दायित्व, कर्तव्य एवं अधिकार
पूरी दुनियाँ में एक समस्या बढ़ती जा रही है कि सामान्यतया लोग दायित्व तथा कर्तव्य का अन्तर नहीं समझते। दुनिया भर के अच्छे-अच्छे विद्वान तक इस मामले मे भूल कर जाते हैं तो सामान्य जनों का तो कहना ही क्या? यदि दायित्व तथा कर्तव्य का अन्तर ठीक-ठीक समझ में आ जाए तो हमारी अस्सी प्रतिशत समस्याएँ स्वयमेव कम हो जायेगी। हमें अवश्य ही यह अन्तर समझना चाहिये।
किसी व्यक्ति के दायित्व हमेशा दूसरों के अधिकार होते हैं जबकि कर्तव्य सिर्फ स्वैच्छिक तथा एक पक्षीय होते हैं द्विपक्षीय नहीं। हमारा कर्तव्य सामने वाले का अधिकार नहीं हो सकता। दायित्व आम तौर पर लोग हमें सौंपते हैं। किन्तु यदि कल्पना करिये कि कोई दायित्व किसी ने सौंपा नहीं और हमने स्वेच्छा से स्वीकार किया हैं तब भी वह दायित्व पूरा करने के लिये हम बाध्य हैं क्योंकि वह हमारा स्वैच्छिक कर्तव्य न होकर दायित्व बन चुका है। यह अन्तर यद्धपि बहुत मामूली दिखते हुए भी बहुत गंभीर है क्योंकि इसका बहुत प्रभाव पड़ता है। एक एक्सीडेंट के कारण व्यक्ति मृत्यु से जूझ रहा हैं। एक ग्लास पानी मिलने से वह दवा खाकर जी सकता है। मेरे पास पर्याप्त पानी उपलब्ध है किन्तु मैं उसे पानी नहीं देता और वह व्यक्ति मर जाता है तो मेरा कार्य असामाजिक तो है किन्तु अपराध या समाज विरोधी नहीं। यदि मैं ऐसे व्यक्ति की सेवा के लिये ही नियुक्त हूँ और मैं उसे पानी नहीं देता तो वह मेरा अपराध है। जिसने मुझे नियुक्त किया है वह मुझे दंडित भी कर सकता है। न्याय और सुरक्षा राज्य का दायित्व होता है। बाकी सारे काम जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, पर्यावरण आदि सब शामिल हैं, राज्य के दायित्व नहीं होते। राज्य यदि न्याय और सुरक्षा न दे तो वह अपराधी है। हम उसे दण्डित भी कर सकते हैं किन्तु शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, भोजन आदि राज्य न भी दे तो हम उसे दण्डित नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह राज्य का दायित्व न होकर स्वैच्छिक कर्तव्य मात्र है। किसी सिरफिरे पश्चिमी विद्वान ने कल्याणकारी राज्य की कल्पना कर दी। पश्चिम के देशों में न्याय व्यवस्था मजबूत थी और सुरक्षा भी थी ही। पश्चिम ने जनकल्याणकारी राज्य की कल्पना को आदर्श मानकर उसे अपना दायित्व घोषित कर दिया। हमारे देश के आधुनिक विद्वानों ने तो जल्दी-जल्दी में केवल नकल की। उन्होंने भी जनकल्याणकारी राज्य को अपना दायित्व घोषित कर दिया। हमारे संविधान निर्माताओं ने समझा ही नहीं कि संविधान देश काल परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है एक नहीं। भारत में न्याय और सुरक्षा की स्थिति पष्चिम से भिन्न थी। हमारी ना समझ घोषणा ने भारत में न्याय और सुरक्षा को पीछे ढकेल कर स्वैच्छिक कर्तव्यों को ही आगे खड़ा कर दिया। आज भारत में व्याप्त सम्पूर्ण अव्यवस्था में दायित्व और कर्तव्य का अन्तर न समझना भी एक प्रमुख कारण रहा है।
दायित्व बाध्यकारी होते हैं और कर्तव्य स्वैच्छिक। दायित्व उत्तरदायित्व पूर्ण होते हैं किन्तु कर्तव्य प्रशंसा या धन्यवाद पूर्ण। कर्तव्य के लिये किसी से प्रश्न नहीं किया जा सकता। दायित्व के साथ-साथ शक्ति या पावर भी जुड़ा होता है जिसे हिन्दी में अधिकार कहते हैं। हम जिस व्यक्ति पर किसी कार्य का दायित्व सौंपते हैं उस व्यक्ति या संस्था को कुछ अधिकार भी सौंपते हैं। अधिकार जब मूल व्यक्ति के पास रहता है तो वह राइट होता है किन्तु वही अधिकार जब किसी दूसरे को दिया जाता है तब वह उसकी शक्ति या पावर बन जाता है। यह शक्ति ही उस व्यक्ति को दायित्व पूरा करने में काम आती है। किन्तु यह शक्ति, दो धारी तलवार होती है। यह शक्ति जहाँ दायित्व पूरा करने में सहायक होती है वहीं इस शक्ति का दुरूपयोग भी किया जा सकता है। ऐसी संभावना के मद्देनजर हमारी मजबूरी हो जाती है कि हम उस शक्ति के दुरूपयोग को रोकने के लिये किसी अन्य को और अधिक शक्ति सम्पन्न बनायें। यह शक्ति जितनी ही अधिक बढ़ती है उतना ही अधिक दुरूपयोग का खतरा भी बढ़ता जाता है। यह क्रम चलता रहता है।
भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यही भूल हो रही है कि कर्तव्यों को दायित्व में बदलने की होड़ मची हुई है। राज्य कहीं रूकना ही नहीं चाहता। वह बिना हमसे पूछे दायित्व स्वीकार करता जा रहा है और उस दायित्व को पूरा करने के लिये अपने पास शक्ति भी इकट्ठी करता जा रहा है। यह एकत्रित शक्ति ही दुरूपयोग के अवसर पैदा करती है जिसे रोकने के लिये किसी और ज्यादा शक्ति सम्पन्न व्यवस्था की आवश्यकता होती है। जब राज्य अपनी ताकत से अधिक दायित्व स्वीकार कर लेता है तब वह उन दायित्वों की प्राथमिकताएँ तय करने लगता है और स्वाभाविक है कि ऐसी प्राथमिकताओं में न्याय और सुरक्षा पिछड़कर अन्य जनकल्याणकारी आगे स्थान पा जावें।
सबसे खतरनाक बात है पुलिस की। सम्पूर्ण भारत में पुलिस विभाग के विरूद्ध दुरूपयोगों की शिकायतें आम बात हो गई है। हर न्यायाधीश इस मामले में पुलिस वालों के विरूद्ध टिप्पणी करना जनहित का कार्य समझता है। ऐसी टिप्पणी से उक्त न्यायाधीश का रूतबा भी बढ़ता है। हर मीडिया कर्मी, राजनेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, साहित्यकार या कोई भी परजीवी, लगातार पुलिस के खिलाफ वातावरण बनाने में लगा रहता है। किंतु दूसरी ओर पुलिस विभाग पर नये-नये दायित्व डालने में भी ये लोग कभी पीछे नहीं रहते। रोज नये-नये कानून बनाकर उन कानूनों को लागू करवाने का दायित्व पुलिस पर। स्वाभाविक है कि इन नये-नये दायित्वों के साथ-साथ पुलिस को शक्ति भी देनी पड़ती है और शक्ति के साथ-साथ उसके दुरूपयोग की भी संभावनाएँ बढ़ने लगती हैं जिसका लाभ उठाकर परजीवी पुलिस का मनोबल गिराने का अभियान चलाते रहते हैं। जब सब लोग समझते ही हैं कि पुलिस अपनी शक्ति का दुरूपयोग करती है तो उसके दायित्वों की समीक्षा करके उसके पंख क्यों न कतर दिये जावें। दहेज और शराब भी पुलिस ही रोकेंगी। वैश्यालयों पर नियंत्रण भी वही करेगी। यहाँ तक कि सिगरेट रोकने या वाहन चालक को हेल्मेट पहनाने का काम भी पुलिस ही करेगी। इतने सारे दायित्व पुलिस को सौंपे ही क्यों जावे? और यदि सौंपना आवश्यक ही है तो बिना स्पष्ट प्रमाण के आरोप लगाने की बुरी आदत हम क्यों नहीं छोड़ सकते? दहेज रोकने का दायित्व पुलिस से हटाकर उस मंत्रालय को सौंप दे जो दहेज रोकने का कानून बना रहा है। शराब गांजा, तम्बाकू आदि एक्साइज विभाग को दे दें। यातायात स्थानीय संस्थाओं को दे दें। पुलिस के दायित्व कम हो जायेंगे। जिस अनुपात मे पुलिस के दायित्व घटेंगे उसी अनुपात में उसकी शक्ति घटेगी और जिस अनुपात में शक्ति घटेगी उसी अनुपात में उसके दुरूपयोग के खतरे घटेंगे। दूसरी ओर एक लाभ यह भी होगा कि महत्वपूर्ण दायित्व पूरा करने के लिए पुलिस की कार्य कुशलता भी बढ़ेगी। अनेक समस्याओं का सुलझना आसान हो जायेगा। यदि हमने ऐसा न करके पुलिस के दायित्व बढ़ाने का क्रम जारी रखा तो खतरा पुलिस से नहीं है। खतरा है मीडिया नेता, मानवाधिकारी आदि परजीवियों से जिनका एकमात्र आधार है पुलिस की आलोचना करके अपना न्यूशेंस वैल्यू बढ़ाना। हमें चाहिये कि हम इस खतरे को भी ध्यान में रखें।
पुलिस का मामला तो एक उदाहरण मात्र है। वास्तविक खतरा तो राजनैतिक व्यवस्था से है। राजनैतिक व्यवस्था को यह विशेष सुविधा प्राप्त है कि वह किसी भी सीमा तक दायित्व स्वयं ले ले और उन दायित्वों को पूरा करने के नाम पर अपना पावर भी बढ़ाते चली जावे। स्वाभाविक है कि पावर के दुरूपयोग के अवसर भी बढ़ेंगे तथा भ्रष्टाचार भी बढ़ेंगे। इस दुरूपयोग और भ्रष्टाचार को रोकने के नाम पर कुछ और पावर अपने पास इकट्ठा कर ले और यह कार्य तब तक जारी रहे जब तक समाज पूरी तरह गुलाम न हो जावें। आज सम्पूर्ण भारत में यही हो रहा है जो एक खतरे की घंटी है और इस खतरे को समझना समझाना हम सबका कर्तव्य है।
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