हिन्दू संस्कृति या भारतीय संस्कृति
धर्म और संस्कृति कुछ मामलो मे एक-दूसरे के पूरक भी होते है और कुछ मामलो मे अलग-अलग भी । धर्म दूसरे के प्रति किये जाने वाले हमारे कर्तव्य तक सीमित होता है । जबकि संस्कृति का प्रभाव दूसरो के प्रति किये जाने वाले कार्य पर निर्भर होता है, चाहे वह कार्य अच्छा हो या बुरा । कोई व्यक्ति बिना सोचे तत्काल किसी कार्य को बार-बार करने लगता है तब वह उस व्यक्ति की आदत मान ली जाती है । ऐसी आदत लम्बे समय तक चलती रहे तब वह संस्कार बन जाती है । ऐसे संस्कार किसी इकाई के अधिकांश लोगो के हो जावे तब वह उस इकाई की संस्कृति मान ली जाती है । सोच समझकर लिया गया निर्णय और तदनुसार किया गया कार्य संस्कार नही माना जाता है । धर्म व्यक्तिगत होता है समूहगत नही होता जबकि संस्कृति समूहगत होती है व्यक्तिगत नहीं ।
हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति को लगभग एक ही बताया जाता है इसलिये दोनो के बीच अंतर करना बहुत कठिन कार्य है । किन्तु मुझे दोनो के बीच मे बहुत अंतर दिखता हैं इसलिये मै इस विषय की विस्तृत समीक्षा कर रहा हूँ । करीब एक हजार वर्ष पहले जब तक भारत मे विदेशी गुलामी नही आयी थी तब तक भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृत एक मानी जाती थी । इस संस्कृति मे जैन, बौद्ध, सिख, आर्य, वैदिक और सनातनी मिलकर माने जाते है । जबसे भारत मे इसाई और मुसलमान शासक के रूप मे स्थापित हुए उस समय से हिन्दू संस्कृति पर धीरे-धीरे विदेशी संस्कृति का प्रभाव पडना शुरू हुआ । स्वाभाविक है कि प्राचीन संस्कृति मे धीरे-धीरे विदेशी संस्कृति की मिलावट हुई और स्वतंत्रता के बाद जब उस संस्कृति मे साम्यवाद शामिल हुआ तब वह मिलावट बहुत ज्यादा हो गई । इसलिये स्पष्ट है कि हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति मे इतना अधिक अंतर हो गया कि दोनो मे समानता खोजना ही बहुत कठिन हो गया ।
हम भारत की प्राचीन संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के नाम से नामकरण कर रहे है । प्राचीन संस्कृति मे विचार प्रधान होता था और विचारो के आधार पर निकले निष्कर्ष को शेष समाज अपनी संस्कृति के रूप मे विकसित करता था । हिन्दू संस्कृति मे त्याग महत्वपूर्ण था, गुलामी के बाद विकसित भारतीय संस्कृति मे त्याग की जगह संग्रह प्रधान बन गया । विचारो के स्थान पर भी सत्ता और धन महत्वपूर्ण हो गये । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे स्पष्ट देखा जा सकता है कि धन और पद के लिये इतनी अधिक छीना-झपटी हो गई है कि हर नई पीढी का सदस्य धन और पद की छीना झपटी मे इस तरह लग गया है कि उसे नैतिकता या अनैतिकता की न कोई चिंता है न ज्ञान । इसी तरह हिन्दू संस्कृति मे वर्ग समन्वय महत्वपूर्ण था । कोई भी समूह संख्या विस्तार को महत्व नही देता था बल्कि हर समूह गुण प्रधानता को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे । भारतीय संस्कृति मे हिन्दू संस्कृति के ठीक विपरीत संख्या विस्तार को महत्व दिया जाने लगा । येन केन प्रकारेण हिन्दू संस्कृति के लागो की मान्यता और विश्वास को बदलकर उसे अपने साथ ले लेने को महत्व दिया गया । दुनिया मे हिन्दू संस्कृति आज तक ऐसा कीर्तिमान बनाये हुए है कि वह किसी अन्य संस्कृति के व्यक्ति को किसी तरह अपने साथ शामिल करने का प्रयत्न नही करती । अन्य विदेशी संस्कृतियां इन सब प्रयत्नो मे कितना भी नीचे उतरने के लिये तैयार रहती है । हिन्दू संस्कृति गुलामी सह सकती है किन्तु गुलाम नही बना सकती । वर्तमान भारतीय संस्कृति गुलामी सह तो सकती ही नही है, बल्कि गुलाम बनाने को अपनी सफलता मानने लगी है । यही कारण है कि वर्तमान भारतीय संस्कृति मे निरंतर हिंसा के प्रति विश्वास बढ रहा है । यह भी प्रत्यक्ष है कि हिन्दू संस्कृति अपने को सुरक्षात्मक मार्ग पर आगे बढ रही है तो भारतीय संस्कृति विस्तारवादी नीति पर चल रही है । हिन्दू संस्कृति का पक्षधर एक महत्वपूर्ण अंश संघ परिवार के नाम से भारतीय संस्कृति के मार्ग पर तेजी से बढने का प्रयास कर रहा है । नई पीढी शराफत को छोडकर अधिक से अधिक चालाक बनने की ओर अग्रसर है । वर्तमान भारतीय संस्कृति एक मुख्य पहचान बना चुकी है कि मजबूत से दबो और कमजोर को दबाओ । इसका प्रमुख कारण है कि प्राचीन हिन्दू संस्कृति मे संगठन का कोई महत्व नही था जबकि वर्तमान भारतीय संस्कृति मे संगठन को ही सबसे अधिक सफलता का मापदंड मान लिया गया है । गर्व के साथ संधे शक्ति कलौ युगे का खुले आम नारा लगाया जाता है । मै समझता हॅू कि हिन्दू संस्कृति पर आये विस्तारवादी संकट से सुरक्षा की आवश्यकता समझकर कुछ लोगो ने यह नारा लगाया है कि किन्तु यह नारा हिन्दू संस्कृति की परंपरा और पहचान के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता । प्राचीन संस्कृति मे व्यवस्था प्रमुख थी, राजनैतिक व्यवस्था का हस्तक्षेप सामाजिक व्यवस्था मे न्युनतम था । दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था भी राजनैतिक व्यवस्था मे हस्तक्षेप नही करती थी । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे धन और सत्ता इतने महत्व पूर्ण हो गये है कि इन्होने मिलकर पूरे समाज को ही गुलाम बना दिया । प्राचीन हिन्दू संस्कृति लगभग सत्ता निरपेक्ष थी लेकिन वर्तमान भारतीय संस्कृति पूरी तरह सत्ता और धन सापेक्ष हो गई है । हिन्दू संस्कृति मे वसुधैव कुटुम्बकम सर्वधर्म समभाव का महत्व था । उस समय धर्म और राष्ट्र की तुलना मे समाज को सर्वाधिक महत्व पूर्ण माना जाता था । धर्म और राज्य समाज के सहायक होते थे । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे समाज और धर्म की परिभाषा भी बदल दी गई और महत्व भी बदल दिया गया । अब समाज की जगह या तो धर्म को उपर माना जाता है या राष्ट्र को । धर्म का अर्थ गुण प्रधान से बदलकर पहचान प्रधान हो गया है तो राष्ट्र का अर्थ बदलकर राज्य तक सीमित हो गया है । अब समाज सर्वोच्च तो रहा ही नही । हमारी प्राचीन संस्कृति मे नैतिक प्रगति को भौतिक उन्नति की तुलना मे अधिक महत्व दिया जाता था । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे नैतिक पतन की तो कोई चिंता ही नही है । भौतिक उन्नति ही सब कुछ मान ली गई है । इस तरह यदि हम वर्तमान भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण व्याख्या करे तो उसमे दो निष्कर्ष निकलते है । 1 कमजोर को दबाना और मजबूत से दबना । 2 कम से कम परिश्रम और अधिक से अधिक लाभ का प्रत्यन करना । दोनो दिशाओ मे भारत दुनिया के अन्य देशो की तुलना मे अधिक तेज गति से छलांग लगा रहा है ।
हम इसके कारणो पर विचार करे तो पायेंगे कि हमारी प्राचीन संस्कृति की सुरक्षा के लिये धर्मगुरू और राजनेता महत्वपूर्ण हुआ करते थे । सम्पूर्ण समाज इन दो के पीछे चला करता था । आज भी सम्पूर्ण समाज तो इन दो के पीछे चल रहा है किन्तु इन दोनो की नीयत खराब हो गई है । धर्मगुरू भी समाज को गुलाम बनाने का प्रयास कर रहे है, जबकि उन्हे मार्ग दर्शन देना चाहिये था तो सत्ता भी गुलाम बनाने का प्रयास कर रही है जबकि उन्हे सुरक्षा और न्याय की गारंटी देनी चाहिये थी । हमारी प्राचीन हिन्दू संस्कृति मे प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा और न्याय की गारंटी थी, प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्राप्त थे । समाज किसी को भी अनुशासित तो कर सकता था किन्तु दंडित नही कर सकता था । वर्तमान संस्कृति मे समाज विदेशियो की नकल करके दंडित करना सीख गया तो राज्य समाज के हाथ से अनुशासित करने के अधिकार को भी छीन चुका है । अब खाप पंचायते दंड भी देने लग गई है तो राज्य समाज को बहिष्कार के अधिकार से भी वंचित कर रहा है ।
प्राचीन और वर्तमान संस्कृति मे आये बदलाव का परिणाम साफ दिख रहा है । परिवार व्यवस्था टूट रही है । राज्य व्यवस्था भी अव्यवस्था की तरफ जा रही है । सुरक्षा और न्याय पर से विश्वास घटकर सामाजिक हिंसा पर विश्वास बढ रहा है । लोकतंत्र की जगह तानाशाही की आवश्यकता महसूस हो रही है । सम्पूर्ण समाज किं कर्तव्य विमूढ की स्थिति मे है । वह अपनी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति का अनुकरण करके ठगा जाता रहे अथवा वर्तमान भारतीय संस्कृति के साथ घुल मिलकर समाज को ठग ले यह निश्चय करना कठिन हो रहा है । ऐसी परिस्थिति मे क्या करना चाहिये यह बहुत कठिन है । न तो हम ठगे जाने तक की शराफत की सलाह दे सकते है न ही ठग लेने तक की चालाकी को हम अच्छा मान सकते है । इसलिये जो कुछ हमारी हिन्दू संस्कृति का आधार है उसका ही आँख मूँदकर अनुकरण किया जाये इससे मै सहमत नही । साथ ही मै इस धारणा के भी विरूद्ध हॅू कि जो कुछ पुराना है वह पूरी तरह रूढिवादी है, विकास विरोधी है और उसे आंख मुदकर बदल देना चाहिये । मै तो इस मत का हॅू कि हम शराफत और चालाकी की जगह समझदारी से काम ले अर्थात प्राचीन हिन्दू संस्कृति और वर्तमान भारतीय संस्कृति के सैद्धान्तिक गुण दोषो की विवेचना करके उन्हे व्यावहारिक धरातल की कसौटी पर कसा जाये । उसके बाद कोई मार्ग समाज को दिया जाये इस संबंध मे मेरा विचार यह है कि सबसे पहले पूरे भारत मे इस धारणा को विकसित किया जाये कि समाज सर्वोच्च है धर्म और राष्ट्र उसके सहायक या प्रबंधक है । परिवार को समाज की प्राथमिक और अनिवार्य इकाई माना जाये । अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी के साथ मिलकर सहजीवन मे जीवन जीने की शुरूआत करनी होगी । परिवार के बाद गांव को भी व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई माना जाये । भारतीय संविधान मे से धर्म और जाति की जगह परिवार ओर गांव को शामिल किया जाये । व्यवस्था के मार्गदर्शन का अंतिम अधिकार धर्मगुरूओ तथा राजनेताओ से निकाल कर संपूर्ण समाज की भूमिका महत्वपूर्ण की जाये । इसका अर्थ हुआ कि संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार तंत्र से निकालकर लोक को अथवा लोक द्वारा बनायी गई किसी व्यवस्था को दिया जाये जिसमे तंत्र से जुडी किसी इकाई का कोई हस्तक्षेप न हो । यहां से हम शुरूआत करे तो आगे आगे कुछ और मार्ग निकल सकते है जिसके परिणाम स्वरूप प्राचीन संस्कृति और वर्तमान संस्कृति के बीच का कोई संशोधित मार्ग निकल सकता है जो हमारे लिये आदर्श बने ।
धर्म और संस्कृति कुछ मामलो मे एक-दूसरे के पूरक भी होते है और कुछ मामलो मे अलग-अलग भी । धर्म दूसरे के प्रति किये जाने वाले हमारे कर्तव्य तक सीमित होता है । जबकि संस्कृति का प्रभाव दूसरो के प्रति किये जाने वाले कार्य पर निर्भर होता है, चाहे वह कार्य अच्छा हो या बुरा । कोई व्यक्ति बिना सोचे तत्काल किसी कार्य को बार-बार करने लगता है तब वह उस व्यक्ति की आदत मान ली जाती है । ऐसी आदत लम्बे समय तक चलती रहे तब वह संस्कार बन जाती है । ऐसे संस्कार किसी इकाई के अधिकांश लोगो के हो जावे तब वह उस इकाई की संस्कृति मान ली जाती है । सोच समझकर लिया गया निर्णय और तदनुसार किया गया कार्य संस्कार नही माना जाता है । धर्म व्यक्तिगत होता है समूहगत नही होता जबकि संस्कृति समूहगत होती है व्यक्तिगत नहीं ।
हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति को लगभग एक ही बताया जाता है इसलिये दोनो के बीच अंतर करना बहुत कठिन कार्य है । किन्तु मुझे दोनो के बीच मे बहुत अंतर दिखता हैं इसलिये मै इस विषय की विस्तृत समीक्षा कर रहा हूँ । करीब एक हजार वर्ष पहले जब तक भारत मे विदेशी गुलामी नही आयी थी तब तक भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृत एक मानी जाती थी । इस संस्कृति मे जैन, बौद्ध, सिख, आर्य, वैदिक और सनातनी मिलकर माने जाते है । जबसे भारत मे इसाई और मुसलमान शासक के रूप मे स्थापित हुए उस समय से हिन्दू संस्कृति पर धीरे-धीरे विदेशी संस्कृति का प्रभाव पडना शुरू हुआ । स्वाभाविक है कि प्राचीन संस्कृति मे धीरे-धीरे विदेशी संस्कृति की मिलावट हुई और स्वतंत्रता के बाद जब उस संस्कृति मे साम्यवाद शामिल हुआ तब वह मिलावट बहुत ज्यादा हो गई । इसलिये स्पष्ट है कि हिन्दू संस्कृति और भारतीय संस्कृति मे इतना अधिक अंतर हो गया कि दोनो मे समानता खोजना ही बहुत कठिन हो गया ।
हम भारत की प्राचीन संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के नाम से नामकरण कर रहे है । प्राचीन संस्कृति मे विचार प्रधान होता था और विचारो के आधार पर निकले निष्कर्ष को शेष समाज अपनी संस्कृति के रूप मे विकसित करता था । हिन्दू संस्कृति मे त्याग महत्वपूर्ण था, गुलामी के बाद विकसित भारतीय संस्कृति मे त्याग की जगह संग्रह प्रधान बन गया । विचारो के स्थान पर भी सत्ता और धन महत्वपूर्ण हो गये । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे स्पष्ट देखा जा सकता है कि धन और पद के लिये इतनी अधिक छीना-झपटी हो गई है कि हर नई पीढी का सदस्य धन और पद की छीना झपटी मे इस तरह लग गया है कि उसे नैतिकता या अनैतिकता की न कोई चिंता है न ज्ञान । इसी तरह हिन्दू संस्कृति मे वर्ग समन्वय महत्वपूर्ण था । कोई भी समूह संख्या विस्तार को महत्व नही देता था बल्कि हर समूह गुण प्रधानता को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे । भारतीय संस्कृति मे हिन्दू संस्कृति के ठीक विपरीत संख्या विस्तार को महत्व दिया जाने लगा । येन केन प्रकारेण हिन्दू संस्कृति के लागो की मान्यता और विश्वास को बदलकर उसे अपने साथ ले लेने को महत्व दिया गया । दुनिया मे हिन्दू संस्कृति आज तक ऐसा कीर्तिमान बनाये हुए है कि वह किसी अन्य संस्कृति के व्यक्ति को किसी तरह अपने साथ शामिल करने का प्रयत्न नही करती । अन्य विदेशी संस्कृतियां इन सब प्रयत्नो मे कितना भी नीचे उतरने के लिये तैयार रहती है । हिन्दू संस्कृति गुलामी सह सकती है किन्तु गुलाम नही बना सकती । वर्तमान भारतीय संस्कृति गुलामी सह तो सकती ही नही है, बल्कि गुलाम बनाने को अपनी सफलता मानने लगी है । यही कारण है कि वर्तमान भारतीय संस्कृति मे निरंतर हिंसा के प्रति विश्वास बढ रहा है । यह भी प्रत्यक्ष है कि हिन्दू संस्कृति अपने को सुरक्षात्मक मार्ग पर आगे बढ रही है तो भारतीय संस्कृति विस्तारवादी नीति पर चल रही है । हिन्दू संस्कृति का पक्षधर एक महत्वपूर्ण अंश संघ परिवार के नाम से भारतीय संस्कृति के मार्ग पर तेजी से बढने का प्रयास कर रहा है । नई पीढी शराफत को छोडकर अधिक से अधिक चालाक बनने की ओर अग्रसर है । वर्तमान भारतीय संस्कृति एक मुख्य पहचान बना चुकी है कि मजबूत से दबो और कमजोर को दबाओ । इसका प्रमुख कारण है कि प्राचीन हिन्दू संस्कृति मे संगठन का कोई महत्व नही था जबकि वर्तमान भारतीय संस्कृति मे संगठन को ही सबसे अधिक सफलता का मापदंड मान लिया गया है । गर्व के साथ संधे शक्ति कलौ युगे का खुले आम नारा लगाया जाता है । मै समझता हॅू कि हिन्दू संस्कृति पर आये विस्तारवादी संकट से सुरक्षा की आवश्यकता समझकर कुछ लोगो ने यह नारा लगाया है कि किन्तु यह नारा हिन्दू संस्कृति की परंपरा और पहचान के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता । प्राचीन संस्कृति मे व्यवस्था प्रमुख थी, राजनैतिक व्यवस्था का हस्तक्षेप सामाजिक व्यवस्था मे न्युनतम था । दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था भी राजनैतिक व्यवस्था मे हस्तक्षेप नही करती थी । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे धन और सत्ता इतने महत्व पूर्ण हो गये है कि इन्होने मिलकर पूरे समाज को ही गुलाम बना दिया । प्राचीन हिन्दू संस्कृति लगभग सत्ता निरपेक्ष थी लेकिन वर्तमान भारतीय संस्कृति पूरी तरह सत्ता और धन सापेक्ष हो गई है । हिन्दू संस्कृति मे वसुधैव कुटुम्बकम सर्वधर्म समभाव का महत्व था । उस समय धर्म और राष्ट्र की तुलना मे समाज को सर्वाधिक महत्व पूर्ण माना जाता था । धर्म और राज्य समाज के सहायक होते थे । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे समाज और धर्म की परिभाषा भी बदल दी गई और महत्व भी बदल दिया गया । अब समाज की जगह या तो धर्म को उपर माना जाता है या राष्ट्र को । धर्म का अर्थ गुण प्रधान से बदलकर पहचान प्रधान हो गया है तो राष्ट्र का अर्थ बदलकर राज्य तक सीमित हो गया है । अब समाज सर्वोच्च तो रहा ही नही । हमारी प्राचीन संस्कृति मे नैतिक प्रगति को भौतिक उन्नति की तुलना मे अधिक महत्व दिया जाता था । वर्तमान भारतीय संस्कृति मे नैतिक पतन की तो कोई चिंता ही नही है । भौतिक उन्नति ही सब कुछ मान ली गई है । इस तरह यदि हम वर्तमान भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण व्याख्या करे तो उसमे दो निष्कर्ष निकलते है । 1 कमजोर को दबाना और मजबूत से दबना । 2 कम से कम परिश्रम और अधिक से अधिक लाभ का प्रत्यन करना । दोनो दिशाओ मे भारत दुनिया के अन्य देशो की तुलना मे अधिक तेज गति से छलांग लगा रहा है ।
हम इसके कारणो पर विचार करे तो पायेंगे कि हमारी प्राचीन संस्कृति की सुरक्षा के लिये धर्मगुरू और राजनेता महत्वपूर्ण हुआ करते थे । सम्पूर्ण समाज इन दो के पीछे चला करता था । आज भी सम्पूर्ण समाज तो इन दो के पीछे चल रहा है किन्तु इन दोनो की नीयत खराब हो गई है । धर्मगुरू भी समाज को गुलाम बनाने का प्रयास कर रहे है, जबकि उन्हे मार्ग दर्शन देना चाहिये था तो सत्ता भी गुलाम बनाने का प्रयास कर रही है जबकि उन्हे सुरक्षा और न्याय की गारंटी देनी चाहिये थी । हमारी प्राचीन हिन्दू संस्कृति मे प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा और न्याय की गारंटी थी, प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्राप्त थे । समाज किसी को भी अनुशासित तो कर सकता था किन्तु दंडित नही कर सकता था । वर्तमान संस्कृति मे समाज विदेशियो की नकल करके दंडित करना सीख गया तो राज्य समाज के हाथ से अनुशासित करने के अधिकार को भी छीन चुका है । अब खाप पंचायते दंड भी देने लग गई है तो राज्य समाज को बहिष्कार के अधिकार से भी वंचित कर रहा है ।
प्राचीन और वर्तमान संस्कृति मे आये बदलाव का परिणाम साफ दिख रहा है । परिवार व्यवस्था टूट रही है । राज्य व्यवस्था भी अव्यवस्था की तरफ जा रही है । सुरक्षा और न्याय पर से विश्वास घटकर सामाजिक हिंसा पर विश्वास बढ रहा है । लोकतंत्र की जगह तानाशाही की आवश्यकता महसूस हो रही है । सम्पूर्ण समाज किं कर्तव्य विमूढ की स्थिति मे है । वह अपनी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति का अनुकरण करके ठगा जाता रहे अथवा वर्तमान भारतीय संस्कृति के साथ घुल मिलकर समाज को ठग ले यह निश्चय करना कठिन हो रहा है । ऐसी परिस्थिति मे क्या करना चाहिये यह बहुत कठिन है । न तो हम ठगे जाने तक की शराफत की सलाह दे सकते है न ही ठग लेने तक की चालाकी को हम अच्छा मान सकते है । इसलिये जो कुछ हमारी हिन्दू संस्कृति का आधार है उसका ही आँख मूँदकर अनुकरण किया जाये इससे मै सहमत नही । साथ ही मै इस धारणा के भी विरूद्ध हॅू कि जो कुछ पुराना है वह पूरी तरह रूढिवादी है, विकास विरोधी है और उसे आंख मुदकर बदल देना चाहिये । मै तो इस मत का हॅू कि हम शराफत और चालाकी की जगह समझदारी से काम ले अर्थात प्राचीन हिन्दू संस्कृति और वर्तमान भारतीय संस्कृति के सैद्धान्तिक गुण दोषो की विवेचना करके उन्हे व्यावहारिक धरातल की कसौटी पर कसा जाये । उसके बाद कोई मार्ग समाज को दिया जाये इस संबंध मे मेरा विचार यह है कि सबसे पहले पूरे भारत मे इस धारणा को विकसित किया जाये कि समाज सर्वोच्च है धर्म और राष्ट्र उसके सहायक या प्रबंधक है । परिवार को समाज की प्राथमिक और अनिवार्य इकाई माना जाये । अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी के साथ मिलकर सहजीवन मे जीवन जीने की शुरूआत करनी होगी । परिवार के बाद गांव को भी व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई माना जाये । भारतीय संविधान मे से धर्म और जाति की जगह परिवार ओर गांव को शामिल किया जाये । व्यवस्था के मार्गदर्शन का अंतिम अधिकार धर्मगुरूओ तथा राजनेताओ से निकाल कर संपूर्ण समाज की भूमिका महत्वपूर्ण की जाये । इसका अर्थ हुआ कि संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार तंत्र से निकालकर लोक को अथवा लोक द्वारा बनायी गई किसी व्यवस्था को दिया जाये जिसमे तंत्र से जुडी किसी इकाई का कोई हस्तक्षेप न हो । यहां से हम शुरूआत करे तो आगे आगे कुछ और मार्ग निकल सकते है जिसके परिणाम स्वरूप प्राचीन संस्कृति और वर्तमान संस्कृति के बीच का कोई संशोधित मार्ग निकल सकता है जो हमारे लिये आदर्श बने ।
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