विकृत अर्थनीति और दुष्परिणाम
दिल्ली में शकरपुर में रहते हुए मुझे सात माह हो गये । मेरे निवास के दायीं ओर दो तीन फर्लांग के बाद झुग्गी झोपड़ी वाले लाखों लोग निवास करते हैं जिनके निवास स्थान का औसत प्रति व्यक्ति दस से पंद्रह वर्ग फुट है जिसमें सड़कें और स्कूल शामिल है । मेरी बांई ओर दो फर्लांग पर ही बड़े-बड़े भवन हैं जिनका औसत दो सौ से ढाई सौ वर्ग फुट प्रति व्यक्ति है । सड़क स्कूल और पार्क को छोड़कर । सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को इस बात की बहुत चिन्ता है कि दो सौ ढाई सौ वर्ग फुट भूमि एक व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त नहीं है । अतः उसने व्यावसायिक गतिविधियां बन्द करने और अवैध निर्माण तोड़ने को प्रतिष्ठा का प्रश्न लिया है । उसने झुग्गी झोपड़ी वालों को भी हटाने का आदेश दिया है । दोनों आदेशो का उद्देश्य है दिल्ली की भीड़-भाड़ कम करना जिससे सभ्य और सम्पन्न लोगों के लिए दिल्ली सुविधाजनक हो सके ।
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली की आबादी कम करने का प्रशासनिक समाधान खोजा जबकि यह किसी भी रूप में प्रशासनिक समस्या नहीं है । यह तो शुद्ध रूप में आर्थिक समस्या है । हमने स्वतंत्रता के बाद जो गलत अर्थनीति बनाई और जो अब तक उसी दिशा में चल रही है उसी का यह दुष्परिणाम है जो पूरे भारत में देख रहे हैं । चूंकि यह अर्थनीति के दुष्परिणाम है इसीलिए अर्थनीति संशोधित करने या बदलने से ही ठीक भी होंगे ।
अर्थव्यवस्था को केन्द्र में रखकर हम विचार करें तो भारत की कुल आबादी के दो वर्ग हैं । पहला वे जो श्रम आधारित रोजगार, ग्रामीण परिवेश, मूल वस्तु उत्पादन में सक्रिय तथा मजबूरी में अक्षम श्रेणी का जीवन जी रहा है । दूसरा वे जो बुद्धि आधारित रोजगार, शहरी परिवेश, व्यवस्था या प्रसंस्कृत उत्पादन तथा सक्षम श्रेणी की सुविधा का जीवन जी रहा है । आदर्श अर्थव्यवस्था का लक्ष्य पहले वर्ग को दूसरे वर्ग की दिशा में ले जाना है । इसका लक्ष्य दोनों वर्गो की दूरी कम करते जाना भी है जिसके लिये पहले वर्ग को प्रोत्साहन और दूसरे को निरूत्साहित या निरपेक्ष रहना उचित है । किन्तु भारत की अर्थव्यवस्था ने पहले वर्ग को प्रोत्साहन देने की अपेक्षा दूसरे वर्ग को प्रोत्साहन देना शुरू किया । दोनों वर्ग के बीच असमानता बढ़ती चली गई । दूसरे वर्ग के प्रति पहले वर्ग के लोग भागकर दूसरे वर्ग में शामिल होने लगे । जो औरो से कुछ ज्यादा योग्य हैं वे दूसरे वर्ग में शामिल हो जाते हैं और जो नही हैं वे उसी वर्ग में पड़े रहते हैं ।
यह सही है कि पहले वर्ग की संख्या घट रही है और दूसरे वर्ग की बढ़ रही है किन्तु ज्यों-ज्यों यह संख्या का अनुपात बदल रहा है त्यों-त्यों दूसरे वर्ग के समक्ष भी समस्याओं का अम्बार लग रहा है । क्योंकि दूसरे वर्ग की संख्या वृद्धि से उसकी प्राकृतिक सुविधाओं में कमी आ रही है । संख्या का परिवर्तन बिल्कुल स्पष्ट देखा जा सकता है । पहले वर्ग का एक श्रमिक एक सौ पचास रूपयें में श्रम प्रधान आजीविका की अपेक्षा एक सौ पचीस रूपयें की बुद्धि प्रधान आजीविका को अधिक महत्व देने लगा है । पहले वर्ग का व्यक्ति गांव के ग्रामीण परिवेश की अपेक्षा शहरी परिवेश में जीने के लिए भी छटपटा रहा है । शहरों की ओर निरंतर ग्रामीणों का पलायन दिख रहा है । मूल उत्पादन की अपेक्षा प्रसंस्कृत उद्योग या व्यवस्था में सक्रियता भी स्पष्ट दिख रही है । खेती के प्रति आकर्षण घट रहा है । लगातार खेती कम होती रहती है । खेती का सामान शहरों में आकर फिर प्रसंस्कृत रूप में वापस गांव की ओर जा रहा है । पूरी दिल्ली में मूल वस्तु उत्पादन लगभग नही के बराबर है । शहर के भीतर कोई खेती या खनिज उत्पादन नहीं है । फिर भी दिल्ली में रोजगार के अवसर अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा इतने अधिक है कि पूरे देश से लोग भागे चले आ रहे हैं । इसी तरह पहले वर्ग के लोगों की संस्कृति भी बदल रही है । पहले वर्ग का व्यक्ति भी भोजन की गुणवत्ता पर खर्च की अपेक्षा टीवी, फोन आदि सुविधाओं को अधिक महत्व देने लगा है । सम्पूर्ण भारतीय जीवन पद्धति में मानवीय उर्जा की खपत घट रही है और कृत्रिम उर्जा की खपत बढ़ रही है । यदि दस वर्ष पूर्व भारत में प्रतिवर्ष एक सौ यूनिट कृत्रिम उर्जा की खपत का औसत रहा होगा तो अब वह औसत प्रति व्यक्ति चार-पांच गुना तक बढ़ गया होगा । किन्तु मानवीय श्रम की औसत खपत तेजी से कम होती जा रही है । यह बेरोजगारी बढ़ने का एकमात्र कारण है ।
यदि आर्थिक आधार पर वर्ग निर्माण करें तो उपरोक्त दो वर्ग ही बनने चाहिए थे । सभी आर्थिक समस्यों का न्यायपूर्ण समाधान पहले और दूसरे वर्ग की दूरी को कम करना था किन्तु दूसरे वर्ग के लोगों ने पहले वर्ग को भ्रम मे रखकर इस खाई को बढ़ाते रहने के कई मार्ग बना लिये ।
- श्रम शोषण के चार सिद्धान्त माने जाते हैं (क) कृत्रिम उर्जा मूल्य नियंत्रण के प्रयत्न (ख) श्रम मूल्य वृद्धि की शासकीय घोषणाएँ (ग) शिक्षित बेरोजगारी दूर करने के प्रयत्न (घ) जातीय तथा अन्य आरक्षण । भारत में इन चारों पर पूरी ईमानदारी से काम हुआ जिसके परिणाम स्वरूप श्रम की मांग कम हुई तथा श्रम मूल्य वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ा ।
- पहले वर्ग को भ्रम में बनाये रखने के लिये असत्य को बार-बार दुहरा कर उसे सत्य सरीखा स्थापित कर दिया जाता है ।
- अस्पष्ट वर्ग बनाकर समस्याओं का समाधान करना शुरू कर दिया है । भारत का हर सक्रिय समाज शास्त्री, किसान, बेरोजगार, और गरीब के लिए बहुत चिन्तित है । बहुत लोग किसान के लिए बहुत चिन्तित हैं । किसान आत्महत्या कर रहा है इस बात की चर्चा तो आम हो गई है किन्तु इस बात का कोई समाधान नहीं हो पा रहा है क्योंकि किसान शब्द स्वयं में बहुत भ्रामक है । कृषि को लाभदायक होना चाहिए यह बात ठीक है किन्तु यह समस्या का पूरा-पूरा समाधान नहीं है क्योंकि ऐसी योजना का लाभ दूसरा वर्ग अधिक उठा लेगा । गरीब को भी राहत देने के प्रयत्न असफल हैं क्योंकि दूसरें वर्ग में भी बहुत लोग गरीब हैं जो गरीबी का जीवन जीने को तो तैयार हैं परन्तु श्रम करने को तैयार नहीं या शहर छोड़ने को तैयार नहीं ।
इसलिये हमें ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी कि पहले वर्ग के लोगों को प्रोत्साहन मिले । वर्तमान समय में पहले वर्ग के व्यक्तियों को प्रोत्साहन देने की परपंरा है जो पूरी तरह गलत है । मेरे विचार में व्यक्ति के स्थान पर वर्ग को प्रोत्साहित करे । यदि सौ लोग भूखे हैं जिनकी भूख मिटानी है । यदि हमारे पास दस लोगों लायक भरपेट भोजन है तो दस को भरपेट भोजन कराकर नब्बे को छोड़ देने की अपेक्षा सबको आंशिक भोजन देना अधिक अच्छा होगा । पहले वर्ग के कुछ लोग प्रगति करके दूसरे वर्ग में शामिल हो सकें इसे अपनी सफलता मानने की अपेक्षा पहले वर्ग के सब लोग थोड़ा आगे बढ़े यह अधिक अच्छी सफलता होनी चाहिए । मेरे विचार में हमारी सोच ही गलत है ।
अर्थशास्त्र का एक सामान्य सिद्धान्त है कि जिस वर्ग को प्रोत्साहित करना हो उस का इंधन सस्ता होना चाहिए भले ही उपकरण महंगा हो जाये और जिस वर्ग को निरूत्साहित करना हो उसका महंगा हो भले ही उपकरण सस्ता हो जावे । पहले वर्ग का उपकरण है मानव श्रम और ईंधन है अनाज । दूसरे वर्ग का उपकरण है मशीन और इंधन है कृत्रिम उर्जा । वर्तमान समय में भारत में अनाज, कपड़ा, दवा आदि पर भारी कर लगते हैं । धान पर छत्तीसगढ़ शासन ने चार प्रतिशत कर लगाया है । बीड़ी पत्ता पूरी तरह श्रम उत्पादित वस्तु है । मजदूर यदि एक सौ रूपये का बीड़ी पत्ता तोड़कर तैयार करता है तो उसमें से पच्चीस रूपया वाणिज्य कर विभाग, दो रूपये मंडी विभाग, पैंतीस रूपया वन विभाग तथा शेष तैंतालिस रूपये मजदूर को मिलता है । एक सौ रूपये में से सत्तावन रूपये शासकीय खजाने में जमा होता है जबकि पत्ता पूरी तरह प्रथम वर्ग का उत्पादन है । होना तो यह चाहिए था कि प्रथम वर्ग के लिये अनाज कपड़ा, दवा आदि टैक्स फ्री तो होती ही अधिकतम सस्ती भी होती तथा उत्पादन में से यदि शासन सुविधा नहीं देता तो कम से कम कटौती तो नहीं करता ।
दूसरे वर्ग की मशीनों पर भारी कर लगाकर इंधन सस्ता किया जा रहा है । अभी-अभी टेलीफोन का मासिक किराया बढ़ाकर उसका उपयोग सस्ता करके एक रूपया पूरा भारत के नाम से शुरू किया गया । इंधन सस्ता होने से उसके उपयोग को प्रोत्साहन मिलता है । होना चाहिए था कि प्रथम वर्ग के सम्पूर्ण उत्पादन और उपभोग की वस्तुओं को कर मुक्त करके श्रम मूल्य वृद्धि के प्रयास करने का प्रयत्न करते । साथ ही दूसरे वर्ग के इंधन (कृत्रिम ऊर्जा) की भारी मूल्य वृद्धि करके उपकरण (गाड़ी, मशीन) को सस्ता करते । किन्तु हुआ विपरीत । इसी का परिणाम हुआ की भारत में पचास, वर्षो में आबादी तो तीन गुना बढ़ा किन्तु आवागमन सत्तर गुना बढ़ गया । आवागमन तथा कृत्रिम ऊर्जा की खपत तीव्र गति से बढ़ने के बाद भी कृत्रिम ऊर्जा के मूल्य में कोई असाधारण वृद्धि नहीं हुई है ।
मेरा भारत के अर्थशास्त्रियों से एक सीधा प्रश्न है कि साइकिल आम तौर पर प्रथम वर्ग के उपयोग की वस्तु है और रसोई गैस द्वितीय वर्ग के उपयोग की । भारत की प्रदेश और केन्द्र सरकारें साईकिल पर ढाई सौ रूपया प्रति साइकिल से अधिक कर लगाती है और रसोई गैस पर छूट देती है । इतना छोटा सा सवाल मेरे मन में बार-बार उठता है और मैं पूछता भी हूँ लेकिन किसी अर्थशास्त्री ने मेरे इस प्रश्न को छुआ तक नहीं । दवा पर टैक्स लगाना हमारी क्या मजबूरी है ? धान चावल जैसी वस्तुओं पर कर लगा तो आवाज क्यों नहीं उठती है ? ग्रामीण परिवेश में उत्पादित वन उत्पादों पर इतना अधिक कर क्यों ? बेचारे वन सम्पूर्ण विश्व का पर्यावरण ठीक करते हैं, पहले प्रकार के लोगों की जीविका के साधन हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करते हैं तो उन पर भारी कर लगाया जाता है । मैं जिस भी अर्थशास्त्री से पूछता हूँ वहीं यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि उसे साइकिल पर कर का पता नहीं है । मेरा प्रश्न है कि मेरे बताने के बाद उन्होंने इस संबंध में क्यों छानबीन नहीं की ? या तो अब तक मेरी अच्छे अर्थशास्त्रियों से भेंट हुई या उन्हें ऐसे प्रश्नों से रूचि नहीं जो पहले वर्ग के पक्ष में हो ।
मैं यह महसूस करता हूँ कि भारत की आर्थिक समस्याओं का समाधान प्रशासनिक तोड़-फोड़ नहीं है । ऐसी सभी समस्याओं का एक ही समाधान है कि पहले वर्ग का जीवन स्तर इतना सुधारे कि उनका दूसरे वर्ग की ओर पलायन रूके । जब तक श्रम की मांग और मूल्य नहीं बढ़ेगा तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होगी तब तक शहरों में शान्ति संभव नहीं होगी । झुग्गी-झोपड़ी, रेहड़ी-पटरी वालों पर बुल्डोजर चलाना और भवनों में तोड़फोड़ करके दिल्ली की आबादी घटाने की योजना इस समस्या को और बढ़ायेगी ही । अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा । दूसरे वर्ग के इंधन को महंगा और पहले वर्ग का इंधन अधिकतम सस्ता करना होगा । यदि आवश्यक हो तो रोटी-कपड़ा, मकान, दवा, वनोत्पाद जैसे पहले वर्ग के उत्पादन और उपभोक्ता वस्तुओं को कर मुक्त करना ही होगा । भारत ने चालीस वर्ष साम्यवादी, समाजवादी षड्यंत्र के अन्तर्गत पहले वर्ग का शोषण किया और अब पूँजीवादी षड्यंत्र के अन्तर्गत हो रहा है । हमारा कर्तव्य है कि हम अब पहले वर्ग को दूसरे वर्ग के शोषण से बचाने के लिए भारत की अर्थनीति पर एक सार्थक और निर्णायक बहस छेड़ने की पहल करें ।
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