समाज में बढ़ते बलात्कार का कारण वास्तविक या कृत्रिम?
कुछ निष्कर्ष स्वयं सिद्ध हैं-
(1)महिला और पुरुष कभी अलग-अलग वर्ग नहीं होते। राजनेता अपने स्वार्थ केे लिए इन्हें वर्गों में बांटते हैं।
(2)महिला हो या पुरुष, सबके मौलिक और संवैधानिक अधिकार समान होते है। इनमें कोई भेद नहीं हो सकता। सामाजिक अधिकार अलग-अलग होते है क्योंकि दोनों की प्राकृतिक संरचना स्वभाव तथा सक्रियता में फर्क होता है।
(3)सेक्स की इच्छा दोनों में समान होती है, कम या अधिक नहीं।
(4)प्राकृतिक संरचना के आधार पर पति को आक्रामक और पत्नी को आकर्षक होना चाहिए।
(5)स्त्री और पुरुष के बीच एक दूसरे के प्रति आकर्षण श्रृष्टि की रचना के लिए अनिवार्य होता है। विशेष परिस्थितियों में ही उसे नियंत्रित या संतुलित करने का प्रयास किया जा सकता है।
(6) किसी भी रुप में बलात्कार अपराध होता है। उसे रोकने का अधिकतम प्रयत्न होना चाहिये।
किसी पुरुष द्वारा किसी महिला के साथ बलपूर्वक किया गया सेक्स संबंध बलात्कार होता है। बलात्कार में शक्ति प्रयोग अनिवार्य शर्त होती है। भारत में बलात्कार की गलत परिभाषा प्रचलित की गई है। स्वतंत्रता के बाद बलात्कारों में धीरे-धीरे वृद्धि हो रही थी। पिछले कुछ वर्षो से बहुत तीव्र गति से बलात्कार की घटनाए भी बढ रही है और मुकदमें भी। समझ में नहीं आता कि एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के पुरुशो में सेक्स की क्षमता घट रही है दूसरी ओर बलात्कारों का बढ़ना सिद्ध करता है कि पौरुशत्व लगातार बढ रहा है। मुझे लगता है कि हमारी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था बलात्कार वृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान कर रही है न कि पुरुषों का बढ़ता पौरुशत्व। वर्तमान में जो बलात्कार की परिभाषा बनाई गई है वह परिभाषा ही बलात्कार की बढ़ती घटनाओं का प्रमुख कारण है। बलात्कार की सबसे अच्छी परिभाषा डाॅ0 राममनोहर लोहिया ने दी थी जिसे कभी नहीं माना गया और वर्तमान समय तो उस परिभाषा के ठीक विपरीत दिशा में तेजी से बढ़ता जा रहा है। हम इस परिभाषा परिवर्तन के परिणाम भी देख रहे हैं। बलात्कार के साथ-साथ हत्याओं की भी बाढ़ सी आ गई है। जेलों में भीड़ बढ़ती जा रही है। बलात्कार के मुकदमें भी बढ़ते जा रहे हैं। पुलिस ओवर लोडेड हो गई है। कानून जितने कठोर हो रहे है उतनी ही अधिक बलात्कार और हत्या की घटनाए बढ़ रही है । आवश्यक है कि बलात्कार वृद्धि के कारणों पर गंभीरता से विचार किया जाये।
सेक्स एक प्राकृतिक भूख है और उसे बलपूर्वक नहीं दबाया जा सकता । न प्राचीन समय में ऐसा संभव हो पाया न ही आज हो पा रहा है न भविष्य में हो पायेगा। भूख और पूर्ति के बीच दूरी जितनी बढे़गी उतनी ही अपराध की स्थितियाॅ पैदा होती हैं। पुराने जमाने में भूख लगती थी सोलह वर्ष में और विवाह होता था चौदह वर्ष में। बलात्कार मजबूरी नहीं मानी जाती थी। वर्तमान ना समझ नेताओं के समय में इच्छाए सोलह की जगह पन्द्रह में पैदा होने लगी तो विवाह की उम्र इक्कीस कर दी गई। पुराने जमाने में विवाह के बाद भी यदि किसी परिस्थिति में मजबूरी हो तो पुरुषों के लिए वैश्यालय थे। वर्तमान समय में विवाह की उम्र बढ़ा दी गई तो दूसरी ओर वैश्यालयों, यहाॅ तक कि बार बालाओं तक को रोकने के प्रयास शुरु हो गये। प्राचीन समय में महिला और पुरुष के बीच दूरी घटनी चाहिए या बढनी चाहिए इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं था। यह व्यक्ति परिवार और समाज पर निर्भर करता था। अब सरकार इस पर पूरी ताकत लगाकर इस दूरी को घटाने का प्रयास कर रही है। बलात्कार बढ़ रहे है और स्त्री पुरुष के बीच दूरी निरंतर घटाई जा रही है। पुराने जमाने में परिवार और समाज का अनुशासन था। अब वर्तमान समय में परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को जान बूझकर कमजोर किया गया। पुराने जमाने में छेड़छाड़ की घटनाओं को विशेष परिस्थिति में ही कानून की शरण में लिया जाता था अन्यथा ऐसी बाते सामाजिक स्तर पर निपटा ली जाती थी या छिपा ली जाती थी। अब ऐसी घटनाओं को बढ़ा चढ़ा कर प्रचारित करना एक फैषन के रुप में बन गया है। महिला सशक्तिकरण का नारा तो इस अव्यवस्था में और अधिक सहायक हो रहा है। चरित्रहीन महिलाए इसका ज्यादा दुरुपयोग करने लगी हैं। प्राकृतिक तौर पर पुराने जमाने में माना जाता था कि स्त्री और पुरुष में से किसी एक को स्वाभाविक रुप से दोषी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि दोनों के बीच इच्छाओं की मजबूरी समान होती है। वर्तमान समय में हर पुरुष को अपराधी सिद्ध करने की होड़ मची है। मेरा स्वयं का अनुभव है कि जो महिलाए भारत की महिलाओं का संवैधानिक पदों पर प्रतिनिधित्व कर रही है उनमें से अनेक ऐसी है जिनका व्यक्तिगत जीवन कलंकित रहा है। उनमें से कई तो किसी बडे़ राजनेता के साथ जुड़ी भी रही है और उन्हें उंचे पद दिलाने में यह जुडाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। संदेह होता है कि यदि महिलाओं के विषय में निर्णय करने वाली महिलाओं में ऐसी भी महिलाए होंगी तो बलात्कार बढेंगे ही। ऐसे महिला और पुरुष अपने लिए तो चोर दरवाजे की व्यवस्था खोज लेते है और दूसरे परिवारों की पारिवारिक एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिए कानून बनाते रहते है। मैंने तो यहाॅ तक सुना है कि विवाहित पति-पत्नी के बीच बिना अनुमति के शारीरिक संबंध बनाने को भी बलात्कार घोषित करने की चर्चाए चल रही है ।
बलात्कार भी दो परिस्थितियों में होता है- 1. आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए 2. इच्छाओं की पूर्ति के लिए। यदि कोई सेक्स की भूख से व्याकुल व्यक्ति बलात्कार करता है तो वह अपराध होते हुए भी उस अपराध से छोटा माना जाना चाहिए जो इच्छाओं की पूर्ति के लिए बलात्कार होता है। आवश्यकताए सीमित होती है और इच्छाएं असीमित होती है। वर्तमान कानून इन दोनों के बीच अंतर नहीं कर पाता। स्त्री और पुरुष के बीच प्राकृतिक स्थितियाॅ ऐसी है कि दोनों के बीच के आकर्षण को निरुत्साहित करना खतरनाक होगा। उसे विशेष परिस्थितियों में ही अनुशा सित या शासित करना चाहिए। सरकार का कानून इतना ज्यादा संवेदनशील बना दिया गया है कि किसी प्रकार का निवेदन करना भी बडे़ अपराध में शामिल किया जा सकता है। मेरे विचार से इस प्रकार के कानून धूर्त महिलाओें को ब्लैकमेल करने के अवसर देते है। मैं मुलायम सिंह जी या शरद यादव के विचारों को सुनता रहा हॅू। भले ही और लोग उन्हें न सुने।
बढ़ते बलात्कार समाज के लिए एक कलंक है। उन्हें रोकने के लिए चैतरफा प्रयत्न करने होंगे। हमें यह ध्यान रखना होगा कि बलात्कार रोकने के नाम पर स्त्री और पुरुष के बीच के आकर्षण पर विपरीत प्रभाव न पडे़। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि कोई व्यक्ति सेक्स की भूख के कारण मानसिक रोगी न हो जाये या कोई अन्य गंभीर अपराध न कर बैठे। बलात्कार रोकने के नाम पर अनावश्यक कानूनी छेड़छाड़ बहुत घातक है। विवाह की उम्र को युक्ति संगत किया जाये। वैश्यालयों को पूरी तरह खोल दिया जाये। बलात्कार के अतिरिक्त अन्य कानूनों में संशोधन किये जाये। परिवार और समाज को भी अनुषासन बनाने में सहयोगी माना जाये। जो महिलाए परम्परागत तरीको का पालन करती है उनके साथ छेड़छाड़ को अधिक गंभीर माना जाये उनकी तुलना में जो आधुनिक तरीको से खतरे उठाती है। साथ ही यह भी प्रयत्न किया जाये कि बलात्कार के नाम पर धूर्त महिलाए समाज को ब्लैकमेल करने में सफल न हो सके। बलात्कार का रोका जाना जितना जरुरी है उतना ही जरुरी यह भी है कि बलात्कार के नाम पर जेलों में भीड़ बढ़ाने की प्रवृत्ति प्रोत्साहित हो।
Comments