनता को बाहर कर दिया गया । उपरोक्त तीन प्रावधान ऐसे रहे जो भारत की राजनैतिक व्यवस्था मे सब प्रकार की बुराइयो की जड़ बने । सत्तर वर्षो का निष्कर्ष बताता है कि तंत्र और विशेषकर संसद अपने शक्ति विस्तार  की छीना झपटी मे लगी रही । संसद मे पहुचने के लिये सभी प्रकार के अनैतिक साधन भी उपयोग किये जाने लगे । पैसा, लोभ, लालच, शराब, पावर, धूर्तता, बल प्रयोग और हत्या तक का आश्रय लिया जाने लगा । अब तो राजनैतिक हत्याएं आम तौर पर होने लगी हैं जो संसद से बढ़ते बढ़ते पंचायत चुनाव तक पहुच गई हैं । राजनैतिक पद को सम्मान सुविधा और शक्ति के एकत्रीकरण का सबसे अच्छा मार्ग मान लिया गया है । अच्छे-अच्छे सम्मानित धर्म गुरू भी सांसद मंत्री या प्रधानमंत्री बनने की लालसा और तिकड़म करते देखे जा सकते हैं । राहुल गांधी सरीखा गांधी बनने की योग्यता रखने वाला व्यक्ति भी गांधी की जगह प्रधान मंत्री जैसे पद के लिये छीना-झपटी मे लगा है । राजनैतिक पद के लिये सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज भी प्रयत्नशील रहते है । कोई भी व्यक्ति राजनैतिक पद प्राप्त करने के लिये साम, दाम, दंड, भेद के चारो सूत्रों का लगातार प्रयोग करता रहता है क्योकि हर व्यक्ति चाहता है कि एक बार वहां पहुच जाने के बाद उसकी सात पीढियां तक स्वर्ग का सुख पाने की पात्र बन जाती हैं ।  हर व्यक्ति जानता है कि वहां पहुच जाने के बाद उसे पांच वर्षो तक उस पद से कोई भी नही हटा सकता । वह पांच वर्षो के लिये तो अजर-अमर सर्व शक्तिमान बन ही जाता है । साथ ही वह ऐसी बिरादरी मे पहुंच जाता है जहां उसे भविष्य मे भी उस खेल का खिलाड़ी बने रहने का अवसर मिल जाता है ।            

आश्चर्य की बात यह है कि एक बार चुन लिये जाने के बाद उसे  नियुक्ति कर्ता का कोई भय नहीं रहता । जिस सांसद को जनता जन प्रतिनीधि नियुक्त करती है वही जनता नियुक्ति के बाद वह उसपर कोई अनुशासन नही बना सकती । किन्तु जनता द्वारा नियुक्त सांसद को राजनैतिक दल जब चाहे तब संसद से भी निकाल सकता है, संसद तो निकाल ही सकती है । उस जन प्रतिनिधि को संसद मे भी जनता की राय रखने की स्वतंत्रता नहीं बल्कि उसे दल की गुलामी के लिये बाध्य कर दिया जाता है । यह भारत का एक विचित्र लोकतंत्र है जहां सांसद संसद मे भी स्वतंत्रता से बोल नही सकता ।

                  इन सब अव्यवस्थाओं का सिर्फ एक ही कारण है कि जनता जिसे नियुक्त करती है उसे अनुशासित निलंबित या निष्कासित करने का उसे कोई अधिकार नहीं । वह पांच वर्षो के लिये जनता का कोई भय नहीं मानता । यदि कोई ऐसा तरीका बना होता कि निर्वाचक मंडल कभी भी बिना कारण बताये सांसद को पद मुक्त कर सकता है तो सारा वातावरण बदल सकता है । हर राजनेता के सिर पर जनता की एक ऐसी तलवार लटकी रहेगी जो उसे रात के सपने मे भी गलत करने के रोकती रहेगी । मै आज तक नहीं समझा कि जब अधिकार जनता की अमानत है तो अपनी अमानत जनता  जब चाहे तब वापस क्यो नहीं मांग सकती । जनता ने राजनैतिक पद सांसद को उधार नहीं दिया है बल्कि अमानत दी है । मै स्पष्ट कर दूं कि भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को स्वयं चुनाव लडने की स्वतंत्रता नही है । वह तो किसी अन्य के प्रस्ताव और समर्थन के बाद अपसी स्वीकृति मात्र देता है । अपनी इच्छा व्यक्त नहीं कर सकता । इतनी स्पष्ट व्यवस्था के बाद भी पता नहीं क्यो लाल कृष्ण आडवाणी सरीखे नेता भी इस पद को जनता की अमानत नही मानते । जब आप सेवक मात्र हैं और समाज आपको सेवा मुक्त करना चाहता है तो आपको कष्ट क्यों है । इसलिये सेवा करने वालो द्वारा रिकाल का पूरी तरह समर्थन होना चाहिये । यह अलग बात है कि जो लोग राजनैतिक पद को लूट का माल समझते है वे इस रिकाल व्यवस्था का विरोध करेंगे ही । क्योकि राजनैतिक पद ही उनके लिये जीवन मरण का प्रश्न है और उस पद का दुरूपयोग  करने को ही वह सेवा का नाम देता है ।

         रिकाल का तरीका भी कठिन नहीं है । कई तरीके हो सकते हैं । चुनाव के समय ही हर लोक सभा क्षेत्र के लिये एक, दो या पांच दस हजार लोगो को चुना जा सकता है जो रिकाल का अंतिम निर्णय कर  सकें । लोक सभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले निर्वाचित  ब्लाक प्रमुखों के प्रस्ताव पर हां और नां को आधार बनाकर भी मतदान कराया जा सकता है । अथवा इस प्रस्ताव पर सभी पंच या सरपंच वोट दे सकते है । यह भी संभव है कि ऐसे प्रस्ताव पर सौ अंको मे से लौटरी द्वारा एक अंक चुनकर उस अंक की मतदाता सूची के आधार पर मतदान हो सकता है । आम चुनाव के समय ही सौ लोगो की एक अलग समिति बन सकती है जो सांसद पर अविश्वास का प्रस्ताव रख सकती है । इसके अतिरिक्त भी कई अलग तरीकों पर विचार हो सकता है । रिकाल के तरीके निकालना कठिन कार्य नहीं कठिन कार्य तो यह है कि रिकाल के लिये वर्तमान संसद को कैसे सहमत या मजबूर किया किया? एक बार हमारे पहरेदार के हाथ मे बंदूक चली गई है और वह उस बंदूक के सहारे मालिक को गुलाम बनाकर रखना चाहता है तो बंदूक वापस होना एक मात्र मार्ग होते हुए भी तरीका निकालना बड़ा कठिन है । जय प्रकाश जी अन्ना हजारे सहित कई लोगो ने ऐसी पहल की किन्तु कुछ नहीं हो सका ।  फिर भी रिकाल के प्रावधान की आवश्यकता अब भी बहुत महत्वपूर्ण है । ऐसा नहीं है कि राईट टू रिकाल ही व्यवस्था परिवर्तन का अकेला आधार बन सकता हैं क्योकि राजनैतिक व्यवस्था राजनेताओं को मजबूत करती है तो राजनेता राजनैतिक व्यवस्था को मजबूत करते है । राईट टू रिकाल राजनेताओं पर तो अंकुश लगा सकेगा किन्तु राजनैतिक व्यवस्था पर अंकुश के लिए कुछ अलग प्रावधान करने होंगे। फिर भी रिकाल भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण का मजबूत आधार बन सकता है । यदि अभी हम और कुछ नही भी कर सकते है तो इस संबंध मे जन जागृति से तो शुरूआत कर ही सकते हैं ।  हमे जन जागृति करनी चाहिये ।