सुख का आधार खुश परिवार

किसी कार्य के परिणाम के काल्पनिक आंकलन और वास्तविक परिणाम के बीच का अन्तर ही आपके सुख या दुख का आधार होते है । घटनाओं का आधार क्षणिक होता है । ये आधार आपकी प्रवृत्ति के अनुसार चार भाग में हो सकते हैंः- 1. आप आत्म संतुष्ट हैं और आप पर किसी भी परिणाम का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता । 2. आप पूरी तरह असंतुष्ट रहते हैं । परिणाम चाहे कैसा भी हो किन्तु आप कभी संतुष्ट नहीं रहते । 3. आपको अपने प्रयत्नों के अनुसार परिणाम मिले तो संतुष्ट और न मिले तो असंतुष्ट । 4. आप कर्म करते समय हमेशा असंतुष्ट और परिणाम ईश्वर इच्छा मानकर संतुष्ट हो जाते हैं । आपका संतोष या असंतोष ही आपके सुख या दुख की मात्रा निश्चित करता है ।

व्यक्तिगत आधार पर जब व्यक्ति सुख अनुभव करता है तब वह खुश होता है और पारिवारिक आधार पर वह जब परिवार के लोगों को खुश देखता है तब सुख का अनुभव करता है । इस तरह प्रत्येक व्यक्ति के सुख अनुभव करने का प्रमुख आधार परिवार के लोगों की प्रसन्नता पर निर्भर करता है । आप अपने परिवार के किसी सदस्य को कोई बहुत अच्छी चीज लाकर दें किन्तु यदि वह सदस्य खुश नहीं हुआ तो आपको दुख होना स्वाभाविक है । इस तरह आपके सुख दुख में परिवार के सदस्यों की प्रसन्नता अप्रसन्नता का व्यापक प्रभाव होता है ।

परिवार की प्रसन्नता में कई बाधक तत्व शामिल होते हैंः-

  1. सम्पत्ति:- प्राचीन काल में व्यक्तिगत सम्पत्ति न होकर सम्पत्ति पूरे परिवार की सामूहिक होती थी । वर्तमान समय में व्यक्तिगत सम्पत्ति को मान्यता दे दी गई । पुराने जमाने में परिवार एक टीम के रूप में था किन्तु बाद में भिन्न-भिन्न स्वतंत्र व्यक्तियों की साझेदारी का समूह बना दिया गया । संयुक्त परिवार में एक साथ रहते हुये परिवार के प्रत्येक सुख-दुख, लाभ-हानि के संयुक्त परिणाम की जगह अलग-अलग परिणामों का सिद्धान्त बहुत ही मूर्खतापूर्ण और घातक है । यह सिद्धान्त बिना सोचे समझे उन देशों की आंख बंद नकल है जहां परिवार व्यवस्था अनिवार्य नहीं है । इस गलत कानूनी अधिकार के कारण सम्पत्ति विवाद बढ़े, व्यक्ति के अन्दर व्यक्तिगत स्वार्थ बढ़ा और परिवारों के टूटने का प्रमुख आधार बना । इस समस्या के समाधान के रूप में व्यक्तिगत सम्पत्ति को समाप्त करके संयुक्त सम्पत्ति का अधिकार लागू कर दे । प्रत्येक व्यक्ति परिवार की सम्पत्ति में ट्रस्टी हो मालिक नहीं । परिवार छोड़ते समय वह अपनी सम्पत्ति का मालिक हो सकता है । व्यक्तिगत सम्पत्ति का प्रावधान समाप्त करके संयुक्त सम्पत्ति करते ही सम्पत्ति विवाद कम हो जायेंगे, व्यक्तिगत स्वार्थ भाव भी कम होगा, महिला-पुरूष, बालक-वृद्ध के बीच सम्पत्ति के अधिकार की लुका छिपी नहीं रहेगी, परिवार में किसी के पास कम किसी के पास अधिक का सम्पत्ति भाव भी नहीं रहेगा । इस तरह पारिवारिक विवादों का प्रमुख आधार समाप्त हो जायेगा ।
  2. नेतृत्वः- प्राचीन समय में नेतृत्व का विवाद नहीं था । मुखिया जन्म से ही मान लिया जाता था । मुखिया की मृत्यु के बाद परिवार और समाज परिवार के मुखिया का चयन करके उसे पगड़ी पहना देता था । सामान्यतया बड़ा लड़का मुखिया होता था । सम्पत्ति का कोई विवाद नहीं था । आमतौर पर परिवार के लोग बैठ कर निर्णय करते थे । पूरे गांव के भी प्रमुख लोग एक साथ प्रतिदिन बैठते थे । इस तरह मुखिया की भी सामाजिक समीक्षा होती रहती थी । बाद में, जबसे समाज व्यवस्था छिन्न-भिन्न हुई तबसे मुखिया प्रणाली में दोष पैदा हुये । मुखिया तानाशाह बनने लगे और परिवारों में घुटन पैदा होनी शुरू हुई । परिवार के अन्य सदस्यों का न सम्पत्ति में कोई अधिकार न परिवार संचालन की व्यवस्था में । परिवार से अलग होने में भी बड़ी समस्या और साथ रहने में भी । घुटन और टूटन के बीच परिवार लम्बे समय तक कोई निष्कर्ष ही नहीं निकाल पाते कि क्या करें । पिता के नाम पूरी सम्पत्ति । बड़े भाई और छोटे भाई के बीच नेतृत्व का विवाद । पिता को विल के माध्यम से सम्पत्ति और नेतृत्व देने की स्वतंत्रता । इस तरह की परंपरागत व्यवस्था पारिवारिक एकता में बाधक बनी । परिवार के बच्चों की भी मजबूरी थी कि वे अपने पिता का ही पक्ष लें भले ही गलत ही क्यों न हो । इस परंपरागत प्रणाली में परिवार में पीढ़ियों के बीच भी टकराव शुरू होता रहता है । आमतौर पर मुखिया अधिक उम्र का रहता है और नई पीढ़ी बहुत नये जमाने के साथ जुड़ना चाहती है । यदि मुखिया को किनारे करके नई पीढ़ी परिवार पर हावी हो जाये तो बुजुर्ग की भूमिका जीवित लाश की तरह हो जाती है अन्यथा तब तक परिवार में टकराव चलता रहता है जब तक एक पक्ष परिवार छोड़ न दे । भाइयों के बीच मुखिया बनने की प्रतिस्पर्धा तथा पीढ़ियों के फर्क की भी पारिवारिक विघटन में बड़ी भूमिका होती है । इसके समाधान के लिये परिवारों में आंशिक लोकतंत्र लाया जाये । परिवार के सभी सदस्य मिलकर परिवार का एक संविधान बनावें । संविधान के आधार पर परिवार का एक प्रमुख हो जिसे राष्ट्रपति के समान भूमिका हो और वह बुजुर्ग हो । परिवार का एक मुखिया हो जिसे सबकी राय से प्रमुख चुने और उसकी भूमिका प्रधानमंत्री की तरह हो । मुखिया का निर्णय प्रत्येक सदस्य को मानना होगा । इस तरह नेतृत्व का विवाद कम हो सकता है । घुटन का भी आधार नहीं रहेगा । मुखिया परिवार प्रमुख की बात मानेगा और परिवार प्रमुख सामूहिक परिवार के निर्णय को मानने के लिये बाध्य होगा । परिवार में अधिकार, सम्पत्ति और नेतृत्व का विवाद नहीं रहेगा ।
  3. महिलाओं के अधिकारः- परंपरागत परिवार व्यवस्था में महिलाओं और बच्चों को कोई स्वतंत्र भूमिका नहीं थी । वे एक प्रकार से परिवार के सहायक के रूप में थे । महिलाओं और बच्चों को न कोई सम्पत्ति में अधिकार था न ही परिवार व्यवस्था में । सारी सम्पत्ति मुखिया की सारे अधिकार मुखिया के और मुखिया का चयन भी मनमाने तरीके से । ऐसा लगता है कि परंपरागत परिवार व्यवस्था में व्यक्ति एक वस्तु के समान था जो सिर्फ उपयोग के लिये था । इस अव्यवस्था के कारण महिलाओं और बच्चों के स्वतंत्र विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता था । उनमें या तो हीन भाव आ जाता था या कुंठा के शिकार हो जाते थे । स्वतंत्रता के बाद हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने इस स्थिति में सुधार की शुरूआत की किन्तु इस सुधार का स्वरूप बिल्कुल अस्पष्ट रहा । महिलाओं को विवाह के बाद भी पिता की सम्पत्ति में अधिकार तो दिया गया किन्तु वह भी उनके मरने के बाद और यदि पिता ने जीवित रहते किसी को विल ली या दी तो वह अधिकार भी समाप्त । महिला पति से अलग होना चाहे तो उसे पति की सम्पत्ति से कुछ न मिलकर उसे गुजारा भत्ता । पति पत्नी अलग होना चाहें तो सरकार से अनुमति । आज तक यह समझ में नहीं आया कि यदि दो जीवित प्राणी एक साथ न रहना चाहें तो किसी कानून से उन्हें एक साथ रहने के लिये मजबूर करना अपराध क्यों नहीं । लेकिन भारत में ऐसा आपराधिक कानून आज तक लागू है । इस अस्पष्टता के कारण महिला पुरूष के बीच विवाद बढ़ रहे हैं । अवयस्क बच्चों के विषय में भी पूरा विवाद है । बच्चों पर परिवार का कितना अधिकार राज्य का कितना और समाज का कितना यह अस्पष्ट है । बच्चों को परिवार की सम्पत्ति और व्यवस्था में कोई अधिकार नहीं है । परिवार बच्चों का पालन पोषण करता है और बालिग होते ही अलग । आज तक यह बात साफ नहीं कि परिवार का सदस्य होने के बाद भी राज्य उनके अधिकार और सुविधायें अलग कैसे दे सकता है । इन सब अस्पष्टताओं के कारण कानूनी विवाद बढ़ रहे हैं । यदि परिवार एक टीम रहे जहां सबके अधिकार, दायित्व, कर्तव्य, सुख-दुख सब संयुक्त हो और राज्य का र्को हस्तक्षेप न हो तो सारे प्रावधान स्पष्ट सारे विवाद समाप्त ।
  4. आपसी संबंधः- वर्तमान परिवार व्यवस्था में हर माता पिता संतान की इच्छा रखता है और उसमें भी पुत्र की इच्छा अधिक । दूसरी बात यह है कि वह अपने बच्चे के लिये अधिक मोह रखता है । संयुक्त परिवार में रहते हुये मुखिया का व्यवहार और आचरण समान नहीं रह पाता । लड़की अमानत है और बालिग होते ही उसका जाना निश्चित है । मुखिया की अपनी पत्नी अपने बच्चे भी हैं और अन्य सदस्यों के भी । पूरी सम्पत्ति और व्यवस्था में मुखिया की तानाशाही या एकाधिकार भी है । परिवार की पूरी व्यवस्था या तो अव्यवस्था है या भगवान भरोसे । वर्तमान कानून भी पूरी तरह अस्पष्ट हैं । लड़की यदि मनमाना विवाह कर ले तो परिवार की भूमिका असहाय की है । अब नयी व्यवस्था में सब कुछ स्पष्ट हो । बच्चे परिवार के हों । पुत्र मोह भी समाप्त हो जायेगा । पति पत्नी के संबंध पारिवारिक व्यवस्था के अन्तर्गत हों कोई कानूनी आधार या मान्यता नहीं । बच्चों का भरण पोषण भी संयुक्त परिवार में । सरकार और परिवार के बीच का संबंध सीधे मुखिया से । सरकार किसी भी पारिवारिक मामलें में सीधा हस्तक्षेप नहीं कर सकती क्योंकि परिवार एक स्वतंत्र इकाई है । परिवार का अपना संविधान है, अपनी व्यवस्था है, अपना स्वतंत्र ढांचा है । इस तरह परिवार और सरकार के बीच भी टकराव के मार्ग कम हो जायेंगे ।

मेरा मानना है कि परिवार की प्रसन्नता परिवार के प्रत्येक सदस्य के सुखी होने का पहला और महत्वपूर्ण आधार है । परिवार के आंतरिक मामलों में कानून का हस्तक्षेप बहुत जटिलताएं पैदा कर रहा है । परिवार के सभी सदस्य खुश रहें इसके लिये परिवार में टीम भाव बनाइये, स्वार्थ छोड़िये, अधिकार भाव छोड़कर कर्तव्य भाव बनाइये, व्यक्ति महत्वपूर्ण की जगह सिस्टम महत्वपूर्ण बनाइये । यदि परिवार खुश रहा तो सारा विश्व सुखी हो सकता है ऐसा वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश देने की जरूरत है ।