कर्मचारी आंदोलन कितना उचित कितना अनुचित

कोई भी शासक अपने कर्मचारियों के माध्यम से ही जनता को गुलाम बनाकर रख पाता है । लोकतंत्र मे तो यह और भी ज्यादा आवश्यक है । इसके लिये यह आवश्यक है की वे अपने कर्मचारियों को ज्यादा से ज्यादा संतुष्ट रखे । भारत में स्वतंत्रता पूर्व के शासक समाज को गुलाम बनाकर रखने के उद्देश्य से सरकारी कर्मचारियों को अधिक से अधिक सुविधाए देने की नीति पर काम करते रहे । स्वतंत्रता के बाद भी शासन की नीयत में कोई बदलाव नहीं आया । इसलिये उनकी मजबूरी थी की वे अपने कर्मचारियों को ज्यादा से ज्यादा सुविधाए भी दें और संतुष्ट भी रखें ।

      

प्रारंभिक वर्षों में सरकारी कर्मचारियों में असंतोश नही के बराबर था किन्तु जब उन्होंने देखा कि भारत का राजनेता सरकारी धन सम्पत्ति को दोनों हाथों से लूटने और लुटाने में लगा है तो धीरे धीरे इनके मन में भी लूट के माल में बंटवारे की इच्छा बढ़ी । सरकार के संचालन में राजनैतिक नेताओं के पास निर्णायक शक्ति होने के बाद भी उन्हें हर मामले में कर्मचारियों की सहायता की आवश्यकता होती थी क्योंकि संवैधानिक ढांचे के चेक और बैलेन्स सिस्टम में कर्मचारी भी एक पक्ष होता है । अतः व्यक्तिगत रूप से कर्मचारी लोग नेताओं के भ्रष्टाचार के सहायक और हिस्सेदार होते चले गये । किन्तु यदि हम भ्रष्टाचार की चर्चा न भी करें तो शासकीय कर्मचारी अपने पास अधिकार होते हुए भी एक पक्ष को इस तरह अकेले अकेले खाते नहीं देख सकता था। अतः उसने धीरे धीरे दबाव बनाना षुरू किया। दूसरी ओर सरकार ने भी नये नये विभाग बनाकर इनकी संख्या बढ़ानी षुरू कर दी और ज्यों ज्यों सरकारी कर्मचारियों की संख्या आबादी के अनुपात से भी कई गुना ज्यादा बढ़ने लगी त्यों-त्यों उनकी ब्लैकमेलिंग की क्षमता भी बढ़ती चली गई । इस तरह भारत में लोक और तंत्र के बीच एक अघोषित दूरी बढ़ती चली गई जिसमें सरकार समाज की स्वतंत्रता की लूट करती रही, नेता भ्रष्टाचार के माध्यम से लूट-लूट कर अपना घर भरते रहे और शासकीय कर्मचारी ब्लैकमेल करके इस लूट के माल में अपना हिस्सा बढ़ाते रहे ।  

      

किसी सरकारी कर्मचारी को इस बात से कोई मतलब नहीं कि उसकी जरूरतें क्या हैं ? न ही उसे इस बात से मतलब है कि भारत के आम नागरिक का जीवन स्तर क्या है । उसे इस बात से भी मतलब नहीं कि उसी के समकक्ष गैर सरकारी कर्मचारी के वेतन और सुविधाओं की तुलना में उसे प्राप्त वेतन और सुविधाए कितनी ज्यादा हैं । उसे तो मतलब है सिर्फ एक बात से कि लोकतांत्रिक भारत में जो धन और अधिकारों की लूट मची है उस लूट में उसकी भी सहभागिता है । उस लूट के माल में हिस्सा मांगना उसका न्यायोचित कार्य है । यदि ठीक से सोचा जाये तो उसका तर्क गलत भी तो नहीं है । कर्मचारी लोक का तो भाग है नहीं । है तो वह तंत्र का ही हिस्सा । फिर वह अपने हिस्से की मांग से पीछे क्यों रहे ? कुछ प्रारंभिक वर्षों में शिक्षक और न्यायालयों से संबद्ध लोग ऐसा करना अनुचित मानते थे किन्तु अब तो वे भी धीरे-धीरे उसी तंत्र के भाग बन गये हैं । न्यायपालिका और विधायिका का वर्तमान टकराव तथा न्यायपालिका मे आपसी टकराव स्पष्ट प्रमाणित करता है कि सब जगह पावर या धन के अतिरिक्त समाज सेवा का नाम सिर्फ ढोंग है जो समय-समय पर लोक को धोखा देने के लिये उपयोग किया जाता है ।   

      

सरकारी कर्मचारी अपना वेतन भत्ता बढ़वाने के लिये कई तरह के मार्ग अपनाते हैं । उसमें मंहगाई का आकलन भी एक है । भारत में स्वतंत्रता के बाद के सत्तर वर्षों में रोटी, कपड़ा, आवागमन, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में औसत साठ पैसठ गुने की वृद्धि ही हुई है लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि स्वतंत्रता के बाद छियानवे गुनी मूल्य वृद्धि हो चुकी है । छियानवे गुनी वेतन वृद्धि तो इनकी जायज मांग मान ली जाती है । यदि भारत में आवश्यक वस्तुओं के औसत मूल्य पांच प्रतिशत बढ़ते हैं तो सरकारी आंकड़े उन्हें सात आठ दिखाते हैं क्योंकि आंकड़े बनाने में कुछ और भी अनावश्यक चीजें शामिल कर दी जाती हैं । इसके बाद भी कई तरह के दबाव बनाकर इनके वेतन और सुविधाओं में वृद्धि होती ही रही है । स्वतंत्रता के बाद आज तक समकक्ष परिस्थितियों में सरकारी कर्मचारी का वेतन करीब दो सौ से ढाई सौ गुना तक बढ़ गया है । उपर से प्राप्त सुविधाओं को तो जोड़ना ही व्यर्थ है । समाज इस पर उंगली उठा नहीं सकता क्योंकि जब नेता ने अपना वेतन भत्ता इनसे भी ज्यादा बढ़ा लिया तथा नेता ने अपनी उपरी आय भी बढ़ा ली तो कर्मचारी बेचारा क्यो न बढावे ? सरकार और नेता सरकारी कर्मचारियों की ब्लैकमेलिंग से बचने के लिये कभी निजीकरण का मार्ग निकालते हैं तो कभी संविदा नियुक्ति जैसा । तू डाल-डाल मैं पात-पात की तर्ज पर कर्मचारी भी किसी न किसी रूप में इन तरीकों की काट खोजते रहते हैं । और यदि शेष समय में कर्मचारी दब भी जावे तो चुनावी वर्ष में तो वह अपना सारा बकाया सूद ब्याज समेत वसूल कर ही लेता है । अभी कुछ प्रदेशो और केन्द्र के चुनाव होने वाले हैं । कर्मचारी लंगोट कसकर चुनावों की प्रतीक्षा कर रहा है । चुनावों से एक वर्ष पूर्व ही उसकी सांकेतिक हड़ताल और अन्य कई प्रकार के नाटक शुरू हो जायेंगे । प्रारंभ में सरकार भी उन्हें दबाने का नाटक करेगी । कुछ लोगों का निलम्बन और कुछ की बर्खास्तगी भी होगी । समझौता वार्ता भी चलेगी और अन्त में कर्मचारियों की कुछ मांगे मान कर आंदोलन समाप्त हो जायेगा । हड़ताल अवधि में की गई सारी प्रशासनिक कार्यवाही वापस हो जायेगी क्योंकि सभी नेता जानते हैं कि कर्मचारी चुनावों में जिसे चाहें उसे जिता या हरा सकते हैं । यद्यपि कर्मचारियों की कुल संख्या मतदाताओं की तीन प्रतिशत के आस-पास ही होती है किन्तु उनके परिवार, उनके गांव-गांव तक फेलाव और उनके एकजुट प्रयत्नों को मिलाकर यह अन्तर सात आठ प्रतिशत तक माना जाता है । आम तौर पर शायद ही कोई नेता हो जो इतना अधिक लोकप्रिय हो कि इतना बड़ा फर्क झेल सके अन्यथा दो तीन प्रतिशत का फर्क ही हार जीत के लिये निर्णायक हो सकता है । नेता को हर पांच वर्ष में जनता का समर्थन आवश्यक होता है जबकि सरकारी कर्मचारी को किसी प्रकार के जनसमर्थन की जरूरत नहीं । चुनावों के समय नेताओं के दो-तीन गुट बनने आवश्यक हैं जबकि ऐसे मामलों में सभी कर्मचारी एक जुट हो जाते हैं । फिर उपर से यह भी कि कर्मचारियों को सुविधा देने से नेता को न व्यक्तिगत हानि है न सरकारी क्योंकि अन्ततोगत्वा सारा प्रभाव तो जनता को झेलना है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नेता स्वयं अपनी सब प्रकार की सुख सुविधाए बढ़ाता जाता है तो उसका नैतिक पक्ष भी मजबूत नहीं रहता । यही कारण है कि कर्मचारियों का पक्ष जनविरोधी, अनैतिक ब्लैकमेलिंग होते हुए भी नेता झुककर उनसे समझौता करने को मजबूर हो जाता है ।  

                   

अधिकांश कर्मचारी नौकरी पाते समय ही भारी रकम देकर नौकरी पाते हैं । बहुत कम ऐसे होते हैं जो बिना पैसे या सिफारिश के नौकरी पा जायें । स्वाभाविक है कि उनसे इमानदारी या चरित्र की उम्मीद नहीं की जा सकती । जो व्यक्ति घर के बर्तन या जमीन बेचकर एक नौकरी पाता है वह भ्रष्टाचार भी करेगा और ब्लैकमेलिंग भी करेगा । यदि नहीं करेगा तो परिवार से भी तिरस्कृत होगा और अन्य कर्मचारियों में भी मूर्ख ही माना जायेगा । ऐसी विकट परिस्थिति आज सम्पूर्ण भारत की है । चाहे केन्द्र सरकार के कर्मचारी हों या प्रदेश सरकार के । सबकी स्थिति एक समान है । चाहे हवाई जहाज के पायलट हो या बैंक कर्मचारी या कोई चपरासी । चाहे दस हजार रूपया मासिक वाला छोटा कर्मचारी हो या लाख दो लाख रूपया मासिक वाला सुविधा सम्पन्न कर्मचारी । सबकी मानसिकता एक समान है, सबकी एक जुटता एक समान है, सब स्वयं को तंत्र का हिस्सा मानते हैं । लोक को गुलाम बनाकर रखने में भी सब एक-दूसरे के सहभागी हैं और लोक को नंगा करने में भी कभी किसी को कोई दया नहीं आती। 

                          

कोई भी सरकार चाहे कितना भी जोर लगा दे चुनाव के समय उसे कर्मचारियो के समक्ष झुकना ही पडेगा । 130 करोड की आबादी मे 127 करोड लोक के लोग है तो 3 करोड तंत्र से जुडे । इसमे भी नेताओ की कुल संख्या कुछ लाख तक सीमित है । ये ढाई करोड कर्मचारी तो परिस्थिति अनुसार एक जुट हो जाते है किन्तु पचास लाख राजनेता चुनावो के समय दो गुटो मे बट जाते है । इस समय उन्हे न देश दिखता है न समाज । इस समय उन्हे न न्याय दिखता है न व्यवस्था । उन्हे दिखता है सिर्फ चुनाव और किसी भी परिस्थिति मे वे मुट्ठी भर संगठित कर्मचारियों का समर्थन आवश्यक समझते है । यही कारण है कि 127 करोड का लोक इन नेता और कर्मचारी के चक्रव्यूह से अपने को कभी बचा नही पाता ।  

      

विचारणीय प्रश्न यह है कि इस स्थिति से निकलने का मार्ग क्या है ? नेता चाहता है कि जनता सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ खड़ी हो । यह संभव नहीं क्योंकि जनता ने तो नेता को चुना है और नेता द्वारा बनाई गई व्यवस्था द्वारा सरकारी कर्मचारी नियुक्त होते हैं । कर्मचारियों की नियुक्ति में जनता का कोई रोल नहीं होता । जनता जब चाहे कर्मचारी के विरूद्ध कुछ नहीं कर सकती जब तक उसका काम नियम विरूद्ध न हो । दूसरी ओर नेता को जो शक्ति प्राप्त है वह जनता की अमानत है । जनता जब चाहे नेता को बिना कारण हटा सकती है । ऐसी स्थिति में कर्मचारियों के विरूद्ध जन आक्रोश का कोई परिणाम संभव नहीं । उचित तो यही है कि इस विकट स्थिति से निकलने की शुरूआत नेता से ही करनी पड़ेगी । यदि कर्मचारी ब्लैकमेल करता है तो उसका सारा दोष नेता का है । नेता ही समाज के प्रति उत्तरदायी है । यही मानकर आगे की दिशा तय होनी चाहिये ।      

                  

यह स्पष्ट है कि नेता कर्मचारी का गठबंधन टूटना चाहिये और अनवरत काल तक कभी टूटेगा नही । यदि नेता चाहे भी तो टूट नही सकेगा । इसका सबसे अच्छा समाधान सिर्फ निजीकरण है । अनावश्यक विभाग समाप्त हो राज्य सुरक्षा और न्याय तक सीमित हो कर्मचारियो की संख्या अपने आप कम हो जायेगी । राज्य रोजगार और नौकरी की अबतक चली आ रही परिभाषाओ को बदले । राज्य का काम रोजगार के अवसर पैदा करना होता है न कि नौकरी के माध्यम से रोजगार देना । यह तो गुलामी काल की परिभाषा थी जिसे अब तक बढाया जा रहा है । मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है और इसके लिये जनजागरण करना होगा । कोई भी सरकारी कर्मचारी जान दे देगा किन्तु निजीकरण नही होने देगा । कोई भी नेता भले ही निजीकरण की बात करे किन्तु घुम-फिर कर निजी विभागो पर अनावश्यक नियंत्रण करके उन्हे परेशान करेगा जिससे वे तंत्र के चंगुल मे बने रहे । समस्या विकट है समाधान करना होगा और इसके लिये जनजागरण ही एक मात्र मार्ग है ।