ज्ञान यज्ञ की महत्ता और पद्धति

ज्ञान यज्ञ की महत्ता और पद्धति

कुछ सर्व स्वीकृत सिद्धान्त है।

1 दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति मे भावना और बुद्धि का समिश्रण होता है । किन्तु किन्हीं भी दो व्यक्तियो मे बुद्धि और भावना का प्रतिशत समान नहीं होता ।

2 प्रत्येक व्यक्ति पर भावना और बुद्धि का बिल्कुल अलग-अलग प्रभाव होता है । भावना व्यक्ति को या तो शराफत की ओर ले जाती है अथवा मूर्खता की ओर । बुद्धि व्यक्ति को या तो ज्ञान की ओर ले जाती है या धूर्तता की ओर ।

3 सारी दुनियां मे ज्ञान घट रहा है और शिक्षा बढ रही है ।

4 सारी दुनियां मे भौतिक विकास तेज गति से हो रहा है और नैतिक पतन हो रहा है ।

5 सम्पूर्ण भारत मे हिंसा और जालसाजी के प्रति विश्वास बढ रहा है ।

6 हर धूर्त लगातार प्रयत्न करता है कि समाज मे भावनाओ का विस्तार होता रहे । आम लोग लोग भावना प्रधान बने रहे । 

7 कोई भी व्यक्ति न तो पूरी तरह बुद्धिमान होता है न ही बुद्धिहीन । प्रत्येक व्यक्ति मे भावना या बुद्धि का समिश्रण होता ही है । 

8 प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष लाभ पर अधिक विश्वास करता है परोक्ष लाभ पर कम ।

            

                    यदि हम वर्तमान भारत की समीक्षा करें तो भारत मे भावना प्रधान लोगो का प्रतिशत भी बढ रहा है तथा बुद्धि प्रधान लोगो का भी । किन्तु ज्ञान घट रहा है । समझदार लोगो का प्रतिशत घट रहा है । बुद्धि और भावना का समन्वय कमजोर हो रहा है । या तो व्यक्ति अति शरीफ हो रहा है अथवा अति धूर्त जबकि भावना और बुद्धि का समन्वय आवश्यक है । जब बुद्धि और भावना के बीच दूरी निरंतर बढती रहे, शरीफ और धूर्त एक साथ इकठ्ठे होने लगें, विचार मंथन की जगह विचार प्रसार को अधिक महत्व दिया जाने लगे, विपरीत विचारों के लोग एक साथ बैठकर विचारो का आदान-प्रदान करने के लिये सहमत न हो तथा ज्ञान विस्तार के महत्वपूर्ण अंग परिवार व्यवस्था समाज व्यवस्था को योजनापूर्वक कमजोर करने का कुचक्र रचा जाये तो वह कालखंड आपातकाल माना जाना चाहिये । क्योकि ऐसे समय मे व्यक्ति के अंदर समझदारी घटने लगती है । ऐसे आपातकाल मे ही भगवान कृष्ण ने ज्ञान यज्ञ को महत्व पूर्ण समाधान के रूप मे  प्रतिपादित किया । कृष्ण भारतीय इतिहास मे अकेले ऐसे महापुरूष हुए हैं जिन्होने ज्ञान यज्ञ के महत्व एंव स्वरूप को समाज के समक्ष रखा । उन्होने वह तरीका बताया जिसके आधार पर आपातकाल मे बुद्धि और भावना का समन्वय किया जाना आवश्यक है । स्वामी दयानंद अकेले ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होने आर्य समाज के माध्यम से ज्ञान यज्ञ की प्रणाली विकसित की । आर्य समाज के किसी भी कार्यक्रम के प्रारंभ मे एक यज्ञ होता है और यज्ञ की तुलना मे तीन गुना अधिक समय स्वतंत्र विचार मंथन पर लगाया जाता है । इन दोनो को मिलाकर ही आर्य समाज का साप्ताहिक यज्ञ पूरा होता है । यह परिपाटी लम्बे समय तक चलती रही और वर्तमान मे विकृत हो गई । अब विचार की जगह योजना बनने लगी । कुछ जगहो पर तो ऐसा विभाजन देखने को मिलता है कि आर्य समाज के सत्संग मे भावना प्रधान लोग यज्ञ के बाद उठकर चले जाते है तथा बुद्धि प्रधान लोग यज्ञ के बाद ही पहुंचते है । चर्चा भी स्वतंत्र विषयों पर नहीं होती । मैने खूब समझा और पाया कि आर्य समाज का दसवा नियम अधिकांश सामाजिक समस्याओ के समाधान का महत्वपूर्ण आधार बन सकता है । किन्तु आर्य समाज के किसी भी सत्संग मे उस नियम को मात्र औपचारिकतावश पढ दिया जाता है किन्तु चर्चा कभी नही होती । मेरा अपने पूरे जीवन का अनुभव यह रहा है कि ज्ञान प्रधान व्यक्ति ईश्वर पर कम विश्वास करता है और भावना प्रधान व्यक्ति को ईश्वर पर अधिकाधिक विश्वास की प्रेरणा देता है । यह तरीका भी ज्ञान यज्ञ के आधार से ही विकसित होता है । वर्तमान समय मे ज्ञान के अभाव मे धूर्त लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये ईश्वर के अस्तित्व का उपयोग करते है । इसी का परिणाम होता है कि आशाराम, राम रहीम सरीखे आपराधिक प्रवृत्ति के धूर्त लोग करोडो शिष्य बनाने मे सफल हो जाते है ।

                   मै दिल्ली मे पांच वर्ष रहा । राज सिंह जी आर्य के साथ मिलकर मैने सत्संगो मे भी स्वतंत्र विचार मंथन की प्रणाली विकसित करने का प्रयास किया किन्तु न मै सफल हो सका न ही ब्रम्ह्चारी राज सिंह जी । क्योकि सत्संगो मे ईश्वर और स्वामी दयानंद के गुणगान से आगे किसी सामाजिक पारिवारिक या अन्य विषय पर कोई चर्चा नही होती । मै अनुभव करता हॅू कि आर्य समाज मे भी इस रूढिवादी परम्परा का विस्तार हुआ है । आर्य समाज भी एक सामाजिक संस्था की जगह धार्मिक संगठन की दिशा मे बढकर क्षीण हो रहा है । ज्ञान विस्तार मे पारिवारिक वातावरण तथा सामाजिक परिवेश बहुत महत्वपूर्ण होता है । ईश्वर का अदृष्य भय भी उसे अनुशासित रखता है । वर्तमान भारतीय परिवेश इन सबको अस्त-व्यस्त कर रहा है । 

                      यदि मै स्वयं का आकलन करूं तो मै 62 वर्षो से आर्य समाज से जुडा रहा हॅू । 62 वर्षो तक हमारे शहर मे ज्ञान यज्ञ विधिवत होता रहा है । ज्ञान यज्ञ के परिणाम भी उस शहर तथा निकट के लोगो ने देखे है । स्पष्ट है कि ज्ञान यज्ञ से जुडे लोग किसी से भी आसानी से ठगे नही जाते क्योकि ऐसे लोगो के अंदर बुद्धि और भावना का समन्वय होकर समझदारी मे बदल जता है । उस शहर मे प्रत्येक माह मे एक बार आधे घंटे का धार्मिक आयोजन पूरा करके ढाई घंटे एक पूर्व निश्चित सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक या अन्य किसी भी निश्चित विषय पर स्वतंत्र विचार मंथन होता रहा है । कार्यक्रम के समय कोई निष्कर्ष  निकालने पर कठोरता से प्रतिबंध है । यज्ञ मे कोई योजना नही बनाई जा सकती । प्रारंभ से ही यह माना गया कि यह ज्ञान यज्ञ बुद्धि और भावना के समिश्रण का व्यायाम मात्र है । यदि यह ज्ञान यज्ञ किसी मुसलमान के यहा आयोजित किया गया तो वहां आधे घंटे के भावनात्मक कुरान पाठ के बाद बौद्धिक चर्चा शुरू हुई ।  परिणाम बहुत सफल रहा और मै स्वयं अनुभव करता हॅू कि मै रामानुजगंज आर्य समाज और ज्ञान यज्ञ की ही देन हॅू ।

          मार्गदर्शक सामाजिक शोध संस्थान और ज्ञान यज्ञ परिवार लोगो में समझदारी बढ़ाने और समाजशास्त्र में शोध के लिए संकल्पबद्ध है। इस दिशा में हमारे कई सारे प्रयास चल रहे है । वर्तमान समय को आपातकाल समझकर यह महसूस करे कि शराफत को समझदारी मे बदले जाने का सबसे उपयुक्त समय यही है । जब कलियुग का अंतिम चरण और सतयुग के प्रारंभिक चरण का वर्तमान समय मध्यकाल है तो ऐसे कालखंड मे सभी समस्याओ का समाधान करने मे ज्ञान यज्ञ बहुत प्रमुख भूमिका निभा सकता है और निभा भी रहा हैं । मुझे विश्वास है कि अब ज्ञान यज्ञ के माध्यम से हम कलियुग के समापन कि दिशा मे निरंतर बढ सकेगे । आप सबकी इस यज्ञ मे आहुति आपके स्वयं, परिवार तथा समाज के लिये हितकर होगी ।